मौर्य साम्राज्य के विघटन के बाद उत्तर भारत में लगभग 500 वर्षों तक किसी शक्तिशाली राज्य का उदय नहीं हो सका। इस बीच कुछ समय के लिए मध्य देश में शुंग, पंजाब में विदेशी आक्रमणकारी ( जैसे बैक्ट्रियाई-यवन, पल्लव
और शकों) ने अपना अधिकार अवश्य स्थापित किया । इनके बाद उत्तरी भारत में कुषाण तथा दक्षिण में सातवाहन एवं वाकाटकों का भी उदय हुआ, परन्तु गुप्त साम्राज्य के उदय के बाद ही भारत में एक शक्तिशाली साम्राज्य का पुनर्निर्माण हो सका। गुप्तकालीन इतिहास की जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत उस काल के अभिलेख हैं यूं तो गुप्तकाल के 50 से भी अधिक अभिलेख प्राप्त हुए हैं किंतु उनमें से कुछ का ही ऐतिहासिक महत्व अधिक है | गुप्त काल के प्रथम तीन शासक श्री गुप्त घटोत्कच एवं चंद्रगुप्त प्रथम के अभी तक कोई अभिलेख प्राप्त नहीं हुए हैं सभी गुप्तकालीन अभिलेखों की भाषा संस्कृत एवं लिपि ब्राम्ही है | इस लेख में हम गुप्त कालीन भारत की जानकारी प्राप्त करेंगे |
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गुप्त काल का राजनैतिक इतिहास
श्रीगुप्त (275-300 ई.) : समुद्रगुप्त के इतिहास प्रसिद्ध प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख से ज्ञात होता है कि गुप्तों का प्रथम ऐतिहासिक शासक श्रीगुप्त था। चीनी यात्री इत्सिंग (671-695 ई.) भी श्रीगुप्त का उल्लेख करता है | बनारस के पास से इसकी कुछ मुद्राएँ भी प्राप्त हुई है। इसमें से एक मोहर पर “गुप्तस्य” और दूसरे पर “श्रीगुप्तस्य” अंकित है। इतिहासकार मानते हैं कि गुप्त वंश के प्रथम राजा का नाम केवल “गुप्त” था और “श्री” की उपाधि उसने राजा बनने के बाद धारण की। वह सम्भवतः कुछ वर्षों तक मुरुण्डों का अधीनस्थ शासक था, परन्तु बाद में स्वतन्त्रता प्राप्त कर उसने महाराज की उपाधि धारण की।
घटोत्कच (300-319 ई.) : स्कन्दगुप्त के समय के सुपिया अभिलेख तथा प्रभावतीगुप्त के पूना ताम्रपत्र अभिलेख के अनुसार घटोत्कच गुप्तवंश का संस्थापक था, परन्तु समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार इस वंश का संस्थापक श्रीगुप्त था। इसके शासन काल की किसी भी घटना की जानकारी नहीं मिलती। इसने भी महाराज की उपाधि धारण की।
चन्द्रगुप्त प्रथम (319-334 ई.) : गुप्तवंश का प्रथम महान् शासक चन्द्रगुप्त प्रथम था। उसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। लिच्छवियों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर उसने अपनी स्थिति सुदृढ़ की। उसने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया,जिससे समुद्रगुप्त का जन्म हुआ। इस विवाह की स्मृति में उसने “चन्द्रगुप्त-कुमारदेवी प्रकार” के सोने के सिक्के चलाए, जिन पर एक ओर कुमारदेवी एवं चन्द्रगुप्त का चित्र तथा दूसरी ओर लक्ष्मी का चित्र अंकित था। उसका दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य था राज्यारोहण की तिथि से गुप्त संवत् (319-20 ई.) चलाना । उसने आधुनिक बिहार और उत्तर प्रदेश के अधिकांश क्षेत्रों पर अपना अधिकार स्थापित किया। शासन के अन्तिम चरण में उसने संन्यास ले लिया। उसने समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया।
