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वैदिक सभ्यता

वैदिक सभ्यता से तात्पर्य भारत में आर्यों द्वारा प्रारंभिक की गई सभ्यता से है जो कि  सिन्धु सभ्यता की समाप्ति के बाद शुरू हुई | आर्य प्रजाति जो कि वास्तव में एक भाषाई समूह है, भारत में बाहर से आई हुई  मानी जाती है | हालांकि यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि आर्य भारत में बाहर से ही आए या भारत के ही मूल निवासी थे या यदि आए भी तो दुनिया के किस क्षेत्र से आए; इस विषय में इतिहासकारों में मतभेद है | फिर भी  इतना स्पष्ट है कि वैदिक सभ्यता  का अध्ययन इसे दो भागों में विभाजित कर किया जाता है 1. पूर्व वैदिक काल, जिसे ऋग्वेदिक काल भी कहते हैं (क्योंकि इसी काल में ऋग्वेद की रचना हुई थी) जिसका तिथि निर्धारण साधारण तौर पर 1500 से 1000 ईसा पूर्व माना जाता  है ; और  2.उत्तर वैदिक काल जिसमें अन्य तीन वेदों -सामवेद ,यजुर्वेद व अथर्ववेद  की रचना हुई ; जिसका तिथि निर्धारण 1000 से 600 ईसा पूर्व किया गया है | इस लेख में आप पूर्व वैदिक काल एवं उत्तर वैदिक काल की राजनैतिक -सांस्कृतिक अवस्थाओं की जानकारी पा सकेंगे | अंग्रेजी माध्यम में वैदिक सभ्यता की जानकारी के लिए देखें Vedic Civilization  

उम्मीदवार लिंक किए गए लेख में आईएएस हिंदी के बारे में जानकारी पा सकते हैं ।

वैदिक साहित्य
1.ऋग्वेद यह कुल 1028 सूक्तों  का संग्रह है  जिन्हें ऋचा  कहते हैं | यह ऋचाएं  कुल 10 मंडलों अर्थात अध्याय में विभक्त हैं | इस प्रकार ऋग्वेद में कुल 10,462 ऋचाएं हैं ( यह चारों वेदों में प्राचीनतम है) 
2.सामवेद यह गाई  जा सकने वाली ऋचाओं  का संग्रह और इसके अधिकांश गीत ऋग्वेद से ही लिए गए हैं ( संगीत का जन्म सामवेद से हुआ है)
3.यजुर्वेद यह यज्ञ संबंधी सूत्रों का संग्रह है (यजुर्वेद की विशेषता यह है कि यह गद्य एवं पद्य दोनों में है)
4.अथर्ववेद  यह तंत्र -मंत्र, रोग- निवारण, जादू टोना इत्यादि  का संग्रह है (आयुर्वेद का जन्म  अथर्ववेद से ही हुआ है  और यह चारों वेदों में नवीनतम है)
नोट : महर्षि वेदव्यास को वेदों का रचयिता/संकलनकर्ता  माना जाता है 

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आर्यों के मूल निवास स्थान के सम्बन्ध में मत

जैसा की उपरोक्त वर्णित है ,यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि आर्य भारत में बाहर से ही आए या भारत के ही मूल निवासी थे या  दुनिया के किस क्षेत्र से आए | तथापि उन्होंने भारत में जिस सभ्यता की शुरुआत की उसे वैदिक सभ्यता के नाम से जानते हैं | आर्य सर्वप्रथम भारत के उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में आकर बसे जिसे  सप्त सैन्धव प्रदेश के नाम से भी जाना जाता है यह नाम सिन्धु और उसकी 6 सहायक नदियों  के कारण पड़ा   | इस क्षेत्र की सातों नदियों का उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है जो हैं –सिन्धु, सरस्वती, शतुद्रि (सतलज), विपासा (व्यास), परुष्णी (रावी), असिक्नी (चिनाब), और वितस्ता (झेलम) | ऋग्वेद में गंगा नदी का एक बार तथा यमुना नदी का तीन बार उल्लेख हुआ है | सरस्वती एवं दृष्द्धती नदियों के बीच का प्रदेश सबसे पवित्र माना  जाता था जिसे “ब्रह्मावर्त” कहा गया है | 

