भारत सरकार ने 1991 में नए आर्थिक सुधारों की घोषणा की थी जिसे नई आर्थिक नीति (न्यू इकोनामिक पॉलिसी) या आमतौर पर LPG सुधार के नाम से जाना जाता है | यहां “L” का तात्पर्य लिबरलाइजेशन (उदारीकरण); “P” का अर्थ प्राइवेटाइजेशन (निजीकरण) और “G” का अर्थ ग्लोबलाइजेशन (वैश्वीकरण या भूमंडलीकरण) से है | इस दिन से भारत में एक नए आर्थिक युग की शुरुआत हुई जिसका मुख्य लक्ष्य आर्थिक समृद्धि को प्राप्त करना एवं देश की अर्थव्यवस्था में बुनियादी सुधार करना था | इन व्यापक सुधारों को 3 माध्यमों से लागू किया गया : उदारीकरण , निजीकरण एवं वैश्वीकरण | ये सुधार 4 चरणों में लागू किये गये और कमोबेश आज तक जारी हैं | यह सुधार अकारण नहीं हुए, इनके पीछे एक पृष्ठभूमि या समय की एक मांग थी जिस पर हम एक दृष्टि डालते हैं | इस लेख में आर्थिक सुधारों के विभिन्न पहलुओं की विस्तृत चर्चा की गई है | अंग्रेजी माध्यम में इस लेख को पढने के लिए देखें LPG Reforms in India
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1991 के आर्थिक सुधारों की पृष्ठभूमि
1980 के दशक में अर्थव्यवस्था में अकुशल प्रबंधन तथा राजनैतिक उथल-पुथल के कारण 1990 के दशक में देश में आर्थिक संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई । सरकार का व्यय उसके राजस्व से इतना अधिक हो गया कि ऋण के द्वारा व्यय धारण क्षमता से कहीं अधिक हो गया । देश में मुद्रास्फीति चरम पर पहुँच गई । आयात की तीव्र वृद्धि और निर्यात में शिथिलता के कारण व्यापार घाटा अत्यधिक हो गया और सरकार भुगतान संतुलन (Balance of Payment) की समस्या से जूझ रही थी । विदेशी मुद्रा के सुरक्षित भंडार इतने कम हो गए थे कि वे देश की दो सप्ताह की आयात आवश्यकताओं को भी पूरा कर पाने में समर्थ नही थे। अंतर्राष्ट्रीय ऋण की ब्याज चुकाने के लिए भारत सरकार के पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं बची थी और सरकार को सोना गिरवी रखना पड़ा । यह ऐसा समय था जब कोई देश या अतंर्राष्ट्रीय निवेशक भी भारत में निवेश नहीं करना चाहता था। ऐसी संकट की स्थिति में भी सरकार को विकास नीतियों की आवश्यकता थी क्योंकि राजस्व कम होने पर भी बेरोजगारी, गरीबी और जनसंख्या विस्फोट के कारण सरकार को अपने राजस्व से अधिक खर्च करना पड़ा। इस प्रकार देश की अर्थव्यवस्था दोहरे संकट में थी क्योंकि सरकार को प्रतिरक्षा और सामाजिक क्षेत्रों पर अपने संसाधनों का एक बड़ा अंश खर्च करना पड़ रहा था और यह स्पष्ट था कि उन क्षेत्रों से किसी शीघ्र प्रतिफल की संभावना नहीं थी। इन सब के अलावे खाड़ी युद्ध के कारण कच्चे तेल की कीमतें बहुत ज्यादा बढ़ गई थीं | ऐसी स्थिति में सरकार ने ‘विश्व बैंक’ (I.B.R.D) और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (I.M.F) जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से मदद मांगी । इन संस्थाओं ने भारत को 7 बिलियन डॉलर का ऋण दिया , किंतु उस ऋण को पाने के लिए इन संस्थाओं ने भारत सरकार पर कुछ शर्तें लगाईं; जैसे:
- भारत सरकार उदारीकरण की नीति अपनाएगी ,अर्थात उद्योगों को विभिन्न प्रकार की रियायतें दी जाएंगी ,
