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भारत की प्रमुख मंदिर वास्तुकला शैलियां

भारत एक समृद्ध सांस्कृति विरासत और विविधताओं वाला देश है। यहां के मंदिर वास्तुकला से समृद्ध है। जिसकी शुरूआत सिंधु घाटी सभ्यता के बाद से मानी जाती है। भारत के मंदिर और अन्य वास्तुकलाओं में स्वदेशी सांस्कृतिक परंपराओं, सामाजिक आवश्यकताओं और आर्थिक समृद्धि की झलक दिखाई देती है। इसलिए यहां की वास्तुकला का अध्ययन भारत की विभिन्न सांस्कृतिक विविधताओं को प्रकट करता है। भारत की अधिकांश प्राचीन कलाओं को धर्म द्वारा प्रोत्साहित किया जाता रहा है। इस लेख में हम आपको भारत के मंदिरों की स्थापत्य कला की प्रमुख शैलियों के बारे में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं।

यूपीएससी 2023 परीक्षा की तैयारी करने वाले उम्मीदवारों के लिए भारतीय कला और संस्कृति एक कठिन विषय माना जाता है। इसमें प्राचीन भारत, मध्यकालीन भारत और करेंट अफेयर्स के प्रश्नों का मिश्रण होता है। प्राचीन और मध्यकालीन भारत की पुरानी एनसीईआरटी पुस्तकें यूपीएससी और आईएएस प्रारंभिक परीक्षा 2023 के लिए बुनियादी और आवश्यक पठनीय पुस्तकें है। उम्मीदवार संदर्भ के लिए एनसीईआरटी की कला और विरासत पुस्तकों का भी उपयोग कर सकते हैं। 

आईएएस परीक्षा 2023 की तैयारी करने वाले उम्मीदवार भारत की प्रमुख मंदिर वास्तुकला शैलियों के बारे में अधिक जानने के लिए इस लेख को ध्यान से पढ़ें। इस लेख में हम आपको भारत की प्रमुख मंदिर वास्तुकला शैलियों के बारे में विस्तार से बताएंगे। भारत की प्रमुख मंदिर वास्तुकला शैलियों के बारे में अंग्रेजी में पढ़ने के लिए Major Indian Temple Architecture Styles पर क्लिक करें।

गुप्त काल की वास्तुकला

भारतीय उपमहाद्वीप में चौथी शताब्दी में गुप्त साम्राज्य के उदय के साथ ही एक नए युग प्रारंभ हुआ, जिसे गुप्त काल के नाम से भी जाना जाता है। भारत में गुप्त काल में कला, साहित्य और वास्तुकला के क्षैत्र में अत्यधिक विकास हुआ। इस काल की मंदिर वास्तुकला और मूर्ति कला तकनीकी और कला से परिपूर्ण थी। ईंट, चूना और पत्थर से मंदिर निर्माण का चलन गुप्त काल से ही शुरू हुआ था।

गुप्त युग ने मंदिर वास्तुकला के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय जोड़ा। भारत में शिल्पशास्त्र जैसे वास्तु ग्रंथ इसी काल में लिखे गए थे। इसमें मंदिर स्थापत्य कला की 3 प्रमुख शैलियों का उल्लेख है। नीचे गुप्त काल की प्रमुख मंदिर शैलियों के बारे में विस्तार से जानकारी दी जा रही है।

  • नागर वास्तुशैली
  • द्रविड़ वास्तुशैली
  • वेसर वास्तुशैली

नागर शैली क्या है?

नागर शैली हिमालय और विंध्य के बीच की भूमि से जुड़ी है और भारत के उत्तरी भागों में क्षेत्रीय रूप से विकसित हुई है। नागर शैली में ‘नागर’ शब्द की उत्पत्ति नगर से हुई मानी जाती है। इस शैली में, संरचना में दो इमारतें शामिल हैं, मुख्य लंबा मंदिर और एक निकटवर्ती मंडप जो छोटा है। इन दोनों इमारतों के बीच सबसे बड़ा अंतर शिखर के आकार का है। इस शैली के मुख्य मंदिर में, घंटी के आकार की संरचना जोड़ी जाती है।   

नागर शैली के अंग 

खजुराहो के मन्दिर नागर शैली में निर्मित हैं। इस शैली का प्रसार हिमालय से लेकर विंध्य पर्वत माला तक देखा जा सकता है। वास्तुशास्त्र के अनुसार नागर शैली के मंदिरों की पहचान, आधार से लेकर सर्वोच्च अंश तक इसका चतुष्कोण होना है। पुर्णतः विकसित नागर मंदिर में गर्भगृह, उसके समक्ष क्रमशः अन्तराल, मण्डप तथा अर्द्धमण्डप प्राप्त होते हैं। एक ही अक्ष पर एक दूसरे से संलग्न इन भागों का निर्माण किया जाता है। 