नीचे तालिका में आर्यों के मूल निवास स्थान के सम्बन्ध में विभिन्न जानकारों के मत दिए गये हैं ।

आर्यों के मूल निवास स्थान के सम्बन्ध में मत
मत मत के विचारक 
1.भारत मूल निवास (भाषायी प्रमाण एवं ऋग्वेद में वर्णित भूगोल का आधार) ब्रहर्षि देश गंगानाथ झा, ए सी दास, सम्पूर्णानन्द और अन्य
2.मध्य एशिया मूल निवास (ईरानी ग्रन्थ जेन्द अवेस्ता और ऋग्वेद में समानता, बोगजकोई अभिलेख में वैदिक देवताओं के नाम का आधार) मैक्समूलर और अन्य
3.हंगरी, ऑस्ट्रिया, बोहेमिया या डैन्यूब नदी की घाटी (वनस्पति एवं पशु-पक्षी के आधार पर) पी गाइल्स
4.जर्मनी और स्कैण्डिनेविया (शारीरिक गठन के आधार पर) पेन्का
5.दक्षिणी रूस (वानस्पतिक समानता के आधार पर) नेहरिंग
6.यूरोप मूल निवास (संस्कृत और यूरोपीय भाषाओं में समानता के आधार पर) सेसेटी, विलियम जोन्स
7.उत्तरी ध्रुव या आर्कटिक प्रदेश (लम्बे दिन-रात का वर्णन, हिमपात का तर्क) बाल गंगाधर तिलक
8.तिब्बत दयानन्द सरस्वती

 

वैदिक काल में प्रचलित 8 प्रकार के विवाह
1.ब्रह्म विवाह- यह विवाह का सर्वोत्तम प्रकार था जिसमें कन्या  का पिता एक योग्य वर  का चयन कर उसे आमंत्रित करता था ताकि उसे अपनी पुत्री प्रदान कर सके  2.दैव विवाह- इसके अंतर्गत कन्या का पिता एक यज्ञ का आयोजन करता था जिसमें बहुत से पुरोहित आमंत्रित किए जाते थे और  जो पुरोहित यज्ञ का अनुष्ठान विधि पूर्वक कराने में सक्षम होते थे उसी के साथ कन्या का विवाह किया जाता था 
3.प्रजापत्य विवाह- इस विवाह का प्रचलन केवल ब्राह्मणों में था | इसमें दोनों पक्षों से कहा जाता था कि वह मिलकर  अपने सामाजिक धार्मिक कर्तव्यों का निर्वहन करें  4.आर्य विवाह- इस विवाह में वधु के मूल्य के रूप में कन्या का पिता गाय अथवा बैल भेंट करता था 
5.गंधर्व विवाह- यह वस्तुतः प्रेम विवाह का ही एक रूप था जिसमें वर एवं वधू दोनों अपनी इच्छा से विवाह करते थे 6.असुर विवाह- इसमें कन्या का पिता धन लेकर कन्या का विवाह करता था 
7.राक्षस विवाह- इसमें कन्या का अपहरण कर उसके साथ विवाह किया जाता था  8.पिशाच  विवाह- वस्तुतः इसे विवाह कहा ही नहीं जाना चाहिए क्योंकि इसमें ऐसी अवस्था में कन्या से विवाह किया जाता था जब वह चेतना में ना हो 

वैदिक काल में प्रचलित   16 संस्कार 

1.गर्भाधान संस्कार: यह जीवन का प्रथम संस्कार था (शिशु की दृष्टि से ) | 

2.पुंसवन संस्कार: गर्भाधान के तीसरे माह में पुत्र प्राप्ति के निमित्त यह संस्कार किया जाता था | यह संस्कार चन्द्रमा के पुष्य नक्षत्र में होने पर किया जाता था |