- निजी क्षेत्र पर लगे प्रतिबंधों को हटाया जाएगा तथा अनेक क्षेत्रों में सरकारी हस्तक्षेप कम किया जाएगा,
- भारत सरकार अपनी मुद्रा का 22% अवमूल्यन करेगी जिससे निर्यात को बढ़ावा मिले ,
- आयात शुल्क को 130% से घटा कर 30% किया जाएगा (इस लक्ष्य को भारत ने 2000-01 में प्राप्त किया और वर्तमान में यह स्वैच्छिक रूप से 15% निर्धारित किया गया है),
- उत्पाद शुल्क में 20% की बढ़ोतरी की जाएगी ,
- सभी सरकारी खर्चों में 10% की कमी की जाएगी,
- साथ ही यह भी अपेक्षा की गई कि भारत और अन्य देशों के बीच विदेशी व्यापार पर लगे प्रतिबंध भी हटाए जायेंगे और देश वैश्वीकरण की दिशा में अग्रसर होगा |
भारत ने विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की ये शर्तें मान लीं और 23 जुलाई 1991 को नई आर्थिक नीति-1991 की घोषणा की गई । तब देश के प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिम्हा राव तथा वित्त मंत्री मनमोहन सिंह थे | इस नई आर्थिक नीति में व्यापक आर्थिक सुधारों को सम्मिलित किया गया। जिसे 2 उपसमूहों में विभाजित किया जा सकता है: स्थायित्वकारी सुधार तथा संरचनात्मक सुधार के उपाय। स्थायित्वकारी सुधार अल्पकालिक होते हैं, जिनका उद्देश्य भुगतान संतुलन में आ गई कुछ त्रुटियों को दूर करना और मुद्रास्फीति का नियंत्रण करना था। सरल शब्दों में, इसका अर्थ पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार बनाए रखने और बढ़ती हुई कीमतों पर अंकुश रखने की आवश्यकता थी। जबकि , संरचनात्मक सुधार वे दीर्घकालिक उपाय हैं जिनका उद्देश्य अर्थव्यवस्था की सर्वांगीन कुशलता है |
1.उदारीकरण (Liberalisation)
उदारीकरण का अर्थ है बाज़ार को मुक्त करना अथवा उसपर से अनावश्यक सरकारी नियन्त्रण को कम करना | एक समय ऐसा आया जब आर्थिक गतिविधियों के नियमन के लिए बनाए गए नियम-कानून ही देश की वृद्धि और विकास के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा बन गए। इस दौर को कोटा-परमिट राज के नाम से जाना जाता था जहाँ किसी भी प्रकार की व्यावसायिक गतिविधि के लिए औद्योगिक अनुज्ञप्ति (लाइसेंस) की मांग की जाती थी | यह एक जटिल ,लम्बी और उद्योग -विरुद्ध व्यवस्था थी जो केवल लाल -फीताशाही को बढ़ावा देती थी | उदारीकरण इन्हीं जटिलताओं व प्रतिबंधों को दूर कर अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को ‘मुक्त’ करने की नीति थी। वैसे तो औद्योगिक लाइसेंस प्रणाली, आयात-निर्यात नीति, राजकोषीय और विदेशी निवेश नीतियों में उदारीकरण 1980 के दशक में ही आरंभ हो गए थे किंतु, 1991 की सुधारवादी नीतियाँ कहीं अधिक व्यापक थीं। उदारीकरण नीति के कुछ प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित है:
- घरेलू उद्योगों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ाना तथा इस माध्यम से आर्थिक विकास को सुनिश्चित करना ;
- नियमित आयात और निर्यात के साथ अन्य देशों के साथ विदेशी व्यापार को प्रोत्साहित करना;
- विदेशी पूंजी और प्रौद्योगिकी को बढ़ाना;
- देश के वैश्विक बाजार सीमाओं का विस्तार करना और देश के कर्ज के बोझ को कम करने का प्रयास करना इत्यादि |
