कृषि वानिकी (Agroforestry) 2 शब्दों “कृषि” (agriculture) व “वानिकी” (forestry) के मिलने से बना है | अर्थात कृषि वानिकी भूमि उपयोग की वह प्रणाली है, जिसमें सुनियोजित ढंग से वृक्षों की खेती की जाती है | इसके अंतर्गत काष्ठ वृक्ष (timber) या झाड़ीदार पौधों / बांस के साथ खाद्यान्न फसलों का उत्पादन, चारा उत्पादन के साथ पशुपालन, मछलीपालन, मधुमक्खीपालन, रेशम कीट पालन (sericulture) या लाह उत्पादन इत्यादि को अपनाया जाता है। इस तकनीक के अंतर्गत उगाए जाने वाले वृक्ष बहुउद्देशीय दृष्टि से लाभकारी होते हैं । कृषि वानिकी में उगाये जाने वाले वृक्षों से उत्पादन के रूप में उपस्कर लकड़ी (टिम्बर), जलावन, काष्ठ, कोयला, चारा, फल, व अन्य कई प्रकार के उत्पाद प्राप्त होते हैं। साथ ही कृषक की आय में बढ़ोतरी , भूमि संरक्षण, मिट्टी की उर्वरता में सुधार, घेराबंदी (fencing), वायु अवरोधी सुरक्षा, पर्यावरण संरक्षण एवं जलवायु में सुधार इत्यादि भी संभव है। इस लेख में कृषि वानिकी के विभिन्न पहलुओं की चर्चा की गई है | हिंदी माध्यम में UPSC से जुड़े मार्गदर्शन के लिए अवश्य देखें हमारा हिंदी पेज आईएएस हिंदी |
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कृषि वानिकी के लाभ
कृषि वानिकी मौजूदा समय की मांग है | आज जिस प्रकार निरंतर कम होती कृषि योग्य भूमि पर बढती जनसँख्या का दबाव है वह जल्द ही विश्व में खाद्यान्न संकट एवं वैश्विक पर्यावरण के लिए संकट का कारण बनेगा | अत: जलवायु परिवर्तन से लड़ने, रोजगार सृजन, खाद्य सुरक्षा की समस्या को दूर करने, वनोन्मूलन के संकट से निपटने इत्यादि अनेक मोर्चों पर कृषि वानिकी एक सशक्त हथियार है | इसके अनेक लाभ हैं जिन्हें इस प्रकार समझा जा सकता है :
- कृषि वानिकी में भूमि का सुनियोजित एवं वैज्ञानिक उपयोग किया जाता है । इसका लाभ यह है कि भूमि से अनुकूलतम लाभ की प्राप्ति होती है |
- दैनिक जीवन में उपयोग के लिए काष्ठ -लकड़ी, पशुओं के लिए चारा ,जलावन आदि की प्राप्ति कृषि वानिकी से होती है तथा साथ ही प्राकृतिक वनों से इसका दोहन कम होता है।
- कृषि वानिकी भूमिगत जल के स्तर को बढ़ाने में सहायक होता है।
- मृदा संरक्षण का वास्तविक अर्थ केवल मृदा को ह्रास से बचाना नहीं ,बल्कि उसकी गुणवत्ता को भी बनाए रखना है | कृषि वानिकी से मृदा का संरक्षण भी संभव हो पाता है। पेड़ों की जड़ें मिट्टी को कटाव को रोक कर मृदा संरक्षण तो करती ही हैं साथ ही जैविक घटकों के कारण मिट्टी की उर्वरता भी बनी रहती है | वृक्षों की जड़ें मिट्टी में गहराई तक जाकर नमी एवं वायु प्रवाह के संतुलन में योगदान देती हैं |
- कृषि वानिकी कृषकों को आर्थिक सुरक्षा भी प्रदान करती है | प्राकृतिक आपदाओं जैसे- बाढ़, सूखा आदि के प्रभावों को इसके माध्यम से कम किया जा सकता है | फसल के क्षतिग्रस्त होने पर वैकल्पिक स्रोत के तौर पर वानिकी का विकल्प कृषक के पास रहता है।