3.सीमान्तोन्नयन संस्कार : इसके माध्यम से गर्भवती नारी की समृद्धि तथा भ्रूण की दीर्घायु की कामना की जाती थी |  इसके माध्यम से बुरी आत्माओं तथा प्रेतात्माओं से रक्षा तथा उनके भय को भी दूर किया जाता था | 

4.जातकर्म संस्कार: यह संस्कार  शिशु के जन्म के तत्काल बाद सम्पन्न होता था | सामान्यतः बच्चे के नाल काटने के पूर्व ही उसे किया जाता था | इसमें बच्चे को मधु तथा घृत चटाया जाता था, और फिर प्रथम बार शिशु को  स्तनपान कराया जाता  था |

5.नामकरण संस्कार:  बच्चे के जन्म के दसवें अथवा बारहवें दिन यह संस्कार होता था, जिसमें उसका नाम रखा जाता था। विष्णुपुराण में उल्लेख  है कि ब्राह्मण अपने नाम के अन्त में शर्मा, क्षत्रिय वर्मा, वैश्य गुप्त तथा शूद्र दास लिखते थे।

6.निष्कर्मण संस्कार: यह संस्कार  बच्चे के घर से पहली बार निकलने के अवसर पर किया जाता था | बच्चों के जन्म के तीसरे या चौथे माह में यह संस्कार होता था। 

7.अन्नप्रासन संस्कार : बच्चे के जन्म के छठे महीने में यह संस्कार सम्पन्न होता था, जिसमें प्रथम बार उसे “पका हुआ अन्न” खिलाया जाता था। इसका उद्देश्य यह था कि एक उचित समय पर बच्चा माँ का दूध पीना छोड़कर अन्न आदि से निर्वाह करने योग्य बन सके |

8.चूड़ाकरण या चौलकर्म संस्कार : इसे आमतौर पर मुंडन के नाम से जाना जाता है | इसमें पहली बार शिशु  के बाल काटे जाते थे। तीन वर्ष की अवस्था में सामान्यतः मुण्डन होता था। 

9.कर्णभेद संस्कार :  यह संस्कार पाँच वर्ष की अवस्था में होता था | यह विभिन्न प्रकार के रोगों से बचने हेतु आभूषण धारण करने के उद्देश्य से किया जाता था |

10.विद्यारम्भ संस्कार : इस संस्कार के माध्यम से शिशु को प्रथम बार  घरेलू विद्या एवं अक्षरों का बोध कराया जाता था | यह उपनयन संस्कार  से पूर्व होता था |

11.उपनयन संस्कार : इसका शाब्दिक अर्थ है, गुरु के समीप ले जाना। इस संस्कार के माध्यम से बालक सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी बन जाता था। इस संस्कार के पश्चात बालक “द्विज” हो जाता था | अर्थात उसका दूसरा जन्म होता था | इस संस्कार के बाद उसे  संयमी जीवन व्यतीत करना पड़ता था | वह यज्ञोपवीत धारण करता था | यह संस्कार केवल बालकों के लिए है ,बालिकाओं के लिए नहीं | बालक  इसके बाद  शिक्षा ग्रहण करने के योग्य हो जाता था | प्राचीन ग्रन्थों में उपनयन के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य हेतु क्रमशः 8, 10 एवं 12 वर्ष की आयु का निर्धारण किया जाता है। शुद्र के लिए भी यह संस्कार वर्णित नहीं है |

12.वेद आरंभ संस्कार:  इस संस्कार का आरंभ गायत्री मंत्र के उच्चारण के साथ वेदों के अध्ययन से होता था | 

13.केशांत संस्कार  अथवा गोदान संस्कार : गुरु के पास अध्ययन करते 16 वर्ष की अवस्था में प्रथम बार दाढ़ी-मूँछ बनवाई जाती थी, इसे केशांत संस्कार कहा जाता है। इस अवसर पर गुरु को एक गाय दक्षिणा स्वरूप दी जाती थी, इसी कारण इसे गोदान संस्कार भी कहा जाता है।