उदारीकरण नीति के तहत कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में किए गए सुधार हैं- औद्योगिक क्षेत्रक, वित्तीय क्षेत्रक, कर-सुधार, विदेशी विनिमय बाज़ार, व्यापार तथा निवेश क्षेत्र |
औद्योगिक क्षेत्र का विनियमीकरण
1991 के सुधारों से पहले देश में कोटा-परमिट राज व्यवस्था थी, जिसमें फर्म स्थापित करने, बंद करने या उत्पादन की मात्रा का निर्धारण करने के लिए किसी न किसी सरकारी अधिकारी की अनुमति प्राप्त करनी होती थी | अनेक उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित रखा गया था और उनमें निजी उद्यमियों का प्रवेश ही निषिद्ध था | कुछ वस्तुओं का उत्पादन केवल लघु उद्योग ही कर सकते थे और सभी निजी उद्यमियों को कुछ औद्योगिक उत्पादों की कीमतों के निर्धारण तथा वितरण के बारे में भी अनेक नियंत्रणों का पालन करना पड़ता था। 1991 के बाद से आरंभ हुई सुधार नीतियों ने इनमें से अनेक प्रतिबंधों को समाप्त कर दिया। निम्नलिखित 6 उत्पाद श्रेणियों को छोड़ अन्य सभी उद्योगों के लिए लाइसेंसिंग व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया:-
- एल्कोहल,
- सिगरेट,
- जोखिम भरे रसायनो व औद्योगिक विस्फोटक,
- इलेक्ट्रोनिकी,
- विमानन तथा
- दवाइयां |
अब सार्वजनिक क्षेत्रक के लिए सुरक्षित उद्योगों में भी केवल कुछ मुख्य गतिविधियाँ,जैसे परमाणु ऊर्जा उत्पादन,रक्षा क्षेत्र और रेल परिवहन इत्यादि ही बचे हैं। लघु उद्योगों द्वारा उत्पादित अधिकांश वस्तुएँ भी अब अनारक्षित श्रेणी में आ गई हैं। अनेक उद्योगों में अब कीमत निर्धारण का कार्य बाज़ार स्वयं करता है जो कि उदारीकरण का लक्ष्य है।
वित्तीय क्षेत्र के सुधार
वित्त के क्षेत्र में व्यावसायिक और निवेश बैंक, स्टॉक एक्सचेंज तथा विदेशी मुद्रा बाज़ार जैसी वित्तीय संस्थाएँ सम्मिलित हैं। भारत में वित्तीय क्षेत्र के नियमन का दायित्व भारतीय रिजर्व बैंक(RBI) का है। वित्तीय क्षेत्र की सुधार नीतियों का एक प्रमुख उद्देश्य यह भी है कि रिजर्व बैंक को इस क्षेत्र का केवल नियंत्रक न बना कर उसे इस क्षेत्र का एक सहायक बनाया जाए । इसका अर्थ है कि वित्तीय क्षेत्रक रिजर्व बैंक से सलाह किए बिना ही कई मामलों में अपने निर्णय लेने में स्वतंत्र हो जाए ।
वित्तीय क्षेत्र की सुधार नीतियों के तहत बैंकों की पूँजी में विदेशी भागीदारी की सीमा 74 प्रतिशत कर दी गई। कुछ निश्चित शर्तों को पूरा करनेवाले बैंक अब रिज़र्व बैंक की अनुमति के बिना ही नई शाखाएँ खोल सकते हैं तथा पुरानी शाखाओं के जाल को अधिक युक्तिसंगत बना सकते हैं। यद्यपि बैंकों को अब देश-विदेश से और अधिक संसाधन जुटाने की भी अनुमति है पर खाता धारकों और देश के हितों की रक्षा के उद्देश्य से कुछ नियंत्रक शक्ति अभी भी रिजर्व बैंक के पास ही हैं। विदेशी निवेश संस्थाओं (F.I.I) तथा व्यापारी बैंक, म्युचुअल फंड और पेंशन कोष आदि को भी अब भारतीय वित्तीय बाजारों में निवेश की अनुमति मिल गई है। इस प्रकार वित्तीय समावेशन(financial inclusion) को भी बढ़ावा मिला है |
