1757 के बाद से अंग्रेजों ने भारत के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, प्रशासनिक इत्यादि सभी क्षेत्रों में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करने की नीति अपनाई और इसके परिणाम स्वरूप भारतीयों में धीरे-धीरे असंतोष पनपता रहा। इसकी परिणति लगभग 100 वर्षों के बाद 1857 के विद्रोह के रूप में हुई।
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1857 के विद्रोह के कारण
- ‘सहायक संधि प्रणाली’ द्वारा भारतीय राज्यों पर नियंत्रण, ‘व्यपगत की नीति’ द्वारा भारतीय राज्यों को हड़पना प्रमुख राजनीतिक कारण रहे। व्यपगत नीति के तहत डलहौजी ने सातारा, जैतपुर, संभलपुर, बाघाट, उदयपुर, झांसी और नागपुर का अधिग्रहण किया था। इसी व्यवस्था के तहत लॉर्ड डलहौजी ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का राज्य भी हड़प लिया था।
- भारतीयों को प्रशासन में उच्च पदों से वंचित रखा जाना, भारतीयों के साथ निरंतर असमान बर्ताव करना आदि 1857 के विद्रोह के प्रमुख प्रशासनिक कारण थे।
- तीनों भू राजस्व नीतियाँ स्थाई बंदोबस्त, रैयतवाड़ी बंदोबस्त और महालवाड़ी बंदोबस्त, निर्यात कर में वृद्धि, आयात कर में कमी, हस्तशिल्प उद्योगों का पतन, धन की निकासी आदि आर्थिक कारकों ने 1857 के विद्रोह की उत्पत्ति में भूमिका निभाई।
- इसाई मिशनरियों का भारत में प्रवेश, सती प्रथा का अंत, विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता, भारतीय सैनिकों को समुद्री यात्रा के लिए विवश करना 1857 के विद्रोह के प्रमुख सामाजिक-धार्मिक कारण थे।
- भारतीय सैनिकों के साथ असमान व्यवहार, उच्च पदों पर नियुक्त करने से वंचित, यूरोपीय सैनिकों की तुलना में कम वेतन, डाकघर अधिनियम पारित नि:शुल्क डाक सेवा की समाप्ति आदि 1857 के विद्रोह के प्रमुख सैन्य कारण थे।
- ‘चर्बी वाले कारतूस का मुद्दा’ 1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण बना।
1857 के विद्रोह का आरंभ और घटनाक्रम
- इतिहासकारों के अनुसार, 1857 के विद्रोह की योजना बिठूर में नाना साहब और अजीमुल्ला खां ने तैयार की थी। उनकी योजना के अनुसार, 31 मई, 1857 का क्रांति के लिए निश्चित किया गया था।
- ‘कमल’ और ‘रोटी’ को 1857 के विद्रोह के प्रतीक के रूप में चुना गया था।
- बैरकपुर छावनी के एक सिपाही मंगल पांडे ने 29 मार्च, 1857 को चर्बी वाले कारतूस का प्रयोग करने से मना कर दिया और अपने दो अधिकारियों लेफ्टिनेंट जनरल ह्यूसन और लेफ्टिनेंट बाग की हत्या कर दी थी।
- 10 मई, 1857 को मेरठ छावनी की 20वीं नेटिव इन्फेंट्री में भी चर्बी वाले कारतूस का प्रयोग करने से मना कर सशस्त्र विद्रोह किया। इसी के साथ 1857 का विद्रोह आरंभ हो गया।
1857 के विद्रोह का प्रसार
- 10 मई, 1857 को विद्रोही मेरठ में सशस्त्र विद्रोह का ऐलान करने के बाद दिल्ली की ओर रवाना हो गए थे और 11 मई, 1857 को भोर में ही विद्रोहियों ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया था। दिल्ली पहुँचने के बाद विद्रोहियों ने तत्कालीन मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को विद्रोह का नेता तथा भारत का सम्राट घोषित कर दिया था।
- यह विद्रोह कानपुर, लखनऊ, अलीगढ़, इलाहाबाद, झांसी, रुहेलखंड, ग्वालियर, जगदीशपुर में फैल गया।
- दिल्ली में बहादुर शाह जफर के प्रतिनिधि बख़्त खां ने इस विद्रोह को नेतृत्व प्रदान किया था।
