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डीप ओशन मिशन (DOM)

भारत सरकार ने हमारे देश में अभी तक अज्ञात ‘समुद्री विविधता’ (marine diversity) का पता लगाने के उद्देश्य से डीप ओशन मिशन (D.O.M) शुरू करने का निर्णय लिया है । इस परियोजना का प्रबंधन पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES), भारत सरकार द्वारा किया जाएगा । इस मिशन के तहत समुद्र में 6,000 मीटर की गहराई तक पहुँचने के लिये वैज्ञानिक सेंसर और उपकरणों के साथ एक मानवयुक्त पनडुब्बी विकसित की जाएगी । इसके लिए राष्ट्रीय महासागर प्रौद्योगिकी संस्थान (NIOT), जो कि पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त संस्थान है, और इसरो (ISRO) संयुक्त रूप से प्रयास कर रहे हैं । इस मिशन के माध्यम से, सरकार का लक्ष्य पानी के नीचे की दुनिया की खोज उसी तर्ज पर करना है जिस तरह इसरो अंतरिक्ष के लिए करता है । इस लेख में, हम डीप ओशन मिशन और देश के लिए इसके महत्व के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे । यह लेख आई.ए.एस मुख्य परीक्षा में GS पेपर- 3 की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है जिसमें  विज्ञान एवं तकनीक (science and technology) से प्रश्न पूछे जाते हैं।  हिंदी माध्यम में UPSC से जुड़े मार्गदर्शन के लिए अवश्य देखें हमारा हिंदी पेज  IAS हिंदी

आगामी आई.ए.एस परीक्षा के लिए खुद को तैयार करने वाले उम्मीदवारों को मिशन के प्रमुख बिंदुओं का सावधानीपूर्वक विश्लेषण करना चाहिए क्योंकि विज्ञान और प्रौद्योगिकी भाग के तहत जीएस 3 पेपर में इस पर आधारित प्रश्न पूछे जा सकते हैं।

डीप ओशन मिशन क्या है ?

डीप ओशन मिशन को ठीक उसी तरह से देखा जा सकता है जैसे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) अंतरिक्ष अनुसंधान करता है । हालांकि, भारत का डीप ओशन मिशन पूरी तरह से अनदेखे खनिजों, पत्थरों, जीवित या निर्जीव संस्थाओं के लिए हमारे देश में गहरे पानी के निकायों का अध्ययन और अन्वेषण करने पर ध्यान केंद्रित करेगा । मिशन के लिए कार्यबल और ‘रोबोटिक’ मशीनों दोनों का इस्तेमाल किया जाएगा । गहरे समुद्र में खनन, ऊर्जा की खोज, मिली वस्तुओं का सर्वेक्षण और अपतटीय अलवणीकरण जैसे कार्य सख्ती से किए जाएंगे । डीप ओशन मिशन के लिए किए गए तकनीकी विकास को सरकारी योजना “महासागर सेवाएं, प्रौद्योगिकी, अवलोकन, संसाधन मॉडलिंग और विज्ञान (ओ- स्मार्ट)” द्वारा वित्त पोषित किया जाएगा । इस मिशन के माध्यम से महासागर और जलवायु परिवर्तन पर अध्ययन और अनुसंधान किया जाएगा । सुविधाजनक अनुसंधान के लिए पानी के नीचे की तकनीकों पर भी ध्यान दिया जाएगा । डीप ओशन मिशन में दो प्रमुख परियोजनाओं को शामिल किया गया है: एक अलवणीकरण संयंत्र, और सबमर्सिबल व्हीकल, जो 6000 मीटर की गहराई तक खोज कर सकता है । समुद्र के जिन हिस्सों का अभी पता लगाया जाना बाकी है और जो अज्ञात हैं, उन सभी को इस मिशन के माध्यम से कवर किया जाएगा ।

डीप ओशन मिशन के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं:

