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सरकारिया आयोग

1960 के दशक के उत्तरार्ध से भारतीय राजनीति में केंद्र-राज्य सम्बन्धों की मधुरता में एक कमी देखने को मिलती है | इसका एक बड़ा कारण यह रहा है कि आज़ादी के आरंभिक दशकों  में केंद्र सरकार व अधिकांश राज्य सरकारों में कांग्रेस पार्टी का ही वर्चस्व रहा |  किंतु धीरे -धीरे कांग्रेस पार्टी के इस वर्चस्व में कमी आई और क्षेत्रीय पार्टीयों का उद्भव हुआ | इसने  केंद्र व राज्य सरकारों के बीच एक टकराव को जन्म दिया | केंद्र व राज्य सरकारों के बीच निरंतर बढ़ते इस  टकराव ने ही 1983 में सरकारिया आयोग के गठन की आधारशिला रखी | इससे पहले कि हम सरकारिया आयोग की सिफारिशों को देखें , यह समझने का प्रयास करते हैं कि वे कौन से मुद्दे हैं जो केंद्र व राज्य सरकारों के बीच टकराव का कारण बनते हैं, या सरल शब्दों में सरकारिया आयोग या इस जैसे अन्य आयोगों के गठन की आवश्यकता क्यों महसूस की गई  |

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केंद्र व राज्य सरकारों के बीच टकराव के कुछ मुख्य कारण

कानून निर्माण की शक्तियां : केंद्र व राज्य सरकारों के बीच टकराव का सबसे बड़ा कारण है कानून निर्माण की शक्ति | हालाँकि इस विवाद को कम करने के उद्देश्य से इन शक्तियों का स्पष्ट विभाजन संघ सूचि ,राज्य सूचि व समवर्ती सूचि में किया गया है ,जिसका विवरण नीचे दी गई तालिका में है , तथापि ये विषय अक्सर विवाद का कारण बनते हैं क्योकि कुछ विशेष परिस्थितियों में केंद्र सरकार राज्य सूचि के विषय पर भी कानून बना सकती है |

संविधान की 7वीं अनुसूची के तहत कानून निर्माण शक्तियों का त्रि-स्तरीय  विभाजन 

संघ सूचि के विषय  राज्य सूची के विषय  समवर्ती सूचि के विषय 
यह ऐसी सूचि है जिसमे शामिल विषयों पर केवल केंद्र सरकार कानून बना सकती है |  ये विषय राष्ट्रीय महत्त्व के होते हैं | इस सूची में वर्तमान में  100 विषय शामिल  हैं ( मूलत: 97 ) जैसे:- रक्षा,रेलवे,युद्ध एव शांति ,अंतर्राष्ट्रीय समझौते ,डाक , बैंकिंग, विदेश मामले, मुद्रा,परमाणु  ऊर्जा, बीमा, संचार, केंद्र-राज्य व्यापार एवं वाणिज्य,वायुसेवा ,बन्दरगाह , जनगणना, लेखा परीक्षा आदि | इस सूचि में शामिल विषयों पर साधारण परिस्थितियों में केवल राज्य  सरकार कानून बना सकती है | यदि राज्यसभा कोई विशेष प्रस्ताव पारित करे या राज्य ही केन्द्रीय विधायिका से इसके लिए अनुमोदन करें तो केंद्र सरकार भी इन विषयों पर कानून का निर्माण कर सकती है |

इस सूची में वर्तमान में 61 विषय शामिल हैं (मूलत: 66 विषय) जैसे:- सार्वजनिक व्यवस्था,स्थानीय शासन ,भूमि ,शराब ,व्यापार -वाणिज्य ,पशुपालन  पुलिस, जन स्वास्थ्य एवं सफाई, कृषि, जेल, स्थानीय शासन, मत्स्यपालन, बाजार आदि ।

(नोट : 42वें सम्विधान संशोधन अधिनियम 1976 के तहत 5 विषयों को राज्य सूची से समवर्ती सूची में शामिल किया गया है — 1. शिक्षा, 2. वन, 3. नाप एवं तौल 4. वन्य जीवों एवं पक्षियों का संरक्षण, 5. न्याय का प्रशासन उच्चतम एवं उच्च न्यायालय के अतिरिक्त सभी न्यायालयों का गठन)