कर व्यवस्था में सुधार: इन सुधारों का संबंध राजकोषीय नीतियों से है जिसके अंतर्गत सरकार की कराधान पद्धति (taxation) और सार्वजनिक व्यय नीतियां आती है । इस नीति के तहत 1991 के बाद से व्यक्तिगत आय पर लगाए गए करों की दरों में निरंतर कमी की गई है ताकि दरों को कम कर कर -चोरी से होने वाले नुकसान से बचा जा सके । यह तर्क दिया जाता है कि करों की दरें अधिक ऊँची नहीं हों, तो बचतों को बढ़ावा मिलता है और लोग अपेक्षाकृत अधिक ईमानदारी से अपनी आय का विवरण देते हैं। निगम कर की दर में भी कमी की गई ताकि कंपनियों के लिए सकारात्मक वातावरण तैयार किया जा सके ।
विदेशी विनिमय सुधार: विदेशी विनिमय क्षेत्र में सुधार के तहत 1991 में भुगतान संतुलन की समस्या के तत्कालिक निदान के लिए अन्य देशों की और मुद्रा की तुलना में रुपये का अवमूल्यन किया गया। इससे निर्यात को बढ़ावा मिला और देश में विदेशी मुद्रा के भंडार में वृद्धि हुई। इसके कारण व्यापार संतुलन साम्य भी स्थापित हुआ |
2.निजीकरण (Privatisation)
इसका तात्पर्य है, किसी सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम के स्वामित्व या प्रबंधन में निजी क्षेत्र को भागीदारी प्रदान करना । निजीकरण के निम्न तरीके होते हैं :
विनिवेश (Disinvestment) : निजीकरण की सर्व विदित पद्धति आम जनता को सार्वजानिक उपक्रम की इक्विटी बेचना है। इसे ही विनिवेश कहते हैं तथा यह पूर्ण या आंशिक हो सकता है। अर्थात् सरकार एक उपक्रम में अपना संपूर्ण हिस्सा या इसका कुछ प्रतिशत बेच सकती है। यह भी दो माध्यम से किया जा सकता है:1.सीधी बिक्री, और 2.इक्विटी की पेशकश । किंतु इसमें चुनौती यह है कि कई बार विदेशी निवेशक बिक्री के लिए पेशकश किए गए उपक्रमों के बारे में पूरी जानकारी नहीं मिलने के कारण इस प्रक्रिया में हिस्सा नहीं ले पाते हैं । इसके अलावा यह प्रक्रिया खर्चीली और लम्बी हो सकती है क्योंकि इसमें प्रत्येक सरकारी परिसम्पत्ति को अलग-अलग बेचने के लिए तैयारी करनी पड़ती है तथा यह भी सुनिश्चित करना पड़ता है कि सभी नियमों का पालन किया गया हो ।
प्रत्यावस्थापन (रेस्टिट्यूशन): प्रत्यावस्थापन का अर्थ है सरकारी परिसंपत्तियों को उनके पूर्व निजी स्वामियों को
वापस सौंपना | यह तब किया जाता है यदि सरकार को मूल अधिग्रहण अनौचित्यपूर्ण प्रतीत होता है | यूरोपिय अर्थव्यवस्थाओं के संक्रमण में प्रत्यावस्थापन एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा रहा है।
प्रबन्धन कर्मचारियों को स्वामित्व का हस्तांतरण करना (Management Employee Buyouts ): इस पद्धति के अन्तर्गत एक उपक्रम के शेयरों को प्रबन्धकों और अन्य कर्मचारियों के समूह को बेच दिया जाता है । इस प्रक्रिया का कार्यान्वयन द्रुत एवं सरल है। दूसरा लाभ यह है कि कर्मचारी और प्रबन्धक जो उस उपक्रम के बारे में सबसे अच्छी तरह से जानते हैं वही इसके स्वामी बन जाते हैं। इससे सम्बन्धित उपक्रम के राजस्व में वृद्धि की संभावनाएं भी बढ़ जाती हैं |
सामूहिक निजीकरण (Mass Privatization) : सामूहिक निजीकरण में सरकार उपक्रमों को एक वाउचर प्रदान करती है | इन वाउचरों का उपयोग उपक्रमों के शेयरों को खरीदने में किया जा सकता है। इस पद्धति को चेक गणराज्य में काफी सफलता मिली। वाउचर निजीकरण से घरेलू पूँजी के अभाव की समस्या से निपटने में सहायता मिलती है और साथ ही साथ इसमें भ्रस्टाचार की गुंजाइश से भी बचा जा सकता है और उन आरोपों से भी बचा जा सकता है जिसमें यह कहा जाता है कि राष्ट्रीय परिसम्पत्तियाँ को औने-पौने दाम पर बेच दिया गया ।