समुद्रगुप्त (335–380 ई.) : यह गुप्त वंश का सर्वाधिक पराक्रमी शासक हुआ। राज्यारोहण से पूर्व उसे अपने बड़े भाई काच के विद्रोह का सामना करना पड़ा। काच ने स्वयं को शासक घोषित करने के लिए अपने नाम के सिक्के भी ढलवाए, परन्तु समुद्रगुप्त ने स्थिति पर शीघ्र ही काच पर नियन्त्रण प्राप्त कर लिया। समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण ने “चम्पूकाव्य शैली” में प्रयाग प्रशस्ति की रचना की | इस अभिलेख से ही गुप्त काल के बारे में सर्वाधिक महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलती हैं | उसे अपनी साम्राज्यवादी नीति के कारण इतिहासकार वी ए स्मिथ द्वारा भारत के नेपोलियन की संज्ञा दी गई है | समुद्रगुप्त का विजय अभियान निम्नलिखित चरणों में हुआ, जिसका विवरण इस प्रकार है :-
प्रथम चरण में उसने आर्यावर्त या उत्तरी भारत के 9 राजाओं को परास्त कर इन राजाओं को अपने राज्य का अंग बना लिया। इसमें गणपति नाग (मथुरा का शासक), अच्युतदेव (अहिच्छत्र का शासक), नागदत्त (विदिशा का शासक) आदि प्रमुख थे।
द्वितीय चरण में उसने 9 गणराज्यों को जीता, जिसमें योधेय, मालव, आर्जुनायन आदि प्रमुख थे। इसी चरण में उसने प्रत्यन्त राज्यों (सीमावर्ती राज्यों) को भी जीता जिसमें समतट, डवाक, कामरूप, नेपाल, कर्त्तपुर आदि प्रमुख थे।
तृतीय चरण में आटविक नाम की एक वन्य जाति को समुद्रगुप्त ने परास्त किया। इस जाति ने सम्राट अशोक के शासन काल में भी संकट उत्पन्न किया था |
चतुर्थ चरण में उसने दक्कन के 12 राज्यों को जीता जो थे : 1.कोशल का राजा महेन्द्र, 2.महाकान्तार का राजा व्याघ्रराज, 3.कौराल का राजा मण्टराज, 4.पिष्टपुर का राजा महेन्द्रगिरि, 5.कोट्ठर का राजा स्वामीदत्त, 6.काँची का राजा विष्णुगोप ( यह समुद्र गुप्त की अत्यंत महत्वपूर्ण विजय मानी जाती है ), 7.अवमुक्त का राजा नीलराज, 8.वेगी का राजा हस्तिवर्मा, 9.पालक्क का राजा उग्रसेन, 10.देवराष्ट्र का राजा कुबेर, 11.कुस्थलपुर का राजा धनन्जय तथा 12.एरण्डपल्ल का राजा दमन ।
पाँचवाँ चरण में उसने विदेशी शक्तियों को जैसे- देवपुत्र शाहीन शाहानुशाही (भारत की पश्चिमी सीमा पर रहने वाले कुषाण वंशजों), शक, मुरूदण्ड, सिंहलद्वीप, सर्वद्वीपवासिन के राजाओं को जीता। इन विदेशी शासकों के साथ तीन विधियाँ अपनाई गई आत्मनिवेदन अर्थात् गुप्त सम्राट के सामने स्वयं हाजिर होना, कन्नोपायन अर्थात् अपनी पुत्रियों का गुप्त राजघराने में विवाह करना तथा गुरुत्मन्दक अर्थात् अपने विषय या भुक्ति के लिए गरुड़ अंकित मुहर से छपे शासनादेश प्राप्त करना। साहित्य एवं संगीत में समुद्रगुप्त की अभिरुचि थी। हरिषेण द्वारा उसे “कविराज” तथा “संगीत का प्रेमी” की उपाधि से विभूषित किया गया है। एक मुहर पर उसे वीणा बजाते हुए भी दिखाया गया है |
चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) (380-415 ई.) : अभिलेखों के अनुसार, समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त द्वितीय को माना जाता है, परन्तु कुछ साहित्य एवं प्राप्त सिक्कों से पता चलता है कि उन दोनों के बीच सम्भवतः चन्द्रगुप्त द्वितीय के बड़े भाई रामगुप्त का भी क्षणिक शासन रहा था । रामगुप्त को पदच्युत कर चन्द्रगुप्त गद्दी पर बैठा | उसका मूल नाम देवराज या देवगुप्त था। कुछ वाकाटक अभिलेखों व चन्द्रगुप्त के सिक्कों से इसकी पुष्टि होती है | गुजरात के शकों को परास्त करने के बाद चन्द्रगुप्त द्वितीय ने “शकारि” एवं “विक्रमादित्य” जैसी उपाधियाँ धारण कीं।
कुमारगुप्त प्रथम ( 415-454 ई.) : चन्द्रगुप्त के बाद कुमारगुप्त राजा बना। कुमारगुप्त को नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय जाता है | गुप्त शासकों में सर्वाधिक अभिलेख कुमारगुप्त के मिले हैं। इसके सिक्कों पर मोर की आकृति मिलती है। उसने अश्वमेध यज्ञ किया था। वत्सभट्टी कुमारगुप्त प्रथम का दरबारी कवि था जिसने प्रसिद्ध मन्दसौर प्रशस्ति की रचना की थी। कुमारगुप्त प्रथम के अब तक कुल 18 अभिलेख प्राप्त हुए हैं। इतने अधिक अभिलेख किसी भी अन्य गुप्त शासक के नहीं मिलते। प्रमुख लेखों का विवरण इस प्रकार है।
बिलसड़ अभिलेख , एटा ,उत्तर प्रदेश : यह कुमारगुप्त के शासन काल का प्रथम अभिलेख है जिस पर गुप्त संवत् 96 (415 ईस्वी) की तिथि अंकित है | इसमें कुमारगुप्त प्रथम तक के गुप्त शासकों की वंशावली प्राप्त होती है |
मथुरा का लेख, उत्तर प्रदेश : मथुरा से प्राप्त यह अभिलेख एक मूर्ति के अधोभाग में उत्कीर्ण हैं जिस पर गुप्त संवत् 135 (450 ईस्वी) की तिथि अंकित है |
साँची अभिलेख, मध्य प्रदेश का रायसेन जिला : यह अभिलेख भी गुप्त सम्वत 131 अर्थात 450 ई. के आस पास का है |
उदयगिरी का गुहलेख : गुप्त सम्वत 106 (425 ई.) का यह लेख जैन धर्म से सम्बन्धित है |
तुमैन अभिलेख,ग्वालियर मध्य प्रदेश : यह अभिलेख गुप्त सम्वत 116 अर्थात 435 ई. के आस पास का है |
गढ़वा के शिलालेख,इलाहाबाद ,उत्तर प्रदेश : इस स्थान से कुमारगुप्त के 2 शिलालेख प्राप्त हुए हैं जिनपर गुप्त सम्वत 98 (417 ई .) की तिथि अंकित है |
मंदसौर अभिलेख ,मध्य प्रदेश : यह न केवल कुमारगुप्त बल्कि समस्त गुप्त कालीन इतिहास पर प्रकाश डालने वाला एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्रोत है | इसकी रचना संस्कृत के प्रकांड विद्वान वत्स भट्टी ने विक्रम सम्वत 529 (473 ई.) में की | यह एक प्रशस्ति के रूप में है |
करम दंडा अभिलेख ,फैजाबाद ,उत्तर प्रदेश : गुप्त सम्वत 117 (436 ई.) के इस अभिलेख की रचना कुमारगुप्त के मंत्री पृथ्वी सेन ने कराई थी |
मनकुंवर अभिलेख ,इलाहाबाद ,उत्तर प्रदेश : गुप्त सम्वत 129 (448 ई.) का यह लेख बौद्ध धर्म से सम्बन्धित है |