- इसके अंतर्गत जलछाजन प्रबंधन के तहत वानस्पतिक आवरण का अच्छादन सम्यक रूप से बढ़ाया जा सकता है और वनों के पुनर्जीवीकरण में सहायता मिलती है।
- कई प्रकार के वृक्षों को जैविक खाद अथवा जैव पीड़कनाशी के तौर पर प्रयुक्त किया जाता है। नीम ,तुलसी,करंज (पोंगामिया) इत्यादि इसके अच्छे उदाहारण हैं | अब कई ऐसे पौधे हैं जिनकी खेती जैव -इंधन बनाने के लिए भी की जाती है | जट्रोफा इसका सर्वोत्तम उदाहारण है |
- कृषि वानिकी से किसान कम लागत तथा अल्प-अवधि में अच्छा लाभ प्राप्त कर सकते हैं। कृषि वानिकी कई प्रकार से रोजगार सृजन में भी सहायक सिद्ध हुआ है |
कृषि वानिकी का महत्त्व
भारत में कृषि वानिकी के महत्त्व को 1980 के दशक से महसूस किया जाने लगा | भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद (I.C.F.R.I) तथा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (I.C.A.R) द्वारा इस क्षेत्र में अनुसंधान आरम्भ किया गया। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा कृषि वानिकी पर एक “अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना” (A.I.C.R.P) चलाई गई और कृषि वानिकी में अनुसंधान कार्य को गति देने के लिए झांसी (उत्तर प्रदेश ) में राष्ट्रीय कृषि वानिकी अनुसंधान केंद्र (N.R.C.A.F) स्थापित किया गया । राष्ट्रीय वन नीति 1952, 1988 और राष्ट्रीय कृषि नीति 2000, हरित भारत 2001 टास्क फोर्स, राष्ट्रीय बांस मिशन 2002 और राष्ट्रीय कृषक नीति 2007 ने भी कृषि वानिकी को बहुमूल्य समर्थन दिया है। कृषि वानिकी के महत्त्व को समझते हुए वर्ष 2014 में भारत सरकार ने रोज़गार, उत्पादकता और पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देने के लिये एक ‘राष्ट्रीय कृषि-वानिकी नीति’ (National Agroforestry Policy- N.A.P) लागू की | ऐसा करने वाला भारत विश्व का पहला देश है । भारत की कृषि वानिकी नीति में जिन बातों पर बल दिया गया है उनमे सबसे प्रमुख है लोगों में इसके प्रति जागरूकता पैदा करना | इसके तहत कुछ बातों का ध्यान रखना आवश्यक है | कृषि वानिकी के अंतर्गत उगाये जाने वाले वृक्ष स्थानीय रूप से उगने में सक्षम होने चाहिए तथा वृक्ष तीव्र वृद्धि वाला होना चाहिए ताकि उसका आर्थिक जीवन काल शीघ्र पूर्ण हो | वृक्षारोपण में यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि प्रकाश भूमि में लगे फसलों तक भी सुगमता से पहुँच सके | नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले पौधे विशेष रूप से लाभकारी हैं | एक अनुमान के तहत देश की कुल ईंधन -लकड़ी (Fuelwood) आवश्यकताओं का लगभग 50%, लघु इमारती लकड़ी का लगभग 66%, उपस्कर की मांग का 70-80% , कागज़ उद्योग के लिये कच्चे माल का 60% भाग और हरा चारा (Green Fodder) का 10% हिस्सा कृषि वानिकी ही उपलब्ध कराता है। इससे कृषि वानिकी के महत्व को आसानी से समझा जा सकता है |
कृषि वानिकी की विभिन्न पद्धतियां