14.समावर्तन संस्कार :  इसका शाब्दिक अर्थ है, गुरु के आश्रम से स्वगृह को लौटना | इसे स्नान संस्कार  भी कहा गया है क्योंकि इस अवसर पर स्नान करने का विशेष महत्त्व था   | इसी के बाद विद्यार्थी “स्नातक” बनता था और उसकी शिक्षा पूर्ण होती थी | आज भी यह शब्द इसी रूप में प्रचलित है | समावर्तन संस्कार व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने की अनुमति देता था |

15.विवाह संस्कार :  इस संस्कार से गृहस्थ आश्रम का प्रारम्भ होता था | 

16.अन्त्येष्टि संस्कार : यह व्यक्ति का  अन्तिम संस्कार होता था जो की उसके निधन के बाद संपन्न होता था  | शास्त्रों के अनुसार ये सभी 16 संस्कार व्यक्ति के जीवन को सफल बनाते थे |

वैदिक काल में राजनैतिक ढांचा 

ऋग्वैदिक काल में आर्यों ने राजनीतिक एवं प्रशासनिक इकाइयों की  नींव डाल दी थी। कबीले अब ‘“जनों”” के रूप  में संगठित  होने लगे थे । ऋग्वैदिक काल में राजनीतिक दृष्टि से पांच इकाइयां प्रचलित थीं- ‘गृह’, ‘ग्राम’, ‘विश’, ‘जन’, और ‘राष्ट्र’। इनमें से ‘गृह’ सबसे छोटी इकाई थी और ‘राष्ट्र’ सबसे बड़ी । गृह का तात्पर्य  ‘कुल’ या  ‘परिवार’ से था । इसमें एक घर में, एक छत के नीचे, रहने वाले सभी लोग शामिल थे। यह सामाजिक व्यवस्था के साथ-साथ राजनीतिक व्यवस्था की भी सबसे छोटी  इकाई थी। इसके  मुखिया  को ‘कुलप’ या ‘गृहपति’ कहते थे। ‘कुलप’ या ‘गृहपति का पद वंशानुगत था। आमतौर पर  पितृसत्तात्मक परिवार में पिता की प्रधानता होती थी, किन्तु माताओं को भी पर्याप्त अधिकार प्राप्त होते थे। अनेक कुलों  के समूहों को मिलाकर ‘ग्राम‘ नामक इकाई का निर्माण होता था। ग्राम का प्रधान ‘ग्रामणी’ कहलाता  था । इसकी नियुक्ति के संबंध में पर्याप्त जानकारी नहीं मिलती। अनेक ग्रामों को मिलाकर ‘विश’ का निर्माण किया जाता था। ‘विश’ का प्रधान ‘विशपति’ कहलाता था ।  अनेक विशों का समूह ‘जन’ कहलाता था। ऋग्वेद में यादव जन, भरत जन आदि पंच जन का उल्लेख है । एक सम्पूर्ण राज्य के लिए ‘राष्ट्र’ शब्द प्रयुक्त होता था। ऋग्वेद में राष्ट्र के पर्यायवाची के रूप में ‘गण’ का भी उल्लेख है। राजा का पद सामान्यतः आनुवंशिक होता था, लेकिन कहीं-कहीं चुने गए राजा का उल्लेख भी मिलता है। हमें ऐसे गण-प्रमुखों का भी उल्लेख मिलता है जो जन सभा द्वारा लोकतंत्रात्मक पद्धति से चुने गए थे। राष्ट्र आमतौर पर छोटे-छोटे राज्य होते थे, जिनका शासक राजन् (राजा) कहलाता था । लेकिन सम्राट शब्द के प्रयोग से यह अनुमान लगाया जा सकता  है कि कुछ राजा अधिक बड़े होते होंगे  । संभवतः उनके अधीन कई छोट-छोटे राज्य होते थे और उनका प्रभुत्व अन्य राजाओं की तुलना में अधिक होता था। ऋग्वैदिक काल में राजा नियमित सेना नहीं रखता था। युद्ध के अवसर पर सेनायें विभिन्न कबीलों से एकत्र कर ली जाती थी। राजा, पुरोहित तथा अन्य पदाधिकारियों की सहायता से  प्रशासन चलाता था। राजा को उसकी सेवाओं के बदले राजस्व या भेंट दी जाती थी जिसे बलि कहते थे । ऋग्वेद में प्रमुख रूप से दो निकायों को अधिक महत्त्व दिया गया है, जिन्हें सभा और समिति कहा जाता था। इनकी संरचना  के विषय में निश्चित रूप से कोई जानकारी नहीं मिलती तथापि इतिहासकार मानते हैं कि समिति  के सदस्य आम लोग होते थे, जबकि सभा के सदस्य कुछ चुने हुए वृद्ध अथवा कुलीन जन होते थे । इन दो निकायों  के माध्यम से राष्ट्र के महत्त्वपूर्ण मामलों में जनता की राय ली जाती थी । लेकिन उत्तर वैदिक काल आते-आते राजनीतिक संस्थाओं में कई परिवर्तन देखने को मिले | राजा का पद अब  वंशानुगत हो गया | अब राजा “सर्व भूमि- पति” , “सम्राट”,  “एकराट”, “चक्रवर्ती” इत्यादि जैसे बड़ी बड़ी  उपाधियां भी धारण करने लगे |  अब बली के अतिरिक्त शुल्क और भाग भी कर के रूप में वसूले जाने लगे | बलि देना अनिवार्य कर दिया गया | अथर्व वेद के अनुसार आय का 16वां  भाग कर के रूप में लिया जाता था | उत्तर वैदिक काल में  पुरोहित, सेनानी एवं ग्रामिणी के अलावा संग्रहितृ (कोषाध्यक्ष), भागदुध (कर संग्रह करने वाला), सूत (राजकीय चारण, कवि या रथ वाहक), क्षतु, अक्षवाप (जुए का निरीक्षक) गोविकर्तन (आखेट में राजा का साथी) पालागल जैसे पदाधिकारियों  का उल्लेख प्राप्त होता है | “सचिव” नामक उपाधि का उल्लेख भी प्राप्त  है | 