यह ऐसी सूचि है जिसमे शामिल विषयों पर केंद्र व राज्य दोनों  सरकार कानून बना सकती है | यदि दोनों विधियों में प्रतिरोध हो तो केंद्र द्वरा पारित कानून  ही मान्य होगा | इस सूची में वर्तमान में  52 विषय (मूलत: 47) हैं, जैसे:- शिक्षा ,वन,पर्यावरण संरक्षण , वन्य जीव संरक्षण ,आपराधिक कानून  प्रक्रिया, सिविल प्रक्रिया, विवाह एवं तलाक, जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन, बिजली, श्रम कल्याण, आर्थिक एवं सामाजिक योजना, दवा, अखबार, पुस्तक एवं छापा प्रेस,गोद लेना एवं उत्तराधिकार  एवं अन्य ।
अवशिष्ट शक्तियाँ : इस सूचि में ऐसे विषय शामिल होते हैं जो उपरोक्त 3 सूचियों में से किसी भी सूचि में शामिल न  हों | इन विषयों पर  केवल केंद्र  सरकार कानून बना सकती है | नई अवधारणाएं जैसे  साइबर अपराध से सम्बद्ध कानून इसके उदहारण हैं (अवशिष्ट शक्ति में अवशिष्ट करों के आरोपण के संबंध में विधान बनाने की शक्ति भी शामिल है) |

राज्यपाल की भूमिका तथा राष्ट्रपति शासन :  राज्यपाल की भूमिका केंद्र और राज्यों के बीच हमेशा ही विवाद का विषय रही है। देश में जितने भी संवैधानिक पद हैं उनमे केवल राज्यपाल का पद ही एक ऐसा पद है जिसके निर्वाचन , स्थानांतरण , कार्यकाल या निलंबन किसी से भी सम्बंधित स्पष्ट प्रावधान हमारे संविधान में नहीं दिए गये हैं | राज्यपाल निर्वाचित पदाधिकारी नहीं होता | सामान्यतः वे  सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी, लोक सेवक या राजनीतिज्ञ हुए हैं | उनकी नियुक्ति केंद्र सरकार के  द्वारा ,राज्यों में केंद्र सरकार के एक एजेंट के रूप में की जाती  है | अतः राज्यपाल के फ़ैसलों को अकसर राज्य सरकार के कार्यों में केंद्र सरकार द्वारा हस्तक्षेप के रूप में देखा जाता है,  विशेषकर तब जब केंद्र और राज्य में अलग-अलग राजनैतिक  दल सत्तारूढ़ हों , तब राज्यपाल की भूमिका और विवादास्पद हो जाती है | राज्यपाल के पद से जुड़ा विवाद का दूसरा कारण है संविधान के  अनुच्छेद 356 के तहत “राज्य आपात” (state emergency) का प्रावधान | इस अनुच्छेद के द्वारा राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है | इस प्रावधान को किसी राज्य में तब लागू किया जाता है  जब  ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई हो कि उस राज्य का शासन इस संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सके | परिणामस्वरूप संघीय सरकार राज्य सरकार की विधायी शक्तियों  का अधिग्रहण कर लेती है | इस विषय पर राष्ट्रपति द्वारा जारी उद्घोषणा को संसद की स्वीकृति प्राप्त करना ज़रूरी होता है | राज्यपाल को ही  यह अधिकार है कि वह राज्य सरकार को बर्खास्त करने तथा राज्य विधान सभा को निलंबित या विघटित करने की अनुशंसा राष्ट्रपति से  कर सके | कई बार ऐसा भी देखा गया है कि बहुमत के आधार पर गठित  राज्य सरकारों को भी राजनैतिक द्वेष के कारण  बर्खास्त कर दिया गया है अथवा उसकी अनुशंसा की गई है | 

इन सब के अलावे अखिल भारतीय सेवा (All India Services) ,कराधान व्यवस्था  (taxation) ,अनुच्छेद 352 के तहत  राष्ट्रीय  आपात उपबंध (emergency provisions) , राज्यों के वित्तीय आवंटन में असमानता इत्यादि भी केंद्र -राज्य संबंधों की कटुता का कारण बनते हैं | 