दामोदर पुर ताम्रपात्र लेख ,दिनाजपुर ,बांग्लादेश : यह अभिलेख 2 कारणों ऐतिहासिक महत्त्व का है | पहला इससे गुप्त साम्राज्य के विस्तार का ज्ञान होता है | एवं दूसरा इसमें गुप्तकालीन प्रशासनिक व्यवस्था के विभाजन के बारे में बताया गया है की किस प्रकार साम्राज्य भुक्त (प्रान्तों)-विषय (जिलों) एवं वीथी (ग्राम-समूहों) में विभक्त था |
स्कन्दगुप्त (455-467 ई.) : स्कन्दगुप्त के शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी इसके समय में हूणों का आक्रमण | हालाँकि स्कन्दगुप्त इसे रोकने में सफल रहा । मलेच्छों पर स्कन्दगुप्त की विजय का वर्णन जूनागढ़ के अभिलेख में है। सारनाथ की बुद्ध मूर्ति लेख भी स्कन्दगुप्त से सम्बन्धित है। स्कन्दगुप्त न केवल एक सफल राजा बल्कि एक अच्छा प्रशासक भी था | चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा गिरनार पर्वत पर निर्मित सुदर्शन झील का भी उसने पुनरुद्धार कराया | स्कन्दगुप्त के बाद के गुप्त शासकों का कालक्रम इस प्रकार है – पुरुगुप्त – कुमारगुप्त द्वितीय- बुद्धगुप्त- नरसिंहगुप्त -बालादित्य- भानुगुप्त -वैन्यगुप्त – कुमारगुप्त तृतीय एवं विष्णुगुप्त । भानुगुप्त का विवरण एरण (सागर जिला, मध्य प्रदेश) अभिलेख से प्राप्त होता है | उसके समय में सती प्रथा का प्रथम पुरातात्विक साक्ष्य मिलता है, जो 510 ई. का एरण अभिलेख है।
स्कन्दगुप्त के अभिलेख : स्कन्दगुप्त के शासनकाल के अनेक अभिलेख हमें प्राप्त होते हैं, जिनसे शासनकाल की महत्त्वपूर्ण घटनाओं की सूचना मिलती है। इनका विवरण इस प्रकार है:-
जूनागढ़ अभिलेख : यह स्कन्दगुप्त का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लेख है जो सुराष्ट्र (गुजरात) के जूनागढ़ से प्राप्त हुआ है। इसमें उसके शासन-काल की प्रथम तिथि गुप्त संवत् 136 (455 ईस्वी) उत्कीर्ण मिलती है। इस अभिलेख से पता चलता है कि स्कन्दगुप्त ने हूणों को परास्त कर सौराष्ट्र प्रान्त में पर्णदत्त को अपना राज्यपाल (गोप्ता) नियुक्त किया था।
भितरी स्तम्भलेख : उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में भितरी नामक स्थान से यह लेख मिलता है। इसमें पुष्यमित्र और हुणों के साथ स्कन्दगुप्त के युद्ध का वर्णन मिलता है।
कहौम स्तम्भलेख : उत्तर प्रदेश के ही गोरखपुर जिले में स्थित कहौम नामक स्थान से यह लेख प्राप्त हुआ है। इसमें गुप्त संवत् 141-460 ईस्वी की तिथि अंकित है। इस अभिलेख से जैन तीर्थंकरों की जानकारी मिलती है ।
इन्दौर स्तम्भलेख : मध्य प्रदेश के इंदौर से प्राप्त इस में गुप्त संवत् 146 (465 ईस्वी) की तिथि अंकित है। इस लेख से गुप्तकालीन धार्मिक जीवन की जानकारी मिलती है।
सुपिया का लेख : मध्य प्रदेश में रीवा जिले में स्थित सुपिया नामक स्थान से यह लेख प्राप्त हुआ है जिसमें गुप्त संवत् 141 अर्थात् 460 ईस्वी की तिथि है अंकित है। इसमें घटोत्कच के समय से गुप्तों की वंशावली मिलती है | इस अभिलेख में गुप्तवंश को ‘घटोत्कचवंश’ कहा गया है।