वैदिक काल में सामाजिक स्थिति 

ऋग्वैदिक समाज चार वर्णों में विभक्त था । ये वर्ण थे : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । ब्राह्मण का मुख्य कार्य पूजा-पाठ यज्ञ अध्ययन- अध्यापन तथा दान लेना इत्यादि था | क्षत्रिय मुख्य रूप से योद्धा वर्ग था जो प्रशासन का कार्य देखते थे | वैश्य कृषि व्यापार- वाणिज्य इत्यादि से संबंधित कार्य करते थे और शूद्र सेवा प्रदान करने का कार्य करते थे | समाज का यह वर्गीकरण अनुवांशिक ना होकर व्यक्ति के व्यवसाय यानी काम पर आधारित था । उत्तर वैदिक काल आते आते यह वर्णाश्रम व्यवस्था अपने सबसे मजबूत स्वरूप में आ गई | इसी काल में गोत्र की अवधारणा भी उजागर हुई | एक ही मूल पुरुष से उत्पन्न व्यक्ति एक गोत्र के कहे जाने लगे | मौलिक रूप से गोत्रों की संख्या  7 बताई गई :  कश्यप, वशिष्ठ, भृगु, गौतम, भारद्वाज, अत्रि, एवं विश्वामित्र | अगस्त को आठवां गोत्र माना जाता है | इस युग की दूसरी विशेषता थी “आश्रम व्यवस्था” | आश्रम व्यवस्था के चार चरण बताए गए हैं :  पहला, ब्रह्मचर्य -जन्म से 25 वर्ष तक | यह विद्या- अर्जन एवं बौद्धिक विकास से संबंधित था | दूसरा, गृहस्थ आश्रम, जो 25 वर्ष से प्रारंभ होकर 50 वर्ष तक रहता था | इस दौरान व्यक्ति द्वारा महत्वपूर्ण पारिवारिक- सामाजिक उत्तरदायित्व का वाहन किया जाता था | तीसरा, वानप्रस्थाश्रम -50 से 75 वर्ष तक | यह पारलौकिक जीवन से संबंधित था एवं अंतिम चरण  सन्यास था जो  75 वर्ष के उपरांत का जीवन था | इस अवस्था में मनुष्य संसार का त्याग कर एक सन्यासी जीवन व्यतीत करता था |इस युग में लोगों द्वारा  व्यवसाय चुने जाने का आधार अपनी योग्यता तथा पसंद था , न कि जन्म या आनुवंशिक रूप से, जैसे कि आगे चलकर अपनाए जाने लगे थे। एक ही परिवार के लोगों द्वारा  इच्छानुसार अलग-अलग पेशा या व्यवसाय अपनाए जाने के उदाहारण मिलते हैं |  जैसा कि ऋग्वेद के  सूक्त  9. 112  में एक व्यक्ति कहता है :