1. कृषि वानिकी भी कई प्रकृति की हो सकती है | सर्वाधिक आम पद्धति में फसलों के साथ वन- वृक्षों को खेतों में उगाया जाता है। वृक्ष या तो मुख्य खेत में कतारों या खेतों के मेढ़ों पर उगाये जा सकते हैं ताकि वे एक अवरोध (fencing) के तौर पर काम करें । उदाहारण :- शीशम, के साथ अरहर, मक्का , राई, तोरी इत्यादि । इस प्रकार से हम राष्ट्रीय वन नीति द्वारा निर्धारित उस लक्ष्य को भी प्राप्त कर सकते हैं जिसके तहत देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के कम से कम 33% पर वनाच्छादन होने की बात कही गई है |
2. दूसरी पद्धति वन चारागाह की है | इस पद्धति के अंतर्गत वृक्षों के मध्य चारा घास उगाते हैं, जैसे- नेपियर या स्थानीय घास। कई बार वृक्ष भी चारे के रूप में काम आते हैं | इस प्रकार कृषि वानिकी के साथ पशुपालन को सुगमता से किया जा सकता है |
3. एक अन्य पद्धति में फलदार वृक्षों, जैसे – आम, लीची, अमरूद, बेर, आंवला इत्यादि के साथ वानिकी वृक्ष शीशम, बबूल तथा विभिन्न प्रकार की खाद्यान्न फसलें एक साथ उगायी जाती हैं । किंतु फसलों अथवा वृक्षों का चयन ऐसा होना चाहिए कि वह एक दूसरे के प्रतियोगी ना हों | प्रत्येक फसल अथवा पौधे की खनिज आवश्यकताएं भी अलग-अलग होती हैं | ऐसी फसलो के चयन से मिट्टी में उर्वरता के संतुलन को बनाए रखते हुए कृषि वानिकी की जा सकती है |
4. उद्यान पद्धति में पहले वन -पौधे लगा दिये जाते हैं और उपल्ब्ध स्थान में छोटे फलदार वृक्ष लगा दिये जाते हैं जैसे -नीबू, केला, पपीता, अनन्नास, स्ट्रोबेरी आदि । वन-पौधों व फलदार पौधों का चयन जलवायु, भूमि, मांग, आदि को ध्यान में रखते हुए किया जाता है। इस पद्धति का लाभ यह है कि प्रारंभिक अवस्था में,जब वन- पौधे तैयार नहीं होते तब फलदार वृक्षों से कृषक को आय प्राप्त हो जाती है और बाद में जब फलदार वृक्ष लाभ नहीं दे रहे होते तब वन-पौधों से भी आमदनी हो जाती है। यह लघु एवं सीमान्त किसानों के लिए निम्न उपादनों पर आधारित अत्यंत उपयोगी पद्धति है, जो उन्हें अपनी दैनिक आवश्यकताओं में आत्मनिर्भर बनाता है।
5. वनवर्द्धन जल पद्धति : इस पद्धति को जल- वानिकी (Aqua- Forestry) भी कहते हैं। इस पद्धति में तालाबों के चारों तरफ वन- पौधे लगा दिये जाते हैं जिनकी पत्तियां व फल तालाब में गिरते हैं | इनका प्रयोग मछली और अन्य जलीय जीव खाने के लिए करते हैं। यह कृषि वानिकी के साथ मत्स्य पालन का एक अच्छा विकल्प है |
6. बांस रोपण : कृषि के साथ बांस की उपज कृषकों के लिए बेहद लाभदायक हो सकती है | हाल ही में भारत सरकार ने बांस को वृक्ष के वर्ग से हटाकर घास के समूह में रखा है जिससे अब इन्हें काटने के लिए वन विभाग से अनुमति की आवश्यकता नहीं रही | कागज उद्योग में बांस की बहुत मांग है। इस विषय में ग्रामीणों को जागरूक किए जाने की आवश्यकता है |