- कानपुर में इस विद्रोह को नाना साहब ने नेतृत्व प्रदान किया। इस दौरान तांत्या टोपे ने नाना साहब की मदद की थी।
- लखनऊ में बेगम हजरत महल ने नेतृत्व किया और अपने अवयस्क पुत्र बिरजिस कादिर को लखनऊ का नवाब घोषित कर दिया।
- झांसी में रानी लक्ष्मीबाई ने नेतृत्व किया। इस युद्ध में अंग्रेजी सेना को जनरल ह्यूरोज ने नेतृत्व प्रदान किया था।
- जगदीशपुर में कुंवर सिंह ने रुहेलखंड में खान बहादुर खान, फैजाबाद में मौलवी अहमदुल्लाह और ग्वालियर में तांत्या टोपे ने नेतृत्व किया।
- इस प्रकार, इस विद्रोह का प्रसार लगभग पूरे उत्तर भारत में हो गया था। पंजाब प्रांत तथा लगभग पूरा दक्षिण भारत इस विद्रोह से अछूता रहा था।
- इस विद्रोह में बंगाल के जमीदारों ने इस विद्रोह को कुचलने के लिए अंग्रेजों को सहायता प्रदान की थी। भारत के शिक्षित वर्ग, व्यापारी वर्ग आदि ने इस विद्रोह में भागीदारी नहीं की थी।
1857 के विद्रोह की असफलता के कारण
- इस विद्रोह की कोई एक सुनियोजित योजना नहीं थी। अतः यह दिशाहीन हो गया।
- सुव्यवस्थित संगठन था और पर्याप्त संसाधन नहीं थे। विद्रोहियों के पास अंग्रेजों की तुलना में कम गुणवत्ता वाले हथियार थे।
- भारतीय विद्रोहियों के पास तांत्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई जैसे कुछ ही बेहतर नेतृत्व मौजूद थे, लेकिन अंग्रेजों के पास निकोलस आउट्रम, हैवलॉक, हडसन जैसे एक से एक कुशल सैन्य नेतृत्व मौजूद थे।
- इसके अलावा, भारतीय पक्ष की तरफ विभिन्न गद्दार व्यक्ति भी मौजूद थे, जिन्होंने भारत के कुशल नेताओं की सूचना अंग्रेजों को दी थी।
- विद्रोहियों के पास कोई एक निश्चित राजनीतिक दृष्टि नहीं थी। निजी स्वार्थ के वशीभूत होकर युद्ध कर रहे थे।
- देशी शासक विद्रोह को कुचलने में अंग्रेजों की मदद कर रहे थे।
1857 के विद्रोह का स्वरूप
- 1857 के विद्रोह के स्वरूप के संबंध में विभिन्न मत प्रचलित हैं। इस विद्रोह के स्वरूप को निर्धारित करने के बारे में विभिन्न विद्वानों ने अपने अपने विचार प्रकट किए हैं। कुछ इतिहासकार इसे सैनिक विद्रोह घोषित करते हैं, तो कुछ इसे असैनिक विद्रोह की संज्ञा देते हैं।
- सर जॉन सीले ने कहा था कि “1857 का विद्रोह महज एक सैनिक विद्रोह था।” लेकिन जॉन सीले के विचार को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। यदि हम गहराई से परीक्षण करें तो देखेंगे कि इस विद्रोह में सिर्फ सैनिकों की ही भागीदारी नहीं थी, बल्कि देश का मजदूर वर्ग, किसान वर्ग, जन सामान्य इत्यादि इस विद्रोह से जुड़ा हुआ था। ऐसे में, इस विद्रोह को केवल सैनिक विद्रोह करार देना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता है।
- कुछ इतिहासकार इसे भारत का पहला राष्ट्रीय विद्रोह भी करार देते हैं, लेकिन हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इस विद्रोह के सभी नेता बेशक अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहे थे, किन्तु उनमें एक राष्ट्रवादी दृष्टि का अभाव था। उनमें से किसी के पास भी ऐसी कोई योजना नहीं थी कि विद्रोह में सफलता के बाद भारत को एक राष्ट्र के रूप में किस प्रकार की राजनीतिक स्थिति प्रदान की जाएगी। इस दृष्टि से इस विद्रोह को राष्ट्रीय विद्रोह कहना भी उचित नहीं लगता है।