यह अपेक्षा की गई थी कि निजी पूँजी और प्रबंधन क्षमताओं का उपयोग इन सार्वजनिक उद्यमों के निष्पादन को सुधारने में सहायक सिद्ध होगा। सरकार को यह भी आशा थी कि निजीकरण से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश(FDI) को भी बढ़ावा मिलेगा। सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों को प्रबंधकीय निर्णयों में स्वायत्तता प्रदान कर उनकी कार्यकुशलता को सुधारने का प्रयास किया है। उदाहरण के लिए, कुछ सार्वजनिक उपक्रमों को ‘महारत्न’, ‘नवरत्न’ और ‘लघुरत्न’ का विशेष दर्जा दिया गया है | निजीकरण के कुछ प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं :
- सरकारी उपक्रमों की वित्तीय स्थिति को सुधारना;
- लोक क्षेत्र की कंपनियों के कार्यभार को कम करना:
- उत्पादकता एवं आय में वृद्धि ;
- विनिवेश से धन बढ़ाना;
- सरकारी संगठनों की कुशलता में वृद्धि ;
- उपभोक्ता को बेहतर वस्तु और सेवाएं उपलब्ध कराना ;
- एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा उत्पन्न करना, तथा
- भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (Foreign Direct Investment) को प्रोत्साहित करना ।
3.वैश्वीकरण (Globalisation)
आमतौर पर वैश्वीकरण को किसी एक देश की अर्थव्यवस्था का विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण के रूप में देखा जाता है, किंतु वैश्वीकरण केवल एक आर्थिक घटना नहीं है | वैश्वीकरण सम्पूर्ण विश्व में व्यक्ति,वस्तुओं,सेवाओं ,मुद्रा ,तकनीक व यहाँ तक की संस्कृति का भी निर्बाध प्रवाह है । यह उन सभी नीतियों का परिणाम है, जिनका उद्देश्य है विश्व को परस्पर निर्भर और अधिक एकीकृत करना। इसके आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक व सांस्कृतिक पहलु होते हैं | साधारण शब्दों में यह समग्र विश्व को एक बनाने या सीमामुक्त विश्व की रचना करने का प्रयास है। यही कारण है की इसे “भू-मंडलीकरण” के नाम से भी जानते हैं | इसके निम्नलिखित आयाम हैं :
आउटसोर्सिंग : यह वैश्वीकरण की प्रक्रिया का एक विशिष्ट परिणाम है जिसकी चर्चा के बिना वैश्वीकरण की चर्चा अधूरी है । वस्तुतः प्रोद्योगिकी ही वह मुख्य कारक है जिसने वैश्वीकरण की प्रक्रिया को संभव बनाया है | आउटसोर्सिंग में कंपनियाँ किसी बाहरी संस्था (Sorce) से सेवाएँ प्राप्त करती हैं, जिन्हें पहले देश के भीतर ही प्रदान किया जाता था जैसे कि कानूनी सलाह, कंप्यूटर सेवा, विज्ञापन, सुरक्षा आदि, और इन सेवाओं को ज़रूरतमंद संस्था को बेचती हैं । संचार के माध्यमों में आई क्रांति व प्रौद्योगिकी के प्रसार ने अब इन सेवाओं को ही एक विशिष्ट आर्थिक गतिविधि का स्वरूप प्रदान कर दिया है। इसी कारण, विदेशों से इन सेवाओं को प्राप्त करने (जिसे बाह्य प्रापण कहा जाता है) की प्रवृत्ति बहुत सशक्त हो गई है। अनेक विकसित देशों की कंपनियाँ भारत की छोटी-छोटी