“मैं कवि/गायक हूँ; पेरे पिता वैद्य हैं; मेरी माता चक्की चलाने वाली है; भिन्न-भिन्न व्यवसायों से जीविकोपार्जन करते हुए हम एक साथ रहते हैं; जैसे पशु (अपने बाड़े में) रहते हैं।”

इस युग में  एक -विवाह प्रथा प्रचलित थी | बालविवाह का प्रचलन नहीं था | विवाह के लिए वरण की स्वतंत्रता का भी कहीं-कहीं उल्लेख मिलता है। विधवा स्त्री अपने मृतक पति के छोटे भाई (देवर) से विवाह कर सकती थी । पिता की संपत्ति साधारणत: उत्तराधिकार में पुत्र को प्राप्त होती थी। किंतु  यदि कोई पुत्री  अपने माता-पिता की एकमात्र संतान होती थी तब यह संपत्ति उसे प्राप्त होती थी । ऋग्वेदिक काल में स्त्रियों की स्थिति सम्मानजनक थी | ऋग्वैदिक काल में बाल विवाह नहीं होते थे, प्राय: 16–17 वर्ष की आयु में विवाह होते थे | पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। सती प्रथा का भी प्रचलन नहीं था | हालाँकि स्त्रियों को राजनीति में भाग लेने का अधिकार नहीं था | उन्हें शिक्षा  दी जाती थी | अपाला, लोपामुद्रा, विश्ववारा, घोषा आदि नारियों के मन्त्र द्रष्टा होकर ऋषिपद प्राप्त करने का उल्लेख प्राप्त होता है | लेकिन उत्तर वैदिक काल में महिलाओं की सामाजिक स्थिति में गिरावट आई | अब सभा व समिति में उन्हें प्रवेश का अधिकार नहीं रहा | पुत्रों की तुलना में पुत्रियों को संपत्ति से वंचित किया जाने लगा तथा कई बार तो पुत्रियों के जन्म को भी हतोत्साहित किया गया | लोग मिट्टी एवं घास फूस से बने मकानों में रहते थे | ऋग्वेदकालीन संस्कृति ग्राम–प्रधान थी | नगरीकरण  ऋग्वेद काल की विशेषता नहीं है | ऋग्वैदिक काल में दास प्रथा विद्यमान थी |

वैदिक कालीन सूत्र साहित्य 

1.कल्पसूत्र : विधि एवं नियमों का प्रतिपादन |

2.श्रौतसूत्र : यज्ञ से संबंधित विस्तृत विधि-विधानों की व्याख्या |

3.शुल्बसूत्र : यज्ञ स्थल तथा अग्नि वेदी के निर्माण तथा माप से संबंधित नियम,जिसमें भारतीय ज्यामिति अपने     प्रारंभिक रूप दिखाई देती  है |

