आपने पिछले साल (सातवीं कक्षा में) बाल महाभारत कथा पढ़ी। भारत की खोज में भी महाभारत के सार को सूत्रबद्ध करने का प्रयास किया गया है-"दूसरों के साथ ऐसा आचरण नहीं करो जो तुम्हें खुद अपने लिए स्वीकार्य न हो।" आप अपने साथियों से कैसे व्यवहार की अपेक्षा करते हैं और स्वयं उनके प्रति कैसा व्यवहार करते हैं? चर्चा कीजिए।
एक कक्षा या किसी भी कार्यालय में जहाँ अलग-अलग स्वभाव के लोग साथ आकर पढ़ते हैं या काम करते हैं वहाँ समन्वय की भावना का होना अति आवश्यक है। यदि हमारे मन में हमारे सहपाठियों या मित्रों के प्रति द्वेष भावना और ईर्ष्या की भावना होती है, वहाँ रिश्तों में मधुरता नहीं होती ना ही हम किसी के मित्र बन सकते हैं और ना ही एक अच्छा मित्र बन पाते हैं। जिस जगह पूर्ण निस्वार्थ भाव से मधुर आचरण किया जाता है वहाँ मित्रता का बहुत ही सुंदर रूप देखने को मिलता है।
यदि हम दूसरों के साथ मित्रतापूर्ण आचरण न करें, हमेशा उनके साथ बेरूखा व्यवहार करें, मधुरता का जवाब क्रोधपूर्ण व्यवहार के साथ देंगे तो हमें कभी उसकी जगह मधुरता व प्रेम प्राप्त नहीं हो सकेगा। हम सदैव अकेले व उग्र स्वभाव के हो जाएँगे। सभी हमसे बात करने से कतराएँगे व हमारे प्रति अपने मन में कटुभावना रखेंगे। इसके विपरीत यदि हम सबके साथ मधुरतापूर्ण आचरण रखें, प्रेम भाव से सबका सम्मान करें तो हमें भी उनसे वही मधुरता व वही सम्मान प्राप्त होगा। हम हर मनुष्य को अपना मित्र बना पाएँगे, लोगों के हृदय में आदरभाव की भावना को उत्पन्न कर पाएँगे। इसलिए महाभारत में कहा गया है कि दूसरों के साथ ऐसा आचरण नहीं करो जो तुम्हें खुद अपने लिए स्वीकार्य न हो।