संस्थाओं से ये सेवाएँ प्राप्त कर रही हैं। आधुनिक संचार साधनों के माध्यमों जैसे, इंटरनेट आदि इन सेवाओं से जुड़ी रचनाओं, ध्वनियों और दृश्यों की जानकारी को तुरंत दूसरे देशों तक प्रसारित कर दिया जाता है। अब तो अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ-साथ अनेक छोटी बड़ी कंपनियाँ भारत से ये सेवाएँ प्राप्त करने लगी हैं, क्योंकि भारत में इस तरह के कार्य बहुत कम लागत में और उचित रूप से निष्पादित हो जाते हैं। भारत की निम्न मजदूरी दरें तथा कुशल श्रम शक्ति की उपलब्धता ने सुधारोपरांत इसे विश्व स्तरीय आउटसोर्सिंग का एक गंतव्य बना दिया है।
विश्व व्यापार संगठन(WTO) की भूमिका : व्यापार और सीमा शुल्क महासंधि (GATT) की उत्तराधिकारी संस्था विश्व व्यापार संगठन (WTO) का गठन इस उद्देश्य से किया गया कि सभी देशों को विश्व व्यापार में समान अवसर सुलभ कराया जा सके | विश्व व्यापार संगठन का ध्येय ऐसी नियम आधारित व्यवस्था की स्थापना है, जिसमें कोई देश अपने व्यापारिक हितों को साधने के लिए मनमाने ढंग से व्यापार के मार्ग में बाधाएँ खड़ी नहीं कर पाए। ऐसा करने से केवल व्यापार विकसित देशों के पक्ष में चला जाता है और अविकसित देशों को नुकसान होता है | साथ ही, इसका ध्येय सेवाओं के सृजन और व्यापार को प्रोत्साहन देना भी है, ताकि विश्व के संसाधनों का अनुकूलतम प्रयोग हो सके । विश्व व्यापार संगठन की संधियों में द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार को बढ़ाने हेतु इसमें वस्तुओं के साथ-साथ सेवाओं के विनिमय को भी स्थान दिया गया है। ऐसा सभी सदस्य देशों के प्रशुल्क और अप्रशुल्क अवरोधकों को हटाकर तथा अपने बाज़ारों को सदस्य देशों के लिए खोलकर किया गया है। विश्व व्यापार संगठन के एक महत्वपूर्ण सदस्य के रूप में भारत विकासशील विश्व के हितों का संरक्षण करते हुए न्यायपूर्ण विश्वस्तरीय व्यापार व्यवस्था के नियमों तथा सुरक्षात्मक व्यवस्थाओं की रचना में सक्रिय भागीदार रहा है। भारत ने व्यापार के उदारीकरण की अपनी प्रतिबद्धता को बनाए रखा है। इसके लिए इसने आयात पर से अनेक परिमाणात्मक प्रतिबंध हटाए हैं और प्रशुल्क दरों को भी बहुत कम किया है।
कुछ जानकारों का मानना है कि विश्व व्यापार संगठन में भारत की सदस्यता का कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि विश्व व्यापार का अधिकांश भाग तो विकसित देशों के बीच ही होता है। उनका यह भी मानना है कि विकसित देश अपने देशों में जहाँ कृषि सहायिकी दिये जाने को लेकर शिकायत करते हैं, वहीं विकासशील देश अपने बाज़ारों को विकसित देशों के लिए खोले जाने को मजबूर करने को लेकर छला हुआ महसूस करते हैं (WTO के 3 अनुदान वर्गों जिन्हें Blue, Green व Amber box कहा जाता है, से जुड़े विवाद हमेशा चर्चा में रहते हैं )। वे देश विकासशील देशों को अपने बाज़ारों में किसी न किसी बहाने प्रवेश करने से रोकने का प्रयास भी करते हैं और उनकी कोशिश हेमशा यही रहती है की व्यापार को अपने पक्ष में रखा जाए | इस तर्क का आधार यह है कि वैश्वीकरण असमानता को जन्म देता है |
वैश्वीकरण से सम्बद्ध समस्याएँ
