अंग्रेजों ने भारत की संवैधानिक समस्या का समाधान करने के लिए कुल 3 गोलमेज सम्मेलनों का आयोजन किया था। लेकिन इनका कोई प्रभावी परिणाम सामने नहीं आ सका था। इसी बीच, दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद 16 अगस्त, 1932 को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने ‘भारतीय मताधिकार समिति’ की सिफारिश के आधार पर सांप्रदायिक पंचाट की घोषणा कर दी।
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सांप्रदायिक पंचाट के माध्यम से अंग्रेजों ने भारत के सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने की कोशिश की। इस पंचाट के माध्यम से भारत के विभिन्न वर्गों को पृथक निर्वाचक मंडल प्रदान कर दिया गया था।
इस सांप्रदायिक पंचाट में अन्य अनेक प्रावधानों के साथ यह प्रावधान भी किया गया था कि दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की व्यवस्था की जाएगी। दलित नेता भीमराव अंबेडकर इस व्यवस्था का पुरजोर समर्थन कर रहे थे। अंबेडकर के प्रयास से सांप्रदायिक पंचाट में यह प्रावधान किया गया था कि दलितों को हिंदुओं से अलग एक अन्य वर्ग माना जाना चाहिए और उसके अनुसार उन्हें पृथक निर्वाचन मंडल व आरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए। अंबेडकर की इस राय को सांप्रदायिक पंचाट में स्वीकार कर लिया गया था।
कांग्रेस सहित महात्मा गांधी ने अंग्रेजों की इस चाल को विशुद्ध रूप से फूट डालो और राज करो की नीति के विस्तार के रूप में देखा और इसका तीखा विरोध किया।
अंग्रेजों के इस कदम के विरोध में गांधी जी ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए 20 सितंबर, 1932 को आमरण अनशन आरंभ कर दिया। मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, सी. राजगोपालाचारी, जयकर, तेज बहादुर सप्रू, घनश्याम दास बिड़ला इत्यादि नेताओं के प्रयासों से 24 सितंबर, 1932 ईस्वी को महात्मा गांधी और दलित नेता अंबेडकर के बीच एक समझौता हस्ताक्षर हुआ था। इस समझौते को इतिहास में ‘पूना समझौते’ के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के बाद गांधी जी ने अपना आमरण अनशन समाप्त कर दिया था।
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पूना समझौते के प्रमुख बिंदु
- इस समझौते पर महात्मा गांधी ने स्वयं हस्ताक्षर नहीं किए थे, बल्कि महात्मा गांधी की तरफ से इस समझौते पर पंडित मदन मोहन मालवीय द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे। जबकि दूसरी ओर से समझौते पर भीमराव अंबेडकर ने ही हस्ताक्षर किए थे।
- इस समझौते के तहत भीमराव अंबेडकर ने दलितों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की मांग का परित्याग कर दिया था और उन्हें विधानमंडल के अंदर हिंदुओं के अंतर्गत ही स्थानों की सुरक्षा प्रदान की गई थी।
- सांप्रदायिक पंचाट के अंतर्गत प्रांतीय विधान मंडलों में दलितों के लिए केवल 71 सीटें निर्धारित की गई थी, जबकि पूना समझौते के अंतर्गत प्रांतीय विधान मंडलों में दलितों के लिए 147 सीटें आवंटित की गई थी।
- इस समझौते के तहत विभिन्न प्रांतों में दलितों के लिए सीटें सुरक्षित कर दी गई थी। इनके अंतर्गत दलितों के लिए बंगाल में 30 सीटें, मद्रास में भी 30 सीटें, मध्य प्रांत और संयुक्त प्रांत में 20-20 सीटें, बिहार और उड़ीसा में 18 सीटें, मुंबई और सिंध में 15 सीटें, पंजाब में 8 सीटें और असम में 7 सीटें सुरक्षित की गई थी।
- पूना समझौते के अंतर्गत भीमराव अंबेडकर से यह वादा भी किया गया था कि गैर मुस्लिम क्षेत्रों के लिए आवंटित की गई सीटों में से कुछ सीटें दलित वर्ग के लिए आरक्षित कर दी जाएंगी।
- दलित वर्ग के लोगों को विभिन्न सार्वजनिक सेवाओं में और अनेक स्थानीय संस्थाओं में उनकी शैक्षणिक योग्यता के आधार पर पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था भी इस समझौते के अंतर्गत की गई थी।