गढ़वा शिलालेख : उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में गढ़वा नामक स्थान से स्कन्दगुप्त के शासनकाल का अन्तिम शिलालेख मिला है, जिसमें गुप्त संवत् 148 (467 ईस्वी) की तिथि अंकित है। इससे अनुमान लगाया जाता है कि 467 ईस्वी तक उसका शासन समाप्त हो गया होगा ,क्योकि इसके बाद की तिथि के स्कंदगुप्त के कोई भी लेख प्राप्त नहीं हुए हैं ।
गुप्त काल के कुछ प्रमुख अभिलेख
गुप्त काल के कुछ प्रमुख अभिलेख | |
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शासक | प्राप्त अभिलेख |
1.समुद्रगुप्त | एरण प्रशस्ति प्रयाग प्रशस्ति नालंदा प्रशस्ति तथा गया का ताम्र लेख |
2.चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य | उदयगिरि का प्रथम एवं द्वितीय गुफा लेख गढ़वा का शिलालेख सांची का शिलालेख महरौली प्रशस्ति |
3.कुमारगुप्त प्रथम | गढ़वा का शिलालेख विलसाड़ स्तंभ लेख मथुरा का जैन मूर्ति लेख मंदसौर शिलालेख दामोदर ताम्र लेख |
4.स्कंद गुप्त | जूनागढ़ प्रशस्ति सुप्रिया स्तंभ लेख इंदौर ताम्र लेख सारनाथ का बुद्ध मूर्ति लेख |
5.पूरु गुप्त | बिहार स्तंभ लेख पहाड़पुर ताम्र लेख एवं राजघाट स्तंभ लेख |
6.बुध गुप्त | सारनाथ बुद्ध मूर्ति लेख दामोदर ताम्र लेख एरण स्तंभ लेख चंद्रपुर धाम लेख |
7.भानु गुप्त | एरण स्तंभ |
8.विष्णु गुप्त | दामोदरपुर का ताम्र लेख |
9.वैन्य गुप्त | टोपरा ताम्र लेख |
गुप्तकालीन राज्य शासन व्यवस्था
गुप्त युग से प्रशासन में विकेंद्रीकरण की प्रवृत्ति देखने को मिलती है | केन्द्रीय प्रशासन की जो सुदृढ़ता मौर्य युग में देखने को मिलती है, वह गुप्तकाल में नहीं मिलती । समुद्रगुप्त ने जिन राजाओं को पराजित किया उनमें से अधिकांश को उसने अपने साम्राज्य का अंग नहीं बनाया बल्कि उन्हें कर ले कर अपना शासन पूर्ववत चलाने की अनुमति दे दी | गुप्त शासकों ने महाराजाधिराज, परमभट्टारक, परमेश्वर आदि बड़ी बड़ी उपाधियाँ धारण कीं। इससे पता चलता है कि उनके अन्तर्गत छोटे-छोटे अधीनस्थ शासक रहे थे । गुप्त शासकों ने राजत्व के दैवीकरण का भी प्रयास किया। अर्थात उन्होंने जनता में यह विश्वास जगाने का प्रयास किया कि राजा धरती पर ईश्वर के प्रतिनिधि हैं | सम्भवतः ऐसा क्षेत्रीय शासकों के विद्रोहों के अलोक में किया गया होगा | चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपनी तुलना इन्द्र, वरुण, यम और कुबेर से की है।
गुप्तकाल में प्रशासनिक पदों को भी वंशानुगत किया जाने लगा था। इसके साथ ही साथ एक अन्य प्रवृत्ति उभरी, वह थी एक ही व्यक्ति को कई-कई पद सौंप दिए जाने की प्रथा । उदाहरण के लिए , प्रयाग प्रशस्ति का लेखक हरिषेण एक ही साथ कुमारामात्य, सन्धिविग्रहिक एवं महादण्डनायक के पद को ग्रहण करता था। इतिहासकार पी.एल.