वैश्वीकरण को ले कर एक चिंता यह जाहिर की जाती है कि वैश्वीकरण के कारण राज्य(सरकार) की क्षमता में कमी आती है।वैश्वीकरण के कारण पूरी दुनिया में कल्याणकारी राज्य की धारणा अब पुरानी पड़ गई है और इसकी जगह न्यूनतम हस्तक्षेपकारी राज्य(Minimalist state) ने ले ली है। राज्य अब कुछेक मुख्य कामों तक ही अपने को सीमित रखता है, जैसे कानून और व्यवस्था को बनाये रखना तथा अपने नागरिकों की सुरक्षा करना । इस तरह , राज्य ने अपने को पहले के कई ऐसे लोक-कल्याणकारी कार्यों से दूर कर लिया है जिनका लक्ष्य आर्थिक और सामाजिक-कल्याण होता था। लोक कल्याणकारी राज्य की जगह अब “बाज़ार” आर्थिक और सामाजिक प्राथमिकताओं का प्रमुख निर्धारक है और भविष्य में बाज़ार ही सब कुछ तय करेगा |
लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वैश्वीकरण से हमेशा राज्य की ताकत में कमी नहीं आती | वैश्वीकरण की अवधारणा के बाद भी राजनीतिक समुदाय के आधार के रूप में राज्य की प्रधानता को कोई चुनौती नहीं मिली है और राज्य इस अर्थ में आज भी प्रमुख है। विश्व की राजनीति में अब भी विभिन्न देशों के बीच मौजूद पुरानी ईर्ष्या और प्रतिद्वंद्विता है जो इनके एकीकरण में बाधक है । कुल मिलकर , राज्य अभी भी महत्वपूर्ण बने हुए हैं। बल्कि एक तर्क तो यह भी दिया जाता है कि कुछ मामलों में वैश्वीकरण के फलस्वरूप राज्य की ताकत में इजाफा हुआ है। अब राज्यों के हाथ में अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी मौजूद है जिसके बल पर वे ज्यादा कारगर ढंग से काम कर सकते हैं और उनकी क्षमता बढ़ी है । ई-गवर्नेंस और सुशासन को इसी सन्दर्भ में देखा जा सकता है,जो की इन वैश्विक तकनीकों के कारण ही सम्भव हो सके है |
वैश्वीकरण की आलोचना इसलिए भी की जाती है कि इसे राज्य की संप्रभुता, लोकतंत्र और अधिकांश विकासशील देशों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए गंभीर खतरा माना जाता है। अंतराष्ट्रीय संगठन जैसे विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF), और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) तथा संयुक्त राज्य अमेरिका,यूरोप इत्यादि जैसी महाशक्तियां , निर्णयों को अपनाने के लिए दबाव डाल सकते है। इस बिंदु पर , जब 1991 में भारत में उदारीकरण ,निजीकरण एवं वैश्वीकरण की नीति अपनाई गई थी तब विपक्षी पार्टियों,विशेष कर वाम दलों ने सरकार का विरोध किया था |
वैश्वीकरण को पारिस्थितिक प्रणाली के लिए खतरे के रूप में भी देखा जाने लगा है। अधिकांश विकासशील और विकसित राष्ट्र प्राकृतिक पर्यावरण के संरक्षण के लिए बहुत कम ध्यान देते हैं। हाल के दशकों में वैश्विक तापन (ग्लोबल वार्मिंग) की दर बहुत अधिक रहीं है। इसके परिणामस्वरूप, महासागरों के औसत तापमान में वृद्धि हुई हैं, ग्लेशियरों (Glaciers) में गिरावट आई है ,हिमपात अधिक हुए है और इस प्रकार जलवायु परिवर्तन तीव्र हुआ है । पिछले 50 वर्षों में वातावरण में कार्बन डाइऑक्साउड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड इत्यादि हरित गृह गैसों (Green House Gases) का सांद्रण भी तीव्र गति से बढ़ा है । इन सब के पीछे कहीं न कहीं आर्थिक विकास को दोष दिया जाता है |