- इस समझौते के तहत केंद्रीय विधान मंडल में दलित वर्ग के लोगों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए संयुक्त निर्वाचन की व्यवस्था को अपनाया गया था।
- केंद्रीय विधान मंडल के संदर्भ में इस समझौते के अंतर्गत यह भी स्वीकार कर लिया गया था कि ब्रिटिश भारत के संदर्भ में सामान्य निर्वाचक वर्ग के लिए निर्धारित की गई कुल सीटों का 18 प्रतिशत हिस्सा दलित वर्ग के लोगों के लिए आरक्षित रहेगा।
- भीमराव अंबेडकर ने इस समझौते के तहत दलित वर्ग के लोगों के लिए संयुक्त निर्वाचन के प्रावधान को स्वीकार कर लिया था। इसके अलावा, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी इस बात पर सहमति व्यक्त की थी कि दलित वर्ग के लोगों को प्रशासनिक सेवाओं में उचित प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाएगा।
- इस समझौते के अंतर्गत यह भी निर्धारित किया गया था कि वंचित वर्गों के लिए प्रांतीय और केंद्रीय विधान मंडलों में मताधिकार का निर्धारण ‘भारतीय मताधिकार समिति’ (लोथियन समिति) की सिफारिश के आधार पर किया जाएगा।
- किसी भी व्यक्ति को स्थानीय निकाय के किसी भी चुनाव में हिस्सा लेने से या किसी लोक सेवा में नियुक्त होने से सिर्फ इस आधार पर अयोग्य नहीं ठहराया जा सकेगा कि वह व्यक्ति दलित वर्ग से संबंधित है।
पूना समझौते का प्रभाव
- पूना समझौते ने हिंदू समाज की पूर्ववर्ती व्यवस्था को पुनः स्थापित कर दिया था और दलितों की समस्या में कोई प्रभावी सुधार नहीं हो सका था।
- इस समझौते के माध्यम से दलित वर्ग के लोग ताकतवर हिंदू जातियों के लिए एक राजनीतिक हथियार बन कर रह गए थे और हिंदू जातियां ऐसे दलित व्यक्तियों को ही अपने एजेंट के तौर पर प्रस्तुत करती थी, जो उनका आधिपत्य स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाते थे।
- पूना समझौते ने दलितों को हिंदुओं से अलग एक पृथक जाति के रूप में स्थापित होने से रोक दिया था। इसके परिणाम स्वरूप दलित जातियां पुनः हिंदू समाज के अंतर्गत शोषण झेलने के लिए विवश हो गई थी।
- भारत एक तरफ अपने सामाजिक सुधार आंदोलनों के माध्यम से स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्श पर चलने की बात कर रहा था, लेकिन पूना समझौते के माध्यम से इन सिद्धांतों की ओर भारत की प्रगति बाधित हो गई थी।
- पूना समझौता ने दलितों को राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और वैचारिक दृष्टि से अधिक कमजोर किया और उन्हें ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था का शिकार होने के लिए छोड़ दिया। अतः पूना समझौते के माध्यम से दलितों के उत्थान का नहीं, बल्कि पतन का मार्ग प्रशस्त हुआ था।
- इसके तहत अपनाई गई संयुक्त निर्वाचन प्रणाली ने भी दलितों की भलाई नहीं की। इस संदर्भ में, ‘अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ’ की कार्यकारी समिति ने स्पष्ट किया था कि अब तक हुए चुनावों के अनुभव इस बात को इंगित करते हैं कि संयुक्त निर्वाचन प्रणाली ने दलितों के सशक्तिकरण को बढ़ावा नहीं दिया है और अभी भी वे बहुसंख्यक हिंदू जाति के लोगों के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं।
इस प्रकार, पूना समझौता भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसके विश्लेषणात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि पूना समझौता सफलता और विफलता दोनों को एक साथ लिए हुए चलता है। पूना समझौते को सफल इस अर्थ में कहा जा सकता है कि इसने अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति के माध्यम से भारतीय समाज को विभाजित होने से बचा लिया, जबकि यह असफल इस अर्थ में प्रतीत होता है कि यह दलितों की स्थिति में पर्याप्त मात्रा में उत्थान नहीं कर पाया।
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