शिल्पशास्त्र के अनुसार नागर मंदिरों के आठ प्रमुख अंग है –

  • मूल आधार – जिस पर सम्पूर्ण भवन खड़ा किया जाता है।
  • मसूरक – नींव और दीवारों के बीच का भाग
  • जंघा – दीवारें (विशेषकर गर्भगृह की दीवारें)
  • कपोत – कार्निस
  • शिखर – मंदिर का शीर्ष भाग अथवा गर्भगृह का उपरी भाग
  • ग्रीवा – शिखर का ऊपरी भाग
  • वर्तुलाकार आमलक – शिखर के शीर्ष पर कलश के नीचे का भाग
  • कलश – शिखर का शीर्षभाग

नागर शैली के मंदिर मुख्य रूप से चार कक्षों से बने होते हैं। वो हैं –

  • गर्भगृह
  • जगमोहन
  • नाट्यमंदिर
  • भोगमंदिर

नागर शैली की दो विशिष्ट विशेषताएं इसकी योजना और उन्नयन हैं। योजना वर्गाकार है जिसमें प्रत्येक पक्ष के बीच में कई क्रमिक अनुमान हैं जो इसे एक क्रूसिफ़ॉर्म आकार प्रदान करते हैं। इसके चार प्रक्षेपण प्रकार हैं। जहां हर तरफ एक प्रक्षेपण- ‘त्रिरथ’, ‘पंचरथ’, ‘सप्तरथ’, ‘नवरथ’ । यह शिखर-A टॉवर को ऊंचाई में प्रदर्शित करता है, जो उत्तल वक्र में उत्तरोत्तर झुका हुआ होता है। योजना में अनुमानों को शिखर के ऊपर की ओर भी ले जाया जाता है। मूल रूप से नागर शैली में कोई स्तंभ नहीं थे। 

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द्रविड़ शैली क्या है ?

9वीं-12वीं शताब्दी ईस्वी के बीच चोल साम्राज्य के दौरान द्रविड़ शैली दक्षिण में विकसित हुई। इसे कृष्णा और कावेरी नदियों के बीच के क्षेत्र में देखा जाता है। तमिलनाडु व निकटवर्ती क्षेत्रों में बने अधिकतर मंदिर द्रविड़ शैली में ही बने हुए हैं। द्रविड़ मंदिर स्थापत्य की दो सबसे महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं –

गर्भगृह में मंदिरों की 4 से अधिक भुजाएं होती हैं। टावर या विमान पिरामिडनुमा होते हैं। 

द्रविड़ शैली

इस शैली में मंदिर का आधार भाग वर्गाकार होता है तथा गर्भगृह के ऊपर का शिखर भाग प्रिज्मवत् या पिरामिडनुमा होता है। इन मंदिरों में क्षैतिज विभाजन लिए अनेक मंजिलें होती हैं। 

द्रविड़ शैली के मंदिरों के शिखर के ऊपरी हिस्से पर कलश की जगह स्तूपिका बनी होती है। इस शैली के मंदिर काफी ऊंचे होते हैं और उनका प्रांगण भी बहुत बड़ा होता है, जिनमें कई कक्ष, जलकुण्ड और छोटे मंदिर बने होते हैं। 

इन मंदिरों के प्रवेश द्वार को गोपुरम कहा जाता है। इनके प्रांगण में विशाल दीप स्तंभ व ध्वज स्तंभ के साथ कल्याणी या पुष्करिणी के रूप में जलाशय होते हैं।

द्रविड़ शैली के मंदिर के गर्भगृह के ऊपर बनी कई मंजिलों को विमाना कहा जाता है। इस स्थापत्य शैली में स्तंभों और खंबों का बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता है। द्रविड़ शैली के मंदिरों में भक्तों को प्रदक्षिणा करने के लिए गर्भगृह (मुख्य देवता का कमरा) के चारों ओर गोलाकार मार्ग बना होता है। इमसें सजावटी नक्काशीदार खंभों वाला एक स्तंभों वाला मंडप हॉल भी होता है। इसकी संरचना ऊंची दीवारों से घिरे एक प्रांगण के भीतर होती है। कैलाशनाथ मंदिर द्रविड़ वास्तुकला का एक प्रमुख उदाहरण है।

कैलाशनाथ मंदिर

कैलाशनाथ मंदिर, कांचीपुरम में स्थित है। इसे दक्षिण भारत के सबसे शानदार मंदिरों में से एक माना जाता है। कैलाशनाथ मंदिर कांचीपुरम का सबसे प्राचीन मंदिर होने के साथ-साथ द्रविड़ स्थापत्य कला का एक अद्भुत नमुना भी है। इस मंदिर का निर्माण पल्लव वंश के राजा नरसिंहवर्मन द्वितीय (राजसिंह) ने अपनी पत्नी के आग्रह पर करवाया था। इसका निर्माण आठवीं शताब्दी में हुआ था। इसे राजसिंह के पुत्र महेन्द्र वर्मन तृतीय ने बनवाया था। इसमें देवी पार्वती और शिव की नृत्य प्रतिमाएं हैं।

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वेसर शैली क्या है?