सरकारिया आयोग व इसकी सिफारिशें 

उपरोक्त पृष्ठभूमि में ही बढ़ते संघीय तनाव के कारण 1983 में केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश रंजीत सिंह  सरकारिया की अध्यक्षता में केंद्र-राज्य संबंधों पर एक 3 सदस्यीय आयोग का गठन किया।  केंद्र और राज्य सरकार के बीच सभी व्यवस्थाओं व कार्य पद्धतियों का परीक्षण करना  और इस संबंध में उचित परिवर्तन व  प्रामाणिक सिफारिशें प्रदान करना इस आयोग का दायित्व था । इस आयोग ने अक्तूबर 1987 में अपनी रिपोर्ट पेश की | इस  आयोग ने केंद्र-राज्य संबंधों के  सुधार के लिए कुल  247 सिफारिशें प्रस्तुत कीं जिनमें से 180  सिफारिशें केंद्र सरकार द्वारा  लागू की जा  चुकी हैं । इसमें सबसे महत्वपूर्ण  है  1990 में केंद्र-राज्य परिषद का गठन । कुछ अन्य  महत्वपूर्ण सिफारिशें इस प्रकार हैं:

  1. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 263 के तहत एक स्थायी अंतर्राज्यीय परिषद हो जिसे अंतर-सरकारी परिषद कहा जाना चाहिए।
  2. अनुच्छेद 356 (आपात उपबंध जिसे सामान्य शब्दों में राष्ट्रपति शासन कहा जाता है) का प्रयोग  बहुत संभलकर  किया जाना चाहिए । इसका तभी प्रयोग  हो जब सभी उपलब्ध विकल्प समाप्त हो जाएं।
  3. अखिल भारतीय सेवाओं के संस्थान को और अधिक मजबूत बनाना चाहिए और ऐसी ही कुछ अन्य  सेवाओं का निर्माण किया जाना चाहिए जैसे अखिल भारतीय शिक्षा सेवा,अखिल भारतीय चिकित्सा सेवा,अखिल भारतीय विधि सेवा इत्यादो |
  4. कराधान (taxation)की शक्ति संसद में ही निहित रहनी चाहिए, जबकि अन्य शक्तियों को समवर्ती सूची में शामिल किया जाना चाहिए।
  5. जब राष्ट्रपति राज्य के किसी विधेयक को स्वीकृति के लिए आरक्षित करे तो इसका कारण राज्य सरकार को बताया जाना चाहिए।
  6. राष्ट्रीय विकास परिषद (N.D.C) का नाम बदलकर इसे राष्ट्रीय आर्थिक एवं विकास परिषद (N.E.D.C) किया जाना चाहिए।
  7. संघवाद को  प्रोत्साहित करने के लिए क्षेत्रीय परिषदें बनाई जानी चाहिए  ।
  8. केंद्र को बिना राज्य की स्वीकृति के सैन्य बलों की तैनाती की शक्ति प्राप्त होनी चाहिए यहां तक कि यह राज्यों की सहमति के बिना भी किया जा सकता है। तथापि यह वांछनीय है कि ऐसे मामलों में राज्यों से परामर्श किया जाए।
  9. समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाने से पहले  केंद्र को राज्य से परामर्श करना चाहिए।
  10. राज्यपाल की नियुक्ति पर मुख्यमंत्री की सलाह की व्यवस्था को स्वयं संविधान में निर्दिष्ट किया जाना चाहिए।
  11. निगम कर (Corporation tax) की कुल प्राप्तियों को राज्यों के साथ निश्चित सीमा में बांटा जाना चाहिए।
  12. राज्यपाल विधानसभा में बहुमत द्वारा गठित  सरकार को भंग नहीं कर सकता है।
  13. राज्यपाल के 5 वर्ष के कार्यकाल को बिना ठोस कारणों के अतिरिक्त बाधित नहीं किया जाना चाहिए।
  14. बिना संसद की मांग के किसी राज्यमंत्री के खिलाफ जांच आयोग नहीं बिठाया जाना  चाहिए।
  15. केंद्र द्वारा आयकर पर अधिभार उगाही नहीं करनी चाहिए सिवाय विशेष उद्देश्य और सीमित समय के लिए। 16. योजना आयोग और वित्त आयोग के बीच कार्यों का वर्तमान बंटवारा उचित एवं निरंतर होना चाहिए।
  16. त्रिभाषा, फॉर्मूला समान रूप से लागू करने की दिशा में कदम उठाना चाहिए।
  17. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया  के लिए स्वायत्तता नहीं होनी चाहिए लेकिन इनके कार्यों का विकेंद्रीयकरण होना चाहिए।
  18. राज्यों के पुनर्गठन पर राज्यसभा की भूमिका एवं केंद्र की शक्ति में परिवर्तन नहीं होने चाहिए।
  19. भाषागत अल्पसंख्यकों के लिए कमीश्नरी प्रारंभ करना चाहिए।
  20. राज्यपालों की नियुक्ति अनिवार्यतः निष्पक्ष होकर की जानी चाहिए।