गुप्ता ने अमात्य शब्द का अर्थ आधुनिक काल की नौकरशाही से लगाया है | साम्राज्य का विभाजन भुक्तियों (प्रान्तों) में हुआ था। इस पर उपरिक या उपरिक महाराज नामक अधिकारी नियुक्त किया जाता था। सीमान्त प्रदेशों के प्रशासक को गोप्ता कहा जाता था। भुक्तियों (प्रान्तों) का विभाजन अनेक जिलों में किया जाता था जिन्हें विषय कहा जाता था। विषय का सर्वोच्च अधिकारी विषयपति या कुमारामात्य होता था। विषयपति का कार्यालय अधिष्ठान कहलाता था। विषयपति को सहायता एवं सलाह देने के लिए एक परिषद् भी होती थी। इस परिषद् के प्रमुख को नगरपति कहा जाता था। इनके सदस्य नगर श्रेष्ठी, सार्थवाह, प्रथम कुलिक व प्रथम कायस्थ होते थे। इनकी नियुक्ति 5 वर्ष के लिए की जाती थी | गुप्तकाल में नगरपालिकाओं के अस्तित्व के भी प्रमाण हैं । प्रत्येक विषय के अन्तर्गत कई ग्राम होते थे। ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी | इसका सर्वोच्च अधिकारी ग्रामिक, ग्रामपति या “महत्तर” होता था जो आज के मुखिया के सामान होता था । ग्राम सभा के अस्तित्व का साक्ष्य भी मिलता है। पेठ ग्रामों के समूह को कहते थे | गुप्तकाल में न्याय व्यवस्था का भी समुचित ढांचा था। सम्राट सर्वोच्च न्यायाधिपति था। इस काल में पहली बार दीवानी और फौजदारी (व्यवहार विधि और दण्ड विधि) कानून भली-भाँति परिभाषित एवं पृथक किये गये । चीनी यात्री फाह्यान के अनुसार, गुप्तकाल में दण्ड विधान अधिक कठोर नहीं था क्योंकि गुप्तकाल में मृत्युदण्ड का प्रावधान नहीं था। दण्ड के रूप में आर्थिक जुर्माना ही अधिक प्रचलित था।
गुप्त काल के प्रमुख अधिकारी
गुप्त काल के प्रमुख अधिकारी | |
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1. कुमार अमात्य | सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी |
2.महा दंड नायक | न्यायाधीश |
3.महा – संधि विग्रहिक | युद्ध एवं शांति (संधि) का अधिकारी |
4.महा-बलाअधिकृत | सेनापति |
5.महा-अक्ष पटलीक | लेखा (accounts) विभाग का सर्वोच्च अधिकारी |
6.प्रतिहार | राज महल के अंदरूनी क्षेत्र का रक्षक |
7.महा प्रतिहार | सम्पूर्ण राज महल का रक्षक |
8.भाट | पुलिस अधिकारी |
9.पुस्त पाल | रजकीय दस्तावेजों का रक्षक |
10.सार्थवाह | व्यापारियों के निगम या समिति का मुखिया |
11.प्रथम कुलिक | प्रधान शिल्पी एवं शिल्प संघ का मुखिया |
12.प्रथम कायस्थ | प्रधान लिपिक (क्लर्क) |
13.भंडागाराधीकृत | राजकोष अधिकारी |
14.दंड पाशिक | पुलिस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी |
15.विनय स्थिति स्थापक | धर्म सम्बन्धी मामलों का प्रधान ,शिक्षा अधिकारी एवं लोगों के नैतिक आचरण पर दृष्टि रखने वाला अधिकरी |
16.महा पिल्पति | गज सेना का प्रधान |
17.रण भंडागरिक | सेना में रसद सामग्री की व्यवस्था करने वाला अधिकारी |
18.चाट | साधारण सैनिक |
19.भट-अश्वपति | घुड़सवार सेना का प्रधान अधिकारी |
20.नगर श्रेष्ठी | नगर का प्रधान सेठ |
गणित एवं खगोल विज्ञान