  • गहरे समुद्र में खनन, पानी के नीचे की पनडुब्बियों और पानी के नीचे के ‘रोबोटिक्स’ के लिए प्रौद्योगिकियों का विकास;
  • महासागर जलवायु परिवर्तन सलाहकार सेवाओं का विकास;
  • गहन समुद्री जैव विविधता की खोज और संरक्षण के लिए तकनीकी विकास;
  • गहरे समुद्र का सर्वेक्षण और अन्वेषण;
  • समुद्र से ऊर्जा उत्पादन की अवधारणा पर अध्ययन का प्रमाण; तथा
  • महासागर जीव विज्ञान के लिए उन्नत समुद्री स्टेशन की स्थापना इत्यादि

डीप ओशन मिशन का महत्व

जैसा कि उपरोक्त है, डीप ओशन मिशन के माध्यम से, सरकार का लक्ष्य पानी के नीचे की दुनिया की खोज उसी तर्ज पर करना है जिस तरह इसरो अंतरिक्ष के लिए करता है । यह मिशन भारत को मध्य हिंद महासागर बेसिन (CIOB) में संसाधनों का दोहन करने की क्षमता विकसित करने में सक्षम बनाएगा । इसके माध्यम से अभी तक अज्ञात ‘समुद्री विविधता’ (marine diversity) का पता लगाने का उद्देश्य है । इस परियोजना के प्रमुख उद्देश्यों में से एक बहुधात्विक पिंड -पॉलीमेटैलिक नोड्यूल्स (पी.एम.एन) का खनन और निष्कर्षण भी है । “यूएन इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी” (UNISA) ने भारत को इन पॉलीमेटैलिक नोड्यूल्स की खोज के लिए मध्य हिंद महासागर बेसिन (सी.आई.ओ.बी) में 75000 वर्ग कि.मी. क्षेत्र आवंटित किया है ।

बहुधात्विक पिंड (पॉलीमेटैलिक नोड्यूल्स- PMN) क्या हैं?

पॉलीमेटैलिक नोड्यूल्स (पी.एम.एन) ऐसे बहुधात्विक पिंड निक्षेप हैं जिनसे बड़ी मात्रा में मैंगनीज व लौह प्राप्त किया जा सकता है । इन्हें मैंगनीज़ नोड्यूल्स भी कहते हैं । मैंगनीज़ और लोहे के अलावा, इनमें निकिल, तांबा, कोबाल्ट, सीसा, मोलिब्डेनम, कैडमियम, वैनेडियम, टाइटेनियम आदि भी पाए जाते हैं । ये आलू के आकार के होते हैं और दिखने में ये काले मिट्टी के रंग के होते हैं । इनका आकार 2 से 10 से.मी. व्यास में होता है । P.M.N को समुद्र की पपड़ी के गहरे आंतरिक भाग से गर्म मैग्मा के ऊपर उठने वाले गर्म तरल पदार्थ के अवक्षेप के रूप में माना जाता है, जो खनिजयुक्त रास्तों से निकलता है । इन दुर्लभ पृथ्वी खनिजों को मूल्यवान खनिजों का एक बड़ा स्रोत माना जाता है ।

पॉलीमेटैलिक नोड्यूल्स का खनन कहाँ किया जा सकता है?

ऐसे विशिष्ट स्थान हैं जहां पानी के नीचे पॉलीमेटैलिक नोड्यूल्स का खनन किया जा सकता है । कोई भी देश जो पॉलीमेटैलिक नोड्यूल्स का खनन करना चाहता है, उसे आई.एस.ए से प्राधिकरण प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, जिसे संयुक्त राष्ट्र के समुद्र के कानून पर सम्मेलन (यू.एन.सी.एल.ओ.एस) के तहत स्थापित किया गया था । पानी के नीचे का 75,000 वर्ग की.मी. क्षेत्र जो भारत को सौंपा गया है, वह हिस्सा है जहां खनन किया जा सकता है । 1987 में, भारत ने ‘अग्रणी निवेशक’ का दर्जा प्राप्त किया और यह दर्जा प्राप्त करने वाला वह पहला देश था । फिर इसे पी.एम.एन के खनन के लिए 1.5 लाख वर्ग कि.मी. का क्षेत्र दिया गया । 2002 में, ISA ने संसाधनों का विश्लेषण किया और भारत को 75,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र सौंपा । पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा किए गए शोध के अनुसार, इस क्षेत्र में – लगभग 880 मीट्रिक टन  संभावित बहुधात्विक पिंड,  4.7 मीट्रिक टन निकेल, 92.59 मीट्रिक टन मैग्नीशियम, 4.29 मीट्रिक टन कॉपर, तथा 0.55 मीट्रिक टन कोबाल्ट के निक्षेप हैं।

अनन्य आर्थिक क्षेत्र (EEZ) किसे कहते हैं?