केंद्र-राज्य संबंधों पर गठित अन्य समितियां व उनकी कुछ प्रमुख अनुशंसाएं  

प्रशासनिक सुधार आयोग : देश की प्रशासनिक जाँच तथा आवश्यकतानुसार प्रशासन में सुधार एवं पुनर्गठन के संबंध में सिफारिशें करने के लिए एक उच्चाधिकारयुक्त प्रशासनिक सुधार आयोग की स्थापना  1966 में  की गयी। इस प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग के अध्यक्ष मोरारजी देसाई थे। इसके अन्य 4  सदस्य थे- के. हनुमन्तैया, हरिश्चन्द्र माथुर, जी.एस. पाठक तथा एच. बी. कामथ। (2005 में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की स्थापना  की गई जिसके अध्यक्ष एम .वीरप्पा मोइली थे ) | प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग की कुछ मुख्य सिफारिशें निम्नवत थीं :

  1. संविधान के अनुच्छेद 263 के तहत एक अंतर्राज्यीय परिषद का गठन किया जाए।
  2. राज्यपाल के रूप में ऐसे  गैर-दलीय  व्यक्ति को नियुक्त किया जाए जिसका सार्वजनिक जीवन व प्रशासन में लंबा अनुभव हो।
  3. राज्यों को ज्यादा वित्तीय संसाधन स्थानांतरित कराए जाएं ताकि उनकी केंद्र पर निर्भरता कम रहे।
  4. राज्यों के अनुरोध  पर ही राज्य में केंद्रीय सशस्त्र बलों की तैनाती हो।

राजमन्नार समिति : 1969 में DMK के नेत्रित्व वाली तमिलनाडु सरकार ने डॉ. वी. पी. राजमन्नार की अध्यक्षता में केन्द्र-राज्य संबंधों की समीक्षा करने हेतु इस 3  सदस्यीय समिति का गठन किया । इस समिति की मुख्य सिफारिशें इस प्रकार थीं : 

  1. एक अंतर-राज्यीय परिषद का गठन किया जाये।
  2. योजना आयोग का स्थान एक सांविधि निकाय ले ।
  3. वित्त आयोग को एक स्थायी निकाय बना दिया जाये।
  4. राज्यपाल के प्रसादपर्यंत राज्य मंत्रिपरिषद के पद धारित करने का जो प्रावधान है, उसे समाप्त कर दिया जाये। 
  5. संघ सूची एवं समवर्ती सूची के कुछ विषयों को राज्य सूची में हस्तांतरित कर दिया जाये।
  6. राज्यों को अवशेषीय शक्तियां प्रदान की जायें। 

किंतु इस समिति की जो 2 सबसे महत्वपूर्ण सिफारिशें थीं वे थीं –

  1. अखिल भारतीय सेवाओं (I.A.S, I.P.S ,I.F.S) को समाप्त कर दिया जाये; तथा
  2. अनुच्छेद 356, 357 एवं 365 (राष्ट्रपति शासन से संबंधित) को पूर्णतया समाप्त कर दिया जाये।