गुप्तकाल में भारत विज्ञान एवं खगोल शास्त्र के क्षेत्र में नई ऊँचाइयों तक पहुंचा | आर्यभट्ट, वराहमिहिर तथा ब्रह्मगुप्त इस युग के प्रमुख वैज्ञानिक थे, जिन्होंने अपने ग्रन्थों में विज्ञान के नए नए सिद्धांत की विवेचना की। आर्यभट्ट का प्रसिद्ध ग्रन्थ आर्यभट्टीयम् है। इसमें इन्होंने बताया कि पृथ्वी गोल है और अपनी धुरी पर घूमती है, जिसके कारण सूर्य व चन्द्र ग्रहण लगता है। आर्यभट्ट विश्व के पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने यह स्थापित किया कि पृथ्वी गोल है । आर्यभट्ट ने दशमलव प्रणाली की भी विवेचना की । आर्यभट्ट का शून्य तथा दशमलव सिद्धान्त संसार को एक नई देन थी। संसार के गणितज्ञों में आर्यभट्ट का महत्त्वपूर्ण स्थान है। दूसरे प्रसिद्ध गुप्तकालीन गणितज्ञ एवं ज्योतिषी वराहमिहिर है। इन्होंने यूनानी एवं भारतीय ज्योतिष का समन्वय करके रोमन तथा पोलिश के नाम से नए सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया । उनके 6 ग्रन्थ पंचसिद्धान्तिका, विवाहपटल, योगमाया, बृहत्संहिता, वृहज्जातक (इस ग्रन्थ को विज्ञान एवं कला का विश्वकोश माना जाता है) और लघुजातक हैं। वराहमिहिर ने ज्योतिषशास्त्र को तीन शाखाओं में विभाजित किया- तंत्र (गणित एवं ज्योतिष),होरा (जन्मपत्र) एवं संहिता (फलित ज्योतिष)। ब्रह्मगुप्त भी गुप्तकालीन गणितज्ञ थे, जिन्हें गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त का जनक माना गया है। इन्होंने ब्रह्मस्फुट, खण्डरवाद्यक एवं ध्यानग्रह सिद्धान्त नामक 3 प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की | अरबी भाषा में इन ग्रन्थों के अनुवाद के माध्यम से भारतीय खगोलशास्त्र अरबों तक पहुँचा। ब्रह्मगुप्त ने ही यह सर्वप्रथम व्याख्या की है कि पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के कारण प्रतिदिन सूर्योदय एवं सूर्यास्त होते हैं।
गुप्तकालीन कला
कला ही वह क्षेत्र है जिसमे वास्तव में गुप्तकाल को स्वर्णिम युग कहा जा सकता है | यदि स्थापत्य कला की बात की जाये तो मन्दिर निर्माण कला का प्रारम्भ गुप्त काल से हुआ। प्रारम्भ में अधिकांश मन्दिर सपाट होते थे | हालाँकि धीरे धीरे शिखरों का प्रचलन शुरू हुआ । देवगढ़, झाँसी का दशावतार मन्दिर भारतीय मन्दिर निर्माण कला के इतिहास में शिखर का पहला उदाहरण है। मन्दिर एक बड़े चबूतरे पर बनाया जाता था। इसके चारों ओर सीढ़ियाँ होती थीं। मन्दिर का बाहरी भाग और स्तम्भ अलंकृत होता था, जबकि भीतरी भाग सादा होता था। देवगढ़ का दशावतार मन्दिर गुप्तकालीन मन्दिर कला का सर्वोत्तम उदाहरण है। इसके शिखर 40 फुट ऊँचे हैं।
गुप्तकाल के प्रमुख मन्दिर | |
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मन्दिर | स्थान |
1.भूमरा का शिव मन्दिर | सतना (मध्य प्रदेश) |
2.तिगवा का विष्णु मन्दिर | जबलपुर (मध्य प्रदेश) |
3.नचना-कुठार का पार्वती मन्दिर | पन्ना जिले का अजयगढ़ रियासत (मध्य प्रदेश) |
4.देवगढ़ का दशावतार मन्दिर | ललितपुर (उत्तर प्रदेश) |
5.खोह का मन्दिर | नागोद (मध्य प्रदेश) |
6.लड़खान का मन्दिर | एहोल के समीप (कर्नाटक) |
7.सिरपुर का लक्ष्मण मन्दिर | रायपुर के निकट सिरपुर या श्रीपुर (छत्तीसगढ़) |
8.भीतरगाँव का मन्दिर | कानपुर (उत्तर प्रदेश) |