4.धर्मसूत्र : सामाजिक-धार्मिक कानून तथा आचार संहिता  |

5.ग्रह सूत्र : मनुष्य के लौकिक एवं पारलौकिक कर्तव्य | 

वैदिक काल में  आर्थिक जीवन  

ऋग्वैदिक काल में आर्थिक जन-जीवन मुख्यतः  कृषि, पशुपालन और वाणिज्य एवं व्यापार पर निर्भर था । गायें, भेड़-बकरियाँ, गधे, कुत्ते, भैंसे आदि उपयोगी पालतू पशु थे | हल जोतने और गाड़ी खींचने में बैलों का उपयोग किया जाता था और रथ खींचने में घोड़े उपयोग में लाये  जाते थे। कृषि में  खाद का भी प्रयोग किया जाता था,ऐसे प्रमाण मिले हैं । ऋग्वेद के कई प्रसंगों से ऐसा प्रतीत होता है कि सिंचाई की प्रथा भी थी | खाद्यान्नों को सामूहिक रूप से यव और धान्य कहा जाता था। वैदिक साहित्य  में दस प्रकार के अन्न उगाए जाने का उल्लेख है। अन्य व्यवसायों में मिट्टी के बर्तन बनाना, बुनाई, बढ़ईगीरी, धातु का काम, चमड़े का काम आदि उल्लेखनीय हैं। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है की ऋग्वैदिक काल में धातु के तौर पर केवल ताँबे का ही प्रयोग  होता था, जिसे अयस् कहा जाता था | बाद में  लोहा प्रचलन में आया जिसे  श्याम अयस् कहा जाने लगा। ऋग्वैदिक काल में वाणिज्य-व्यापार होता था और व्यापारियों को वणिक कहा जाता था। लेन-देन में वस्तु-विनिमय की प्रणाली प्रचलित थी। साहूकारी, यानी ब्याज पर धन उधार देने की प्रथा  भी  प्रचलित थी। उत्तर वैदिक काल आते आते कृषि ने  पशुपालन की जगह मुख्य पेशे  का स्थान ग्रहण कर लिया | 

वैदिक काल में  धर्म व दर्शन  

ऋग्वैदिक काल में साधारणतया प्राकृतिक शक्तियों की ही विभिन्न देवताओं के रूप में पूजा की जाती थी | ऋग्वेद में मन्दिर अथवा मूर्तिपूजा का उल्लेख नहीं है | तथापि कर्मकाण्ड का विशेष महत्त्व था   | देवतों  की आराधना मुख्यत: स्तुतिपाठ एवं यज्ञाहुति से की जाती थी | वैदिक देवताओं को स्थान के अनुसार  तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है । 1.पृथ्वी  – स्थानीय देवगण, 2.अंतरिक्ष-स्थानीय देवगण और 3.वायु  -स्थानीय देवगण । पृथ्वी, अग्नि, सोम, बृहस्पति और नदियाँ प्रथम श्रेणी में आती हैं; इंद्र, अपाम्-नपात, रुद्र, वायु-वात, पर्जन्य और आपः द्वितीय श्रेणी के देवगण हैं; और वरुण, मित्र, सूर्य, सावित्री, पूषन्, विष्णु, आदित्य, उषा  और अश्विन् तृतीय श्रेणी में आते हैं | इंद्र और वरुण को इन देवगणों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, वे बाकी सबसे बड़े माने गए हैं। इंद्र का स्थान सभी देवताओं में सर्वोच्च था | मुख्यता यह युद्ध के देवता माने जाते थे | ऋग्वेद के 250 सूत्र अकेले इंद्र को ही समर्पित हैं | अग्नि और सोम भी लोकप्रिय देवता थे | सोम वनस्पति के देवता थे जबकि अग्नि को पृथ्वी और स्वर्ग के बीच संदेशवाहक के रूप में आदर दिया जाता था । वे मनुष्य द्वारा दिए गये चढ़ावे को देवता तक ले जाने का कार्य करते थे | इसके अलावा, अग्नि ही ऐसे एकमात्र  देवता थे  जो देवताओं की तीनों श्रेणियों में विद्यमान थे  |  देवताओं की उत्पत्ति तो मानी गई है किंतु अंत नहीं |  वे अमर माने गये थे अर्थात् उनकी मृत्यु नहीं हो सकती। उनका रूप मनुष्य जैसा होता है | हालांकि कुछ देवताओं को पशुरूप में भी माना जाता है; जैसे- द्यौस् को वृषभ | 

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