चोरी चोरा कांड के बाद महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था। महात्मा गांधी के इस कदम से कांग्रेस का एक धड़ा असंतुष्ट था और वह महात्मा गांधी की विचारधारा व कांग्रेस के तत्कालीन पक्ष से सहमत नहीं था। वस्तुतः इस समय कांग्रेस चाहती थी कि देश में असहयोग आंदोलन के स्थगन के बाद रचनात्मक कार्यों को बढ़ावा दिया जाए, लेकिन कांग्रेस का दूसरा गुट यह चाहता था कि 1919 के भारत शासन अधिनियम के आधार पर होने वाले चुनावों में भाग लिया जाए तथा विधान परिषदों में जाकर सरकार के कार्यों में अड़चन पैदा की जाए। उनके दृष्टिकोण से यह असहयोग आंदोलन को ही आगे विस्तृत करने का एक तरीका था, लेकिन महात्मा गांधी का समर्थक गुट इस पक्ष से सहमत नहीं था और वह चुनावों में सहभागिता करके विधान परिषद में भागीदारी करने के पक्ष में नहीं था।
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इसी बीच, दिसंबर 1922 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन वर्तमान बिहार के गया में आयोजित किया गया। इस अधिवेशन की अध्यक्षता देशबंधु चितरंजन दास द्वारा की गई थी, जबकि मोती लाल नेहरू इस अधिवेशन के महामंत्री थे। मोती लाल नेहरू ने इस अधिवेशन के दौरान एक प्रस्ताव रखा कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को चुनाव में भाग लेकर विधान परिषद में प्रवेश करना चाहिए और विधान परिषद में प्रवेश करके सरकार की नीतियों का विरोध करना चाहिए। लेकिन महात्मा गांधी के समर्थक सरदार वल्लभभाई पटेल, डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे लोगों ने इस प्रस्ताव का तीखा विरोध किया और यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका।
इस घटना के परिणाम स्वरूप विधान परिषद में प्रवेश करने के समर्थक चितरंजन दास व मोती लाल नेहरू ने अपने पदों से इस्तीफा दे दिया और ‘कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी’ के गठन की घोषणा की। चितरंजन दास इस नवगठित स्वराज पार्टी के अध्यक्ष बने और मोती लाल नेहरू को इसका सचिव बनाया गया।
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परिवर्तनवादी समूह
- कांग्रेस के वे लोग, जो चुनाव लड़ कर विधान परिषद में प्रवेश करना चाहते थे, उन्हें परिवर्तनवादी या परिवर्तन समर्थक के नाम से जाना गया। ये लोग विधान परिषदों में प्रवेश करके सरकार की औपनिवेशिक नीतियों को बाधित करना चाहते थे और सरकार की शोषणमूलक कार्यवाही में रुकावट डालना चाहते थे।
- परिवर्तनवादी समूह में मुख्य रूप से चितरंजन दास, मोती लाल नेहरू, एन. सी. केलकर, मदन मोहन मालवीय, श्रीनिवास आयंगर, विट्ठल भाई पटेल आदि नेता शामिल थे।
- इनका तर्क था यदि कांग्रेस विधान परिषद में प्रवेश किए बिना ही सरकार का विरोध करती रहेगी, तो कांग्रेस विरोधी लोग सरकार के उच्च पदों पर आसीन हो जाएंगे और वे गैरकानूनी कार्यों को कानूनी तरीके से करने की शक्ति प्राप्त कर लेंगे। इसीलिए कांग्रेस को विधान परिषद में प्रवेश करके अपने आंदोलन को और अधिक मजबूत करना चाहिए।
अपरिवर्तनवादी समूह
- कांग्रेस के वे लोग, जो विधान परिषदों में प्रवेश करने के विरोधी थे तथा महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यों के माध्यम से जनता को संगठित करना चाहते थे और आंदोलन को देश के दूर सुदूर के क्षेत्रों में विस्तृत करना चाहते थे, उन्हें अपरिवर्तनवादी समूह या परिवर्तन विरोधी के नाम से जाना गया।
- अपरिवर्तनवादी समूह में मुख्य रूप से महात्मा गांधी के समर्थक नेता चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, सरदार वल्लभभाई पटेल, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, जमनालाल बजाज, गंगाधर राव जैसे नेता शामिल थे।