सरकार ने इस समिति की सिफारिशों को नहीं स्वीकार किया |

आनंदपुर साहिब प्रस्ताव :  1973 में, अकाली दल, पंजाब के आनंदपुर साहिब में हुयी एक बैठक में राज्यों के  हितों के संबंध में एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमे कहा गया कि केन्द्र सरकार को केवल  रक्षा, विदेशी संबंध, संचार एवं मुद्रा के अतिरिक्त अन्य सभी विषय राज्यों को सौंप देने चाहिये। 

पश्चिम बंगाल स्मरण पत्र : 1977 में, पश्चिम बंगाल सरकार  ने केंद्र-राज्य संबंधों पर एक स्मरण पत्र (Memorandum) प्रकाशित किया जिसमें निम्नलिखित सुझाव दिये गये:

  1. केंद्र सरकार का कार्यक्षेत्र रक्षा, विदेशी मामले, संचार एवं आर्थिक समन्वय तक ही सीमित रहना चाहिये व अन्य सभी मामलों पर राज्यों को शक्ति दी जाये।
  2. अनुच्छेद 356, 357 एवं 360 (राष्ट्रपति शासन से संबंधित) को पूर्णतया समाप्त कर दिया जाये। 
  3. नये राज्यों के निर्माण एवं वर्तमान राज्यों के पुर्नगठन में राज्यों की सहमति अनिवार्य बनायी जाये।
  4. केंद्र द्वारा प्राप्त समस्त राजस्व का 75 प्रतिशत हिस्सा राज्यों को दिया जाये।
  5. राज्यसभा को लोकसभा के बराबर शक्तियां प्रदान की जायें। 
  6. अखिल भारतीय सेवाओं को समाप्त कर दिया जाए ।

एम.एम. पूंछी आयोग : 2007 में केंद्र सरकार ने केंद्र-राज्य संबंधों की समीक्षा के लिये उच्चतम न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश मदन मोहन पुंछी की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया | इस आयोग ने 2010 में अपनी रिपोर्ट पेश की | इस आयोग की कुछ उल्लेखनीय सिफारिशें इस प्रकार हैं :

  1. इस आयोग की सबसे महत्वपूर्ण सिफारिश यह थी कि इसने I.A.S, I.P.S एवं I.F.S जैसी अखिल भारतीय सेवाओं की ही तर्ज पर न्याय , शिक्षा ,चिकित्सा ,इंजीनियरिंग आदि के क्षेत्र में भी  ऐसी ही कुछ अन्य  सेवाओं के  निर्माण की सलाह दी  |
  2. समवर्ती सूची के विषयों पर कानून निर्माण के समय यह आवश्यक है कि राज्यों को भी विश्वास में लिया जाए। 
  3. केंद्र सरकार राज्य सूची के केवल उन्हीं विषयों पर कानून का निर्माण करें जो राष्ट्रीय हित में आवश्यक हो |
  4. संघवाद का वास्तविक अनुपालन किया जाए |
  5. राज्यपाल की नियुक्ति के समय यह ध्यान में रखा जाए कि वह राज्य से बाहर का कोई व्यक्ति हो | इससे यह सुनिश्चित किया जा सकता है  कि वह अपनी जिम्मेदारियों का निष्पक्षता से पालन करेगा | 
  6. राज्यपाल की नियुक्ति के समय सरकारिया आयोग के सुझावों को भी ध्यान में रखा जाए |
  7. महाभियोग की जो प्रक्रिया राष्ट्रपति को हटाए जाने में प्रयुक्त होती है उसी प्रक्रिया का राज्यपाल के संदर्भ में भी प्रयोग किया जाए |
  8. राज्यों के विधान मंडल चुनाव में के बाद अस्पष्ट बहुमत की स्थिति में सरकार निर्माण के समय लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का नियमों का उचित ढंग से पालन किया जाए |
  9. राज्यपालों को विश्व -विद्यालयों के कुलपति के रूप में कार्य करने अथवा वैधानिक पद धारण करने की परम्परा का अंत हो और उसकी भूमिका केवल संवैधानिक प्रावधनों तक ही सीमित हो |
  10. व्यवसाय कर कि वर्तमान हदबंदी को संविधान संशोधन के द्वारा समाप्त कर दिया जाए |

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