यह समुद्र के कानून पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (यू.एन.सी.एल.ओ.एस) द्वारा निर्धारित समुद्र में एक क्षेत्र है जिस पर किसी  देश के पास समुद्री संसाधनों की खोज के लिए कुछ अधिकार हैं । भारत के पास लगभग 2.37 मिलियन वर्ग कि.मी. का एक विशेष आर्थिक क्षेत्र (ई.ई.जेड) है, और इसका अधिकांश भाग अभी तक अज्ञात है । मध्य हिंद महासागर बेसिन (CIOB) के अलावा, मध्य प्रशांत महासागर में भी P.M.N की खोज की गई है । इसे क्लेरियन – क्लिपर्टन ज़ोन (Clarion Clipperton Zone) के नाम से भी जाना जाता है । चीन, फ्रांस, जर्मनी, जापान, दक्षिण कोरिया, रूस सहित प्रमुख देश उन देशों की सूची का हिस्सा हैं, जिन्होंने पॉलीमेटैलिक नोड्यूल्स की खोज के लिए आई.एस.ए के साथ एक अनुबंध पर हस्ताक्षर किए हैं । यह सूची केवल प्रमुख देशों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि कुछ द्वीप भी पी.एम.एन के लिए अपनी खोज शुरू कर चुके हैं, उदाहरण के लिए, मध्य प्रशांत महासागर में एक स्वतंत्र देश किरिबाती।

पर्यावरण पर डीप ओशन मिशन का प्रभाव

विभिन्न देशों में किए जा रहे महासागर खनन के लिए पर्यावरणविदों द्वारा एक बड़ी चिंता भी जताई गई है । सबसे बड़ी चिंता यह है कि चूंकि इस क्षेत्र का अन्वेषण नहीं किया गया है, इसलिए इसके परिणामों की कल्पना नहीं की जा सकती है । इसके कुछ अप्रत्याशित परिणाम भी देखने को मिल सकते हैं । चिंता का एक अन्य कारण तलछट के ढेर हैं जो तेल रिसाव के कारण बन सकते हैं । हालाँकि, भारत अपनी शोध को ले कर आश्वस्त व उत्साहित है क्योंकि मिशन के शुरू होने के बाद कुछ बड़े खुलासे किए जा सकते हैं । इनमें से एक सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि चूंकि समुद्र की गहराई में तापमान बहुत कम होता है, इसलिए बहुत सी प्रजातियों की खोज की जाएगी जो मौसम की विषम स्थिति में भी जीवित रहने में सक्षम हैं । डीप ओशन मिशन के तहत की जाने वाली सभी गतिविधियाँ आई.एस.ए द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार होंगी, यह सुनिश्चित करते हुए कि जैव विविधता को कोई नुकसान न हो ।

O-smart : आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने 2021-26 की अवधि के लिये ‘महासागरीय सेवाएँ, मॉडलिंग, अनुप्रयोग, संसाधन और प्रौद्योगिकी (O -SMART)’ योजना को जारी रखने को मंज़ूरी दे दी है । इसका उद्देश्य समुद्री अनुसंधान को बढ़ावा देना और पूर्व चेतावनी मौसम प्रणाली स्थापित करना है । इसे अगस्त 2018 में लॉन्च किया गया था और पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के स्वायत्त संस्थानों द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा है । ओ-स्मार्ट योजना में कुल 16 उप -परियोजनायें शामिल हैं जो इस प्रकार हैं : महासागरीय प्रौद्योगिकी, महासागरीय  मॉडलिंग और परामर्श सेवाएँ (O.S.M.A.S), समुद्री अवलोकन नेटवर्क (O.O.N), समुद्री निर्जीव (नॉन-लिविंग) संसाधन, समुद्री सजीव संसाधन एवं इको -सिस्टम (M.L.R.E), तटीय अनुसंधान एवं परिचालन, पोतों का अनुसंधान एवं रख -रखाव इत्यादि ।