7. लघु-वनोत्पाद : अनेक ऐसे वृक्ष हैं जिनसे कृषकों को विभिन्न प्रकार के वनोत्पाद प्राप्त होते हैं | उदाहरण के लिए रेशम कीट पालन में शहतूत के वृक्ष पर ही रेशम के कीड़ों का पालन किया जाता है | कई ऐसे वृक्ष हैं जिनसे लाह (लाख) की प्राप्ति होती है | कुछ ऐसे भी वृक्ष हैं जो मधुमक्खी पालन में उपयोग में लाए जाते हैं | रबर, महुआ, गोंद इत्यादि कुछ अन्य प्रमुख लघु वन उत्पाद हैं | नई प्रचलित प्रजातियों में करंज, नीम, आंवला, काष्ठ, बादाम, नागकेसर इत्यादि का नाम लिया जा सकता है। इस अवधारणा का लाभ देश की जनजातियां विशेष तौर पर उठा सकती हैं जो सदियों से वनों में ही रहती आई हैं |
8. कृषि वानिकी से परती व बंजर भूमि की गुणवत्ता में सुधार संभव है। देश में कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां भूमि पर गहन कृषि संभव नहीं है | सींचाई की सुविधा का आभाव है | ऐसे क्षेत्रों में कृषि वानिकी की अवधारणा अत्यंत लाभकारी सिद्ध होगी | यहां ऐसे वृक्षों को उगाया जा सकता है जिन्हें कम मात्रा में जल की आवश्यकता होती है | परती भूमि में जैविक पदार्थ की मात्रा में बढ़ोत्तरी होगी। जल संचयन की शक्ति में विकास होगा। कृषि वानिकी के द्वारा धीरे-धीरे ऐसे क्षेत्रों को कृषि योग्य भूमि में पूर्णत: बदला जा सकता है |
कृषि वानिकी के लिए कुछ प्रमुख उपयोगी वृक्ष प्रजातियां
कृषि वानिकी के लिए कुछ प्रमुख उपयोगी वृक्ष प्रजातियां |
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1. ईंधन व चारा के लिए |
करंज ,जट्रोफा ,बबूल, सिरिस, अगस्त, अमलतास,एवं कचनार इत्यादि |
2. इमारती लकड़ी के लिए |
शीशम, सागवान,सखुआ , गम्हार, महोगनी,कटहल ,आम , बाँस इत्यादि |
3.जल-मग्न भूमि के लिए |
अर्जुन, जामुन सफेदा इत्यादि |
4.रेगिस्तानी -रेतीली भूमि के लिए |
बबूल, नीम, खैर, इत्यादि |
5.बंजर भूमि के लिए |
महुआ, बेर, जंगल जलेबी,इत्यादि |
6.फलदार वृक्ष |
आम,अमरुद लीची, आंवला, बेर, शरीफा, तूत, बेल इत्यादि |
7.औषधीय पौधे |
नीम,तुलसी ,अमलतास ,आंवला, बेल, अशोक, अर्जुन, नीम, करंज, हरड़-बहेड़ा इत्यादि |
इन सबके अतिरिक्त माचिस (सलाई) निर्माण उद्योग, पत्तल उद्योग (सखुआ ,पलाश आदि) एवं अन्य कई प्रकार के उद्योगों में वृक्षों का या उनके उत्पादों का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रयोग किया जाता है | |
भारत में कृषि वानिकी की सीमाएं : भारत में कृषि वानिकी निश्चित रूप से एक अच्छा विकल्प है लेकिन इसे लेकर कुछ समस्याएं भी हमारे सामने हैं | सबसे पहला, जैसा कि हम जानते हैं हमारे देश में अधिकांश किसान लघु व सीमांत किसान हैं, अर्थात उनकी जोत का आकार छोटा है जबकि कृषि वानिकी के लिए अपेक्षाकृत अधिक क्षेत्र की आवश्यकता होती है | दूसरी समस्या जागरूकता को लेकर है | हमारे देश में किसान आम तौर पर पारंपरिक कृषि पद्धति को ही अपनाते आए हैं और वे कृषि वानिकी के लाभ से कुछ हद तक अनभिज्ञ हैं | आवश्यकता है इस क्षेत्र में जागरूकता फैलाने के लिए कार्य करने की | इसके तहत सरकार द्वारा वित्तीय सहायता भी उपलब्ध कराई जा सकती है और तकनीकों व प्रशिक्षण को कृषकों तक पहुंचाया जा सकता है |
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