वेसर शैली, कृष्णा नदी और विंध्य के बीच के क्षेत्र की मंदिर निर्माण शैली है जो प्रारंभिक मध्यकाल के दौरान उभरी थी। इस शैली के कई मंदिर मध्य भारत और दक्कन के क्षेत्रों में बनाए गए थे। यह मंदिर वास्तुकला की नागर और द्रविड़ दोनों शैलियों का एक मिश्रण है। इस शैली के मंदिरों में टावरों की ऊंचाई कम होती है। बौद्ध चैत्यों के अर्ध-वृत्ताकार निर्माण भी इसी शैली से लिए गए हैं। इस शैली में संरचनाओं को बारीक रूप से तैयार किया जाता है और आकृतियों को बहुत सजाया जाता है और अच्छी तरह से पॉलिश किया जाता है। 

वेसर शैली से जुड़े तथ्य 

वेसर शैली, नागर और द्रविड़ शैली का मिश्रित रूप है। इसके निर्माण विन्यास में द्रविड़ शैली का तथा रूप में नागर शैली जैसे लगते हैं। चालुक्य वंश ने वेसर शैली कला को काफी प्रोत्साहन दिया था। इसलिए इस शैली के अधिकतर मंदिर विन्ध्य पर्वत श्रृखला और कृष्णा नदी के बीच मिलते हैं। कर्नाटक के चालुक्य वंश के मंदिर वेसर शैली के माने जाते हैं। इन मंदिरों का रूप विशिष्ट होता है।

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भारत में मंदिर निर्माण का इतिहास 

  • भारत में अद्भुत शैलियों के साथ मंदिर निर्माण की शुरूआत चौथी से छठी शताब्दी के बीच गुप्तकाल के दौरान हुई थी। ऐसा माना जाता है कि इससे पहले भारत में लकड़ी के मंदिर बनते थे। गुप्त काल के बाद भारत में पत्थर और ईंटों से मंदिर निर्माण की शुरूआत हुई। भारत में 7वीं शताब्दी में आर्य संस्कृति वाले भागों में पत्थरों से मंदिरों का निर्माण होना पाया गया है। 
  • गुप्तकाल के दौरान मन्दिरों का निर्माण बहुत तेजी गति से हुआ था। कुछ पूराने हिन्दू मंदिरों में बौद्ध मंदिरों की शैली भी विद्यमान है। उस समय के मंदिरों में मूर्तियों को मध्य में रखा जाता था जिसके चारों ओर परिक्रमा मार्ग होता था। गुप्त काल के प्रारंभ के मंदिर जैसे सांची के बौद्ध मंदिरों आदि की छत सपाट होती थी। बाद में इनके शिखरों की ऊंचाई धीरे- धीरे बढती गई। 
  • जैन और बौद्ध पंथ द्वारा कृत्रिम गुफाओं का निर्माण किया जाता था लेकिन हिंदू मंदिरों में वास्तविक गुफाएं हुआ करती थी। उस दौर में मंदिरों में शिलाओं को काटकर गुफाएं बनाई जाती थी। 7वीं शताब्दी में अनेक मंदिरों का निर्माण चट्टानों को काटकर किया गया था। इनमें चेन्नई के दक्षिण में पल्लवों द्वारा स्थापित महाबलिपुरम् विशिष्ठ स्थान रखता है। 
  • गुप्त काल से हिन्दू मंदिरों का महत्त्व और विस्तार काफी बढ़ा। इस दौर में बने मंदिरों की बनावट पर गुप्त वास्तुकला का विशेष प्रभाव है। भारत के उड़ीसा और मध्यप्रदेश के खजुराहो में भी उत्कृष्ट वास्तुकला के नमुने देखने को मिलते हैं। उड़ीसा का करीब 1000 वर्ष पुराना लिंगराजा का मन्दिर वास्तुकला का सर्वोत्तम  उदाहरण है। वहीं, कोणार्क का सूर्य मंदिर इस क्षेत्र का सबसे प्रसिद्ध मंदिर है। इसका निर्माण 13वीं शताब्दी में हुथा था।

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भारतीय मंदिर वास्तुकला की प्रमुख शैलियों के बारे में अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

भारतीय मंदिर वास्तुकला की प्रमुख शैलियां कौन सी हैं?

देश में मंदिर वास्तुकला की दो प्रमुख शैलियां हैं। उत्तर में मंदिर निर्माण की  नागर शैली और दक्षिण में द्रविड़ियन शैली कापी प्रचलित है। तीसरी शैली, वेसर शैली है, जिसे नागर और द्रविड़ शैली की वास्तुकला का मिश्रण माना जाता है।

भारतीय मंदिर वास्तुकला के स्थापत्य सिद्धांत क्या हैं?

भारत में मंदिरों के वास्तु सिद्धांतों का वर्णन शिल्प शास्त्रों और वास्तु शास्त्रों में किया गया है। संस्कृति ने अपने मंदिर निर्माताओं को सौंदर्य स्वतंत्रता को प्रोत्साहित किया है, और इसके वास्तुकारों ने कभी-कभी हिंदू जीवन शैली को व्यक्त करने के लिए मंदिर निर्माण में अन्य सटीक ज्यामिति और गणितीय सिद्धांतों को अपनाकर रचनात्मक अभिव्यक्ति में काफी लचीलेपन का प्रयोग किया है।

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