- इनका तर्क मुख्य रूप से था कि विधान परिषद में प्रवेश करने के बाद कांग्रेस अपने मूल उद्देश्य से भटक जाएगी और धीरे-धीरे विधान परिषद में प्रवेश कर चुके नेता भी औपनिवेशिक नीतियों का समर्थन करने लग जाएंगे। इसीलिए विधान परिषद में प्रवेश करना देश हित में नहीं है।
स्वराज पार्टी और कांग्रेस में सुलह
- वर्ष 1923 में दिल्ली में कांग्रेस का एक विशेष अधिवेशन आयोजित हुआ। इसकी अध्यक्षता मौलाना अबुल कलाम आजाद ने की थी। इस दौरान स्वराज पार्टी एवं उसके कार्यक्रमों को कांग्रेस के अंतर्गत मान्यता प्रदान कर दी गई थी। इसके अलावा, वर्ष 1923 में ही कांग्रेस का काकीनाडा में वार्षिक अधिवेशन आयोजित हुआ और इस दौरान कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को चुनाव लड़ने व चुनाव में मतदान करने की अनुमति भी प्रदान कर दी गई थी। इस प्रकार, कांग्रेस वर्ष 1907 के जैसे एक और विभाजन से बच गई।
- इसके बाद स्वराज पार्टी ने अपना चुनावी घोषणा पत्र जारी किया और उसमें इस बात के लिए प्रतिबद्धता जाहिर की कि वह केंद्रीय और प्रांतीय दोनों ही विधान मंडलों में भागीदारी करके सरकार के कामकाज को बाधित करेगी।
स्वराज पार्टी की प्रमुख उपलब्धियां
- वर्ष 1923 में आयोजित हुए चुनावों में स्वराज पार्टी ने केंद्रीय विधान मंडल की कुल 101 सीटों में से 42 सीटों पर जीत दर्ज की थी।
- इसके अलावा, प्रांतीय विधान मंडलों के चुनाव में स्वराज पार्टी ने मध्य प्रांत में पूर्ण बहुमत प्राप्त किया था, जबकि बंगाल में वह सबसे बड़े दल के रूप में सामने आई थी। स्वराज पार्टी को उत्तर प्रदेश और बंबई प्रांतों में भी संतोषजनक सफलता प्राप्त हुई थी।
- वर्ष 1925 में विट्ठल भाई पटेल केंद्रीय विधान परिषद के अध्यक्ष चुने गए।
- स्वराज पार्टी के लोग कपास पर लगे उत्पादक शुल्क को समाप्त करवाने तथा नमक कर में कटौती करवाने में सफल रहे थे।
- ब्रिटिश सरकार भारत में बढ़ते रूस के साम्यवादी प्रभाव तथा भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने के लिए ‘सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक’ लाना चाहती थी, लेकिन वर्ष 1928 में स्वराजवादियों के तीखे विरोध के कारण यह विधेयक पारित नहीं हो सका और इस मुद्दे पर ब्रिटिश सरकार की पराजय हुई।
- इसके अलावा, स्वराज पार्टी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा संवैधानिक सुधार के नाम पर वर्ष 1919 में लाए गए मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड अधिनियम के खोखलेपन को भी उजागर कर दिया था।
- स्वराजियों ने मानव अधिकार, नागरिक स्वतंत्रता, स्वशासन जैसे मुद्दों पर पुरजोर आवाज उठाई तथा मजदूरों के अधिकारों को मजबूत करने के लिए भी अनेक कार्य किए।
स्वराज पार्टी का विघटन
- जून 1925 में देशबंधु चितरंजन दास की मृत्यु हो गई थी। इसके बाद से स्वराज पार्टी निरंतर कमजोर होने लगी थी। सांप्रदायिकता, उत्तरदायित्व इत्यादि विभिन्न मसलों पर स्वराज पार्टी में अनेक गुट बनने लगे थे। चितरंजन दास की मृत्यु के बाद ये गुट अधिक प्रभावी हो गए और इन्होंने या तो स्वराज पार्टी छोड़ दी या फिर किसी नए दल का गठन कर लिया। उदाहरण के लिए, मोतीलाल नेहरू से रुष्ट होकर लाला लाजपत राय और मदन मोहन मालवीय ने स्वराज पार्टी से त्यागपत्र दे दिया था।
- स्वराज पार्टी में उपजी इस संकट की स्थिति के परिणाम स्वरूप कांग्रेस का नेतृत्व फिर से महात्मा गांधी के हाथों में आ गया था। इस प्रकार, स्वराज पार्टी अपने उद्देश्यों में पूर्णतया सफल तो नहीं हो सकी थी, लेकिन उसने कांग्रेस को विधान परिषद के भीतर प्रवेश करके विरोध करने के लिए तैयार कर लिया था। इससे राष्ट्रीय आंदोलन के अगले चरणों को अधिक प्रभावी बनाने में काफी सहायता मिली।
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