मूर्तिकला के क्षेत्र में भी गुप्तकाल का विशेष स्थान है | मथुरा, सारनाथ और पाटलिपुत्र गुप्त काल में मूर्ति कला के प्रमुख केंद्र थे | मूर्तिकला की 2 मुख्य शैलियों का उद्भव प्राचीन भारत में हुआ | एक मथुरा शैली एवं दूसरी गांधार शैली | गुप्त काल की मूर्तियों में कुषाण कालीन नग्नता और कामुकता का पूर्णत: लोप हो गया और शारीरिक आकर्षण को छिपाने के लिए मूर्तियों में वस्तुओं का प्रयोग आरंभ हुआ | बिहार के सुल्तानगंज से तांबे की 7.5 फीट ऊंची गुप्तकालीन एक मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है |
चिकित्सा एवं धातुकर्म : भारतीय चिकित्सा पद्धति -आयुर्वेद का जन्म भी वैदिक काल में ही हुआ । वेदों में, विशेष रूप से · अथर्ववेद में सात सौ से अधिक ऐसे श्लोक हैं, जो आयुर्वेद से संबंधित विषयों के हैं। इस विषय के महान लेखक का नाम वाग्भट्ट था। आयुर्वेद में उसका स्थान चरक और सुश्रुत से कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस काल की दो प्रसिद्ध चिकित्सा-कृतियां “अष्टांगसंग्रह” और “अष्टांगहृदयसंहिता” हैं , जो एक ही नाम वाग्भट्ट के दो अलग अलग लेखकों द्वारा लिखी गई हैं। इस काल में पशु-रोगों पर भी पुस्तकें लिखी गई थीं। इनमें सबसे प्रसिद्ध पुस्तक है “हस्त्यायुर्वेद” जो की मुख्यतः हाथियों को होने वाले रोगों के उपचार के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान करती है। अश्वशास्त्र नाम की एक अन्य पुस्तक घोड़ों पर भी लिखी गई थी । इसके लेखक शालिहोत्र थे |
गुप्तकाल में चिकित्सा विज्ञान के साथ रसायन-धातुकर्म विज्ञान का भी अभूतपूर्व विकास हुआ था। बौद्ध धर्म के विद्वान नागार्जुन को एक महान रसायन वैज्ञानिक के रूप में भी याद किया जाता है । महरौली में स्थित लौहस्तंभ भारतीयों द्वारा आज से 1500 वर्ष पहले धातुकर्म विज्ञान के क्षेत्र में की गई प्रगति का सर्वोत्तम उदाहारण है। यह स्तम्भ 7.32 मीटर ऊँचा है और इसका व्यास इसके आधार स्तर पर 40 सेंटीमीटर और इसके शीर्ष पर 30 सेंटीमीटर है | इसका वजन लगभग 6 टन है। वर्षा, धूप आदि के बावजूद यह स्तम्भ आज तक जंगरोधी है ।
क्या गुप्त युग वास्तव में स्वर्णिम युग (Golden Age) था ?
गुप्त काल को भारत का स्वर्णिम युग कहा जाता है | इस काल में कला ,प्रशासन,विज्ञान एवं मुद्रा व्यवस्था इत्यादि की स्थिति को देखकर तो यही लगता है कि यह सचमुच भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम युग था | लेकिन ऐसे किसी आकलन के समय हमें समाज के सिर्फ संपन्न वर्ग को ही ध्यान में न रखकर आम जनता की दृष्टि से भी देखना चाहिए | और इतिहासकारों की आम राय यह है कि आम जनता के हिसाब से इसे स्वर्णिम युग कहना अतिशयोक्ति होगी | इस युग में सामंतवाद का प्रभाव और मजबूत हुआ, जाति प्रथा की जकड़ और तीव्र हुई, सती प्रथा जैसी कुप्रथा के उदाहरण मिलने शुरू हुए और मध्यकालीन भारत में दृष्टिगोचर होने वाली अधिकांश राजनीतिक सामाजिक दुर्बलता इसी युग में पनपनी शुरू हुई |
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