संविधान के अनुच्छेद 12-35 (भाग -III) मूल अधिकारों से संबंधित हैं । अनुच्छेद 13 यह घोषणा करता है कि “मूल अधिकारों से असंगत या उन्हें कम करने वाली विधियाँ शून्य होंगी” । अर्थात ये विधियाँ न्यायिक समीक्षा के योग्य है । यह उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों को शक्ति प्रदान करता है जिनके आधार पर मूल अधिकारों से असंगत विधियों को वे अवैध घोषित करते हैं । यह न्यायालय को नागरिकों के मूल अधिकारों का प्रहरी बनाता है । अनुच्छेद 13 यह भी घोषणा करता है कि चूँकि संविधान संशोधन कोई कानून नहीं है, अतः उसे न्यायलय में चुनौती नहीं दी जा सकती । लेकिन 1973 के केशवानंद भारती वाद में उच्चतम न्यायलय ने इसे पलट दिया ।
अनुच्छेद 13 में निम्न उपबंध किये गए हैं:
अनुच्छेद -13 (1) : इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले भारत के राज्यक्षेत्र में प्रवृत्त सभी विधियाँ उस सीमा तक शून्य होंगी जिस तक वे इस भाग के उपबंधों से असंगत हैं।
अनुच्छेद -13 (2) : राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है और इस खंड के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की सीमा तक शून्य होगी ।
अनुच्छेद -13 (3) : इस अनुच्छेद में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो,-
(क) ”विधि” के अंतर्गत भारत के राज्यक्षेत्र में विधि का बल रखने वाला कोई अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, विनियम, अधिसूचना, रूढ़ि या प्रथा है ;
(ख) ”प्रवृत्त विधि” के अंतर्गत भारत के राज्यक्षेत्र में किसी विधान-मंडल या अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वारा इस संविधान के प्रारंभ से पहले पारित या बनाई गई विधि है जो पहले ही निरसित नहीं कर दी गई है, चाहे ऐसी कोई विधि या उसका कोई भाग उस समय पूर्णतया या विशिष्ट क्षेत्रों में प्रवर्तन में नहीं है ।
अनुच्छेद -13 (4) : इस अनुच्छेद की कोई बात अनुच्छेद 368 के अधीन किए गए इस संविधान के किसी संशोधन को लागू नहीं होगी ।
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