- 1857 के इस विद्रोह में देश के विभिन्न वर्ग के लोगों ने अपनी भागीदारी दर्ज कराई थी। इसमें शामिल होने वाले लोगों में हिंदू, मुसलमान, किसान, मजदूर, महिलाएँ, बुजुर्ग, युवा इत्यादि विभिन्न वर्ग शामिल थे। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि यह विद्रोह समाज के विभिन्न स्वरूप से युक्त था और चूँकि यह विद्रोह अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीति के विरुद्ध था, इसीलिए इस विद्रोह के स्वरूप को साम्राज्यवाद विरोधी स्वरूप भी कहा जा सकता है।
1857 के विद्रोह के परिणाम
- इसके बाद भारत में से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त कर दिया गया था और ब्रिटिश ताज ने भारत का शासन सीधे अपने हाथ में ले लिया था।
- इस विद्रोह के पश्चात् कंपनी पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए गठित किए गए ‘बोर्ड ऑफ कंट्रोल’ तथा ‘कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स’ नामक दोनों संस्थाओं को समाप्त कर दिया गया था तथा इनके स्थान पर एक भारत सचिव तथा उसकी 15 सदस्य इंडिया काउंसिल की स्थापना की गई थी। यह भारत सचिव ब्रिटिश सरकार का भारत संबंधी मामले देखने वाला एक मंत्री होता था।
- 1857 के विद्रोह के बाद एक ‘भारत शासन अधिनियम’ पारित किया गया था। इसके माध्यम से ‘भारत के गवर्नर जनरल’ को ‘भारत का वायसराय’ बना दिया गया था। चूँकि इस अधिनियम के पारित किए जाने के समय लॉर्ड कैनिंग भारत का गवर्नर जनरल था, इसलिए लॉर्ड कैनिंग भारत का अंतिम गवर्नर जनरल तथा भारत का पहला वायसराय बना था।
- इस विद्रोह के बाद ब्रिटिश शासन ने भारत में साम्राज्य विस्तार करने की नीति का त्याग कर दिया था तथा लोगों के सामाजिक और धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने की नीति अपनाई थी।
- इस विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार के द्वारा भारतीय सेना के पुनर्गठन के लिए एक ‘पील आयोग’ गठित किया गया था। इस आयोग ने ब्रिटिश सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। उस रिपोर्ट के आधार पर भारतीय सेना में भारतीय सैनिकों की तुलना में यूरोपीय सैनिकों का अनुपात बढ़ा दिया गया था।
- 1857 के विद्रोह के पश्चात् एक ‘रॉयल आयोग’ का गठन भी किया गया था। इस आयोग ने ब्रिटिश सरकार को सिफारिश की थी कि भारतीय सेना में अब जाति, समुदाय और धर्म इत्यादि के आधार पर रेजिमेंटों का गठन किया जाना चाहिए और इसका अनुसरण करते हुए ब्रिटिश सरकार ने यही नीति अपनाई। इस नीति का मूल उद्देश्य भारतीय समाज को विभाजित करना था तथा उन पर अपने शासन को निरंतर बनाए रखना था। ब्रिटिश सरकार की ऐसी ही नीतियों को ‘फूट डालो और राज करो की नीति’ कहा जाता है।
इस प्रकार, हमने 1857 के विद्रोह के कारणों इसके क्षेत्रीय स्तर इस विद्रोह के स्वरूप तथा इसके परिणामों के विषय में एक सारगर्भित चर्चा की है। इस ऊपर किए गए विश्लेषण के आधार पर हमने 1857 के विद्रोह के संबंध में विभिन्न पहलुओं को समझा और इस टॉपिक का इस रूप में विश्लेषण किया कि हम संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली आईएएस परीक्षा की दृष्टि से इस टॉपिक के संदर्भ में आप अपनी बेहतर समझ विकसित कर सकें। हम उम्मीद करते हैं कि इस आलेख को पढ़ने के बाद आप 1857 के विद्रोह से संबंधित विभिन्न पहलुओं को बारीकी से समझ सकेंगे और अपनी तैयारी को अधिक बेहतर बना सकेंगे।
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