महासागर खनन के लिए भारत की तैयारी

भारत का खनन स्थल लगभग 5,500 मीटर की गहराई पर है, जहाँ उच्च दबाव और बेहद कम तापमान है । हमने 6,000 मीटर की गहराई में दूर से संचालित वाहन और “इन-सीटू- सॉयल टेस्टर” भी तैनात किया है और मध्य हिंद महासागर बेसिन में खनन क्षेत्र की पूरी जानकारी हासिल कर ली है । खनन हेतु मौसम की स्थिति और जहाजों की उपलब्धता भी एक अहम भूमिका निभाती है । खनिज को सतह पर कैसे लाया जाए, यह समझने के लिए और परीक्षण किए जा रहे हैं । एक ‘इलेक्ट्रो- मैकेनिकल केबल’ और एक नली से युक्त रिसर प्रणाली इसके लिए विकसित की जा रही है । इसके लिए राष्ट्रीय महासागर प्रौद्योगिकी संस्थान द्वारा मत्स्य नामक एक पनडुब्बी का विकास किया गया है । इस पनडुब्बी की सामान्य परिचालन स्थिति में 12 घंटे तक चलने की क्षमता है, किंतु किसी आपात स्थिति में मानव सुरक्षा के लिए 96 घंटे तक चलने की क्षमता है । इस पनडुब्बी में तीन लोग समुद्र में 6 हजार मीटर अंदर तक जाकर भारत के लिए संभावनाओं की तलाश कर समुंद्र की संसाधनों की जानकारी जुटा सकेंगे । मत्स्य नामक इस समुद्रयान को राष्ट्रीय महासागर प्रौद्योगिकी संस्थान- NOTI, चेन्नई ने विकसित किया है ।

नोट : यूपीएससी परीक्षा की तैयारी शुरू करने से पहले अभ्यर्थियों को सलाह दी जाती है कि वे  UPSC Prelims Syllabus in Hindi का अच्छी तरह से अध्ययन कर लें, और इसके बाद ही  अपनी तैयारी की योजना बनाएं ।

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ब्लू इकॉनमी

‘ब्लू इकोनॉमी’ की परिभाषाएँ विभिन्न संगठनों के अनुसार अलग-अलग हैं । विश्व बैंक के अनुसार ब्लू इकोनॉमी को “समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य को संरक्षित करते हुए आर्थिक विकास, बेहतर आजीविका और नौकरियों के लिए समुद्री संसाधनों के सतत विकास” के रूप में परिभाषित किया गया  है । जबकि राष्ट्रमंडल इसे एक उभरती हुई अवधारणा के रूप में परिभाषित करता है जो हमारे महासागरों के बेहतर प्रबंधन को प्रोत्साहित करती है । ब्लू इकोनॉमी का एक संबंधित शब्द महासागरीय अर्थव्यवस्था है, लेकिन दोनों का परस्पर उपयोग किए जाने के बावजूद वे एक दूसरे से भिन्न हैं । महासागरीय अर्थव्यवस्था महासागर संसाधनों के उपयोग पर केंद्रित है और इसका उद्देश्य महासागर की आर्थिक प्रणाली को सशक्त बनाना है । हरित अर्थव्यवस्था, जैसा की हम परिचित हैं, जहाँ अर्थव्यवस्था का उद्देश्य पर्यावरणीय जोखिमों को कम करना है, और इसका उद्देश्य पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना सतत विकास करना है । यह पारिस्थितिक अर्थशास्त्र से निकटता से संबंधित है । इसलिए, ब्लू इकोनॉमी हरित अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा है ।

