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1853 का चार्टर अधिनियम

भारत में 31 दिसम्बर 1600 को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (E.I.C) की स्थापना हुई थी । ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ -प्रथम के चार्टर द्वारा उन्हें भारत में व्यापार करने के एकाधिकार प्राप्त हुए । लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी जिसके कार्य शुरूआती वर्षों में सिर्फ व्यापारिक कार्यों तक ही सीमित थे, ने 1765 में बंगाल, बिहार और उड़ीसा के दीवानी (अर्थात राजस्व उगाही एवं दीवानी न्याय संबंधी अधिकार) अधिकार प्राप्त कर लिए और धीरे धीरे एक राजनैतिक शक्ति के रूप में उभरने लगी । प्लासी का युद्ध (1757) भारतीय इतिहास में एक “टर्निंग पॉइंट” था और दीवानी अधिकार के तहत भारत में कंपनी के क्षेत्रीय शक्ति बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। 1857 के विद्रोह के परिणामस्वरूप ब्रिटिश क्राउन ने भारत के शासन का उत्तरदायित्व प्रत्यक्षतः अपने हाथों में ले लिया और यह शासन भारत में 15 अगस्त, 1947 तक चला । इस दौरान ब्रिटिश शासन ने समय समय पर कई अधिनियम पारित किये जिनके बल पर भारत में ब्रिटिश शासन की रूप-रेखा तैयार की गई | साथ ही ,जब भारत को स्वाधीनता मिली और देश ने एक नए संविधान के निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ की तो प्रस्तावित संविधान और राजव्यवस्था की अनेक विशेषताएं ब्रिटिश शासन के इन्हीं अधिनियमों से ग्रहण की गयी थीं | इस लेख में 1853 के चार्टर अधिनियम के प्रावधानों की जानकारी दी गई है |

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1853 के चार्टर अधिनियम के प्रावधान

1793 से 1853 के दौरान ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किए गए चार्टर अधिनियमों की श्रृंखला में 1853 का अधिनियम अंतिम अधिनियम था । इससे पहले 1813 एवं 1833 में भी महत्वपूर्ण चार्टर अधिनियम पारित किये गये थे जो मुख्यतः कंपनी के भारत एवं चीन के व्यापार के एकाधिकार से सम्बंधित थे | संवैधानिक विकास की दृष्टि से 1853 का चार्टर अधिनियम एक महत्वपूर्ण अधिनियम था। इस अधिनियम के प्रावधान निम्नवत थे :

1. इस अधिनियम ने पहली बार गवर्नर जनरल की परिषद के विधायी एवं प्रशासनिक कार्यों को अलग कर दिया। इसके तहत परिषद में 6 नए पार्षद और जोड़े गए, इन्हें विधान पार्षद कहा गया। ये थे – उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश एवं एक अन्य न्यायाधीश तथा बंगाल, मद्रास, बॉम्बे तथा उत्तर पश्चिमी प्रांत (आधुनिक उत्तर प्रदेश) के एक-एक प्रतिनिधि | दूसरे शब्दों में, इसने गवर्नर जनरल के लिए नई विधान परिषद का गठन किया, जिसे भारतीय (केंद्रीय) विधान परिषद कहा गया। परिषद की इस शाखा ने छोटी संसद की तरह कार्य किया। इसमें वही प्रक्रियाएं अपनाई गईं, जो ब्रिटिश संसद में अपनाई जाती थीं। इस प्रकार, विधायिका को पहली बार सरकार के विशेष कार्य के रूप में जाना गया, जिसके लिए विशेष मशीनरी और प्रक्रिया की जरूरत थी।

2. इस अधिनियम ने ही सिविल सेवकों की भर्ती एवं चयन हेतु खुली प्रतियोगिता व्यवस्था का आरंभ किया | इस प्रकार प्रतिष्ठित सिविल सेवा भारतीय नागरिकों के लिए भी खोल दी गई और इसके लिए 1854 में (भारतीय सिविल सेवा के संबंध में) मैकाले समिति की नियुक्त की गई।

3. इसने कंपनी के शासन को विस्तारित कर दिया और भारतीय क्षेत्र को इंग्लैंड राजशाही के विश्वास के तहत कब्जे में रखने का अधिकार दिया। लेकिन पूर्व अधिनियमों के विपरीत इसमें किसी निश्चित समय का निर्धारण नहीं किया गया था। इससे स्पष्ट था कि संसद द्वारा कंपनी का शासन किसी भी समय समाप्त किया जा सकता था। अर्थात इस अधिनियम के अनुसार कंपनी को भारतीय प्रदेशों को ब्रिटिश क्राउन तथा उसके उत्तराधिकारीयों की ओर से “ट्रस्ट” के रूप में किसी निश्चित समय के लिए नहीं बल्कि जब तक संसद न चाहे उस समय तक के लिए अपने अधीन रखने की अनुमति दे दी गई |

4. इसने प्रथम बार भारतीय केंद्रीय विधान परिषद में स्थानीय प्रतिनिधित्व प्रारंभ किया। जैसा की उपर वर्णित है , गवर्नर-जनरल की परिषद में 6 नए सदस्यों में से, चार का चुनाव बंगाल, मद्रास, बंबई और आगरा की स्थानीय प्रांतीय सरकारों द्वारा किया जाना था।

5.कंपनी के निदेशकों (directors) की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गई और उनमें से 6 क्राउन के द्वारा मनोनीत (nominate) किए जाने थे | इस निर्णय के पीछे मकसद यह था की दो परस्पर विरोधी विचारधाराओं के बीच एक सुलह कराई जा सके | जो लोग कंपनी को जारी रखना चाहते थे वह इस बात से संतुष्ट हो गए की कंपनी कार्य करती रहेगी जब तक कि संसद चाहे और जो लोग कंपनी को समाप्त करना चाहते थे उन्हें इस बात का संतोष था कि निदेशकों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गई है अर्थात निदेशकों के वर्चस्व में कमी आई है |

समीक्षा

1853 के चार्टर अधिनियम की सबसे बड़ी त्रुटी यह थी कि इसने भारतीयों को अपने विषय में कानून बनाने की अनुमति नहीं दी | 1857 के विद्रोह और 1853 के अधिनियम के संदर्भ में सर बार्टल फ्रायेर जो की स्वयं बॉम्बे प्रेसीडेंसी के गवर्नर थे , का कथन है “यह अधिनियम करोड़ों लोगों के लिए कानून बनाने का प्रयोग था जिसमें उन्हें केवल विद्रोह के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं दिया गया कि वह कह सकें कि यह कानून हमारे लिए अनुकूल है या प्रतिकूल” | इस अधिनियम के बाद शीघ्र ही भारत में 1857 का व्यापक विद्रोह हुआ और उसके अगले वर्ष ईस्ट इंडिया कंपनी को समाप्त कर 1858 का अधिनियम लागू किया गया |

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