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जैसा कि हम जानते हैं “एड- हॉक” (Ad-hoc) अथवा ‘तदर्थ’ का अर्थ होता है ‘किसी विशेष मामले, परियोजना, या एक विशेष अवधि के लिए किसी व्यक्ति की किसी पद पर नियुक्ति । हमारे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 224- A एवं अनुच्छेद 127 के अंतर्गत उच्च न्यायालय में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है । इन्हें ही तदर्थ न्यायाधीश या ‘एड- हॉक’ जज कहते हैं । ये तदर्थ न्यायाधीश किसी विशेष मामले, परियोजना, या एक निश्चित अवधि के लिए ही  नामित होते हैं और अपनी सेवाएँ देते हैं । एक सामान्य पूर्ण कालिक  न्यायाधीश के विपरीत, एक तदर्थ न्यायाधीश एक निर्धारित अवधि के लिए सामान्य प्रक्रिया के माध्यम से चुना जाता है । इस लेख में हम UPSC परीक्षा के दृष्टिकोण से तदर्थ न्यायाधीशों की अवधारणा के बारे में चर्चा करेंगे । भारतीय राजनीति सिविल सेवा परीक्षा का एक अहम अंग है; उम्मीदवार लिंक किए गए लेख पर अंग्रेजी माध्यम में इस विषय पर जानकारी प्राप्त कर सकते हैं :  Appointment of Ad-Hoc Judges

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नोट : यूपीएससी परीक्षा की तैयारी शुरू करने से पहले अभ्यर्थियों को सलाह दी जाती है कि वे  UPSC Prelims Syllabus in Hindi का अच्छी तरह से अध्ययन कर लें, और इसके बाद ही अपनी तैयारी की योजना बनाएं।

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चर्चा में क्यों ? -अनुच्छेद 224- A

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले वर्ष भारत के संविधान के अनुच्छेद 224 -A का उपयोग करते हुए उच्च न्यायालयों में एड- हॉक न्यायाधीशों की नियुक्ति की मांग वाली याचिका पर आदेश सुरक्षित रखा था । भारत के मुख्य न्यायाधीश एस.ए बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा था कि मामले को खत्म नहीं किया जाएगा और निर्देशों की प्रकृति में अंतरिम आदेश पारित किया जाएगा । इस पीठ में न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति सूर्यकांत भी शामिल थे । यह पीठ ने उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या से निपटने के लिए अनुच्छेद 224- A के आह्वान की मांग को लेकर “लोक प्रहरी” नामक एक संगठन द्वारा दाखिल जनहित याचिका पर विचार कर रही थी ।

भारत में तदर्थ न्यायाधीश की अवधारणा

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 127 के अनुसार जब सर्वोच्च न्यायालय के सत्र को जारी रखने या आयोजित करने के लिए स्थायी न्यायाधीशों की एक न्यूनतम संख्या (कोरम) की आवश्यकता होती है, तो भारत के मुख्य न्यायाधीश एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को एक निर्दिष्ट समय के लिए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नामित कर सकते हैं । “इस प्रकार नामोदिष्ट न्यायाधीश का कर्तव्य होगा कि वह अपने पद के अन्य कर्तव्यों पर पूर्विकता देकर उस समय और उस अवधि के लिए, जिसके लिए उसकी उपस्थिति अपेक्षित है, उच्चतम न्यायालय की बैठकों में, उपस्थित हो और जब वह इस प्रकार उपस्थित होता है तब उसको उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की सभी अधिकारिता, शक्तियां और विशेषाधिकार होंगे और वह उक्त न्यायाधीश के कर्तव्यों का निर्वहन करेगा ।”

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश केवल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करने और राष्ट्रपति की पूर्व सहमति को स्वीकार करने के बाद ही ऐसा कर सकते हैं । इस पद के लिए चयनित न्यायाधीश को भारतीय सर्वोच्च न्यायालय में सेवा देने के योग्य होना चाहिए । यह न्यायाधीश की जिम्मेदारी है कि वह अपने अन्य दायित्वों से ऊपर सर्वोच्च न्यायालय के सत्रों में सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण भाग लेने के लिए नामित हो । ऐसा करते समय, भारत में तदर्थ न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की सभी शक्ति, अधिकार और लाभ और दायित्वों का वहन करता है । तदर्थ न्यायाधीशों के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कुछ सुझाव भी दिए हैं । सुप्रीम कोर्ट ने तदर्थ न्यायाधीश की नियुक्ति और कामकाज के लिए आगामी नीतियों का एक मसौदा भी  तैयार किया है जो अलिखित है । उदाहरण के लिए, यदि लम्बन एक विशिष्ट सीमा से आगे बढ़ता है, जैसे कि आठ या दस साल, किसी विशेष क्षेत्राधिकार में, मुख्य न्यायाधीश एक विशिष्ट [सेवानिवृत्त] न्यायाधीश को एक तदर्थ न्यायाधीश के रूप में नामित कर सकता है । इसके अलावा, तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति अन्य न्यायाधीशों के लिए कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं रखेगी क्योंकि तदर्थ न्यायाधीशों को कनिष्ठ स्तर के न्यायाधीशों के रूप में माना जाएगा ।

तदर्थ न्यायाधीशों की भूमिका

भारतीय न्याय व्यवस्था में तदर्थ न्यायाधीशों की अहम भूमिका है । पांच साल से अधिक पुराने मामले आमतौर पर तदर्थ न्यायाधीशों को सौंपे जाते हैं । इसके बावजूद, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के लिए ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए अपने विवेक का प्रयोग करना अनुचित नहीं होगा । तदर्थ न्यायाधीश और ‘सिटिंग जज’ की ‘डिवीजन बेंच’ के समक्ष सुनवाई के लिए आने वाले मामलों में डिवीजन बेंच का गठन होना जरूरी नहीं है । वर्तमान में, डिवीजन बेंच में केवल तदर्थ न्यायाधीश शामिल हो सकते हैं क्योंकि ये पिछले मामले हैं जिन्हें उन्हें सुनने की आवश्यकता है । इस तथ्य के कारण कि एक तदर्थ न्यायाधीश की भूमिका सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के कार्यों को करना है, एक तदर्थ न्यायाधीश के लिए कोई अन्य अनुमत कार्य करना उचित नहीं होगा ।

हालाँकि तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रणाली को सुव्यवस्थित करने की आवश्यकता है । न्यायलय में ऐसी रिक्तियों को भरा जाना चाहिए । तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक उचित समय सीमा निर्धारित की जानी चाहिए और सुझाव अग्रिम रूप से दिए जाने चाहिए । इसके अलावा, अखिल भारतीय न्यायिक सेवा संविधान भी एक महत्वपूर्ण कारक है जो भारत को एक निष्पक्ष न्यायिक प्रणाली स्थापित करने में सहायता कर सकता है । इसके साथ ही अब 

प्रौद्योगिकियों का उपयोग भी किया जाता है । व्यक्ति अपने विशेषाधिकारों के प्रति अधिक से अधिक जागरूक हो रहे हैं, इसलिए अदालत में दर्ज मामलों की संख्या भी बढ़ रही है । इसके अलावा, इससे निपटने के लिए, न्यायिक अधिकारियों को प्रशिक्षित होने की जरूरत है, न्यायाधीशों के लिए रिक्तियों को जल्दी से भरा जाना चाहिए, और प्रौद्योगिकी के उपयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ।

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