ब्लू इकोनॉमी के बारे में तथ्य

  • ब्लू इकॉनमी का क्या आर्थिक महत्त्व है इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि विश्वव्यापी महासागर अर्थव्यवस्था का कुल मूल्य लगभग 1.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष है ।
  • मात्रा के हिसाब से वैश्विक व्यापार का 80 प्रतिशत समुद्र के रास्ते द्वारा ही किया जाता है ।
  • दुनिया भर में 350 मिलियन रोजगार केवल मत्स्य पालन से सम्बद्ध हैं ।
  • 2025 तक यह अनुमान है कि कच्चे तेल का 34% उत्पादन अपतटीय क्षेत्रों से होगा ।
  • एक्वाकल्चर दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने वाला खाद्य क्षेत्र है और मानव उपभोग के लिए लगभग 50% मछली प्रदान करता है ।

यदि भारत ब्लू इकॉनमी का लाभ उठाता है तो इसमें बहुत संभावनाएं हैं । हिंद महासागर क्षेत्र प्रचुर मात्रा में संसाधनों से परिपूर्ण है, विशेष रूप से मत्स्य, जलीय कृषि, महासागर ऊर्जा, समुद्री तल खनन और खनिजों के क्षेत्रों में, और समुद्री पर्यटन और शिपिंग गतिविधियों को विकसित करने के लिए अनन्य आर्थिक अवसर प्रदान करता है । संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (एफ.ए.ओ) की रिपोर्ट में कहा गया है कि जबकि अन्य विश्व महासागर अपनी मत्स्य सीमा के करीब हैं, हिंद महासागर के कुछ क्षेत्रों में संसाधनों में उत्पादन में वृद्धि को बनाए रखने की क्षमता है । इसके अतिरिक्त, हिंद महासागर क्षेत्र देश के अधिकांश तेल- आपूर्ति के रूप में भारत की आर्थिक वृद्धि के लिए रणनीतिक महत्व रखता है । नौवहन मंत्रालय द्वारा शुरू की गई सागरमाला परियोजना, बंदरगाहों के आधुनिकीकरण के लिए आद्यतन तकनीक सक्षम सेवाओं के व्यापक उपयोग के माध्यम से बंदरगाह के विकास के लिए रणनीतिक पहल है । इस परियोजना का अतिरिक्त लाभ तटीय आर्थिक क्षेत्रों (सी.ई.जेड) का विकास है जो भारत में एक संपन्न ब्लू इकॉनमी के लिए एक उत्प्रेरक होगा । सरकार के मेक इन इंडिया कार्यक्रम के तहत, जहाज निर्माण उद्योग काफी लाभान्वित हो सकता है । इस उद्योग का निवेश पर उच्च गुणक प्रभाव पड़ता है और यह बड़ी संख्या में सम्बद्ध उद्योगों के साथ -साथ औद्योगिक विकास को गति दे सकता है । भारत में ‘ब्लू ग्रोथ इनिशिएटिव’ को बढ़ावा देने के लिए एक राष्ट्रीय मत्स्य नीति है जो समुद्री और अन्य जलीय संसाधनों से मत्स्य संपदा के सतत उपयोग पर केंद्रित है।

हिंद महासागर क्षेत्र को अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी के लिए एक स्थायी और समावेशी ढांचे की आवश्यकता है । इस क्षेत्र के देशों को न केवल क्षेत्र में बढ़ती सुरक्षा चुनौतियों का समन्वय और प्रबंधन करने की आवश्यकता है बल्कि हिंद महासागर क्षेत्र द्वारा प्रस्तुत पर्याप्त आर्थिक क्षमता का भी महत्व समझना है । भारत ने अपने विकास प्रयासों में महत्वपूर्ण रूप से वृद्धि की है । क्षेत्रीय भागीदारों के साथ अपने सहयोग को मजबूत करने और एक स्थायी महासागर अर्थव्यवस्था का निर्माण करने की भारत की प्रतिबद्धता इसकी घरेलू -आधुनिकीकरण परियोजनाओं के साथ अच्छी तरह से मेल खाती है जो राष्ट्र को महासागर आधारित ‘ब्लू इकोनॉमी’ की पूरी क्षमता का दोहन करने में सक्षम बनाएगी।

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