आर्थिक सुधारों की समीक्षा
1991 के आर्थिक सुधारों के सकारात्मक पहलुओं की यदि बात की जाए तो निश्चित रूप से आर्थिक विकास प्राप्त करना आर्थिक इस का एक प्रमुख उद्देश्य था,और इसमें यह काफी हद तक सफल भी रहा है । आर्थिक संवृद्धि प्राप्त करने के लिए राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि तथा कृषि और औद्योगिक क्षेत्रकों के उत्पादन में भी वृद्धि को प्राप्त करना आवश्यक है। सकल घरेलू उत्पाद (G.D.P) की औसत वृद्धि दर (फैक्टर लागत पर) जो 1951–91 के दौरान 4.34 प्रतिशत थी, 1991-2011 के दौरान 6.24 प्रतिशत के दर से बढ़ी । वहीं 2015 में भारतीय अर्थव्यवस्था 2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर से भी आगे निकल गयी। 1950 से 1980 के तीन दशकों में सकल राष्ट्रीय उत्पाद (G.N.P) की विकास दर केवल 1.49 प्रतिशत थी। 1980 के दशक में प्रारम्भिक आर्थिक उदारवाद ने प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद की विकास दर को बढ़ाकर प्रतिवर्ष 2.89 प्रतिशत कर दिया। जबकि 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद की दर बढ़कर 4.19 प्रतिशत तक पहुंच गई। 2001 में यह 6.78 प्रतिशत तक पहुंच गई। इसी प्रकार, प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई है | उदाहरण के लिए, नियोजन के प्रथम 30 वर्षों की अवधि में प्रति व्यक्ति आय में 1.2 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से वृद्धि हुई। हालिया समय में, यह वृद्धि दर कुछ तीव्र हुई है। कृषि में, खाद्यान्नों का उत्पादन प्रथम योजना के आरंभ में 5.1 करोड़ टन से बढ़कर 2011-12 में 25.74 करोड़ टन हो गया है। विशेष रूप से चावल और गेहूं का उत्पादन आशातीत रहा है | सुधारों के दौरान औद्योगिक विकास के संदर्भ में एक प्रमुख उपलब्धि उद्योगों की विविधता रही है। परिवहन् तथा दूरसंचार का विस्तार हुआ है, विजली के उत्पादन और वितरण में वृद्धि तथा इस्पात, एल्यूमीनियम, इंजीनियरिंग माल, रसायन और पैट्रोलियम उत्पादों में यथेष्ठ उन्नति हुई है। नियोजन की अवधि में उपभोक्ता वस्तुओं तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में भी यथेष्ट वृद्धि हुई है। इसके अलावा , नियोजन के कारण दुनिया भर से नई तकनीकें देश में आई ,वैश्विक सामीप्य (connectivity) में बढ़ोतरी हुई और वैश्विक प्रतिस्पर्धा के कारण आज दुनिया भर के उत्पाद अच्छी गुणवत्ता व कम कीमत पर उपलब्ध हैं | आधारभूत अवसंरचना का सृजन हुआ जिसके कारण शिक्षा -स्वस्थ्य में सुधार,विज्ञान -प्रोद्योगिकी का विकास,एवं व्यापार में विकास हुआ |
किंतु आर्थिक सुधारों की समीक्षा करते समय हमें इसके नकारात्मक पक्ष को भी नहीं भूलना चाहिए | आलोचक मानते हैं कि वैश्वीकरण के कारण संस्कृति ह्रास, पश्चिमीकरण, जीवन शैली में परिवर्तन एवं उपभोक्तावाद की एक संस्कृति विकसित हुई जिसमे आज इनसान वस्तु से अधिक कुछ नहीं रह गया और पूरी दुनिया केवल एक बाज़ार बन के रह गई है | गरीबी,बेरोजगारी,भ्रस्टाचार जैसी समस्याओं को दूर करने में ये सुधार असफल रहे हैं |
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