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पश्मीना शॉल

पश्मीना शॉल (Pashmina shawl) भारत के साथ- साथ पूरी दुनिया में मशहूर है। दुनिया के कई अन्य देशों में भी लोग पश्मीना शॉल को पसंद करते हैं। यह विशेष शॉल अपनी गर्माहट, नरमी, और खूबसूरती के लिए बेहद मशहूर है। पिछले कुछ सालो में पश्मीना शॉल को एक स्टेटस सिंबल की तरह उपयोग किया जाने लगा है। इस शॉल को कश्मीर का प्रतीक भी माना जाने लगा है इसलिए इसे कश्मीरी शॉल (Kashmiri Shawl) भी कहा जाता हैं।  

पश्मीना शॉल, कश्मीरी ऊन से काते गए शॉल का एक अच्छा प्रकार है। यह विशेष ऊन लद्दाख के उच्च पठार की मूल चांगथांगी बकरी (capra aegagrus hircus) से प्राप्त की जाती है। ठंड के मौसम में च्यांगरी बकरियां (Chyangra Goats) खुद ही अपने शरीर से ऊन की एक ऊपरी परत को अलग कर देती हैं। इसे उनके शरीर से काटना नहीं पड़ता है। एक च्यांगरी बकरी से करीब 80 से 170 ग्राम तक ऊन निकलता है। इस प्रकार एक पश्मीना शॉल बनाने के लिए तीन बकरियों के ऊन की आवश्यकता पड़ती है। वहीं एक शॉल को बनाने में तीन बकरियों के ऊन के साथ- साथ करीब 7 से 10 दिनों का वक्त लगता है। इसलिए पश्मीना शॉल काफी महंगी हो जाती हैं।

आईएएस परीक्षा 2023 की तैयारी करने वाले उम्मीदवार पश्मीना शॉल के बारे में अधिक जानने के लिए इस लेख को ध्यान से पढ़ें। इस लेख में हम आपको पश्मीना शॉल और उसकी विशेषताओं के बारे में विस्तार से बताएंगे। पश्मीना शॉल के बारे में अंग्रेजी में पढ़ने के लिए Pashmina shawl पर क्लिक करें।

नोट – साल 2019 में, भारतीय मानक ब्यूरो (Indian Standards Bureau) ने पश्मीना शॉल की शुद्धता की पहचान, अंकन और लेबलिंग के लिए एक भारतीय मानक प्रकाशित किया था।

इस लेख में आईएएस परीक्षा 2023 के संदर्भ में पश्मीना शॉल के बारे में विस्तार से जानकारी दी जा रही है।

च्यांगरा या च्यांगरी बकरियों की प्रजाति 

पश्मीना शॉल के बनाने के लिए कश्मीर की एक खास प्रजाति की पहाड़ी बकरी से ऊन निकाला जाता है। इस पहाड़ी बकरी को च्यांगरा या च्यांगरी (Chyangra) नाम से जाना जाता है। इस बकरी को स्थानीय भाषा में चेगू भी कहा जाता है। इन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह हिमालय में करीब 12000 फीट की ऊंचाई पर पाई जाती है, जहां का तापमान माइनस 40 डिग्री तक होता हैं। इसके अलावा च्यांगरा या च्यांगरी बकरियां लद्दाख, नेपाल, डेमचोक, पैंगांग झील और तिब्बत के पहाड़ी इलाकों में भी निवास करती हैं। Changthangi या Chagra  नस्ल की कश्मीरी बकरियों का पालन के उच्च पठारों के मूल निवासियों द्वारा उनके मांस के लिए भी किया जाता है। 

कश्मीर की चांगथांगी नस्ल की बकरियां अपने उपर बालों का एक मोटा अंडरकोट उगाती है जो कश्मीर पश्मीना ऊन का मुख्य स्रोत है। यह ऊन दुनिया का बेहतरिन ऊन है। इसके फाइबर मोटाई की मोटाई 12-15 माइक्रोन के बीच होती है। पश्मीना ऊन से बने शॉल बहुत महीन होते हैं, और पूरी दुनिया में इसका निर्यात किया जाता है।

इस शॉल का नाम पश्मीना कैसे पड़ा

पश्मीना शब्द फारसी के ‘पश्म’ शब्द से बना है, जिसका मतलब होता है ऊन (Wool)। पश्म का मतलब चरणबद्ध तरीके से ऊन की बुनाई भी बताया गया है। इसलिए इस विशेष प्रकार की शॉल का नाम पश्मीना शॉल पड़ा।

पश्मीना शॉल का इतिहास

इतिहासकारों के मुताबिक 15वीं सदी में कश्मीर में ऊन उद्योग की स्थापना की गई थी। इसकी स्थापना उस दौर के शासक जैनुल आब्दीन ने की थी। इसके बाद कश्मीरी पश्मीना शॉल को बढ़ावा दिया गया। कुछ इतिहासकार 15वीं सदी के पहले भी पश्मीना शॉल का चलन मानते हैं। लेकिन मुगल शासन के दौर में पश्मीना शॉल की लोकप्रियता कश्मीर से बाहर निकल कर भारत के साथ- साथ दुनिया के अन्य कोनों तक पहुंची।

ऐसा बताया जाता है कि मुगल शासक बाबर के दौर में वफादारों को ‘खिलत’ (वस्त्र देने की) की एक परंपरा हुआ करती थी। इस परंपरा के अनुसार उपहार में कोट, गाउन और पगड़ी आदी के साथ पश्मीना ऊन से बने उपहार दिए जाते थे। जब अकबर ने कश्मीर को जीत लिया तो उसके बाद एक खास ‘खिलत’ समारोह का आयोजन किया गया। इस समारोह में अकबर ने अपने दरबारियों और वफादारों को उपहार के तौर पर पशमीना शॉल दी थी।

मुगल साम्राज्य के दौर में पश्मीना शॉल एक कुलीनता की वस्तु के रूप में प्रचलित थी। उस दौरान पश्मीना शॉल और कंबल धनी लोगों के संकेतक वस्त्र हुआ करते थे। यह शॉल भारत के साथ- साथ नेपाल और पाकिस्तान में भी अमीर महिलाओं के दहेज का जरूरी हिस्सा थी। बाद में इन शॉलों को विरासत के रुप में उपयोग किया जाने लगा। उस दौरान इन शॉलों को खरीदना बेहद मंहगा हुआ करता था इसलिए ये विरासत में एक पीढी से दूसरी पीढ़ी को दी जाने लगी। बाद में ये शॉल व्यापार के माध्यम से भारत से यूरोप तक पहुंची, जहां इनको काफी लोकप्रियता मिली और बाद में पूरी दुनिया में फैल गई। 

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असली कश्मीरी पश्मीना शॉल की पहचान 

असली कश्मीरी पश्मीना शॉल की पहचान करने के लिए आज कल सोशल मीडिया पर कई लोग दावा करते हैं कि इसे किसी अंगूठी में एक ओर से डाल कर दूसरी ओर से निकाल सकते हैं। वहीं, कुछ लोग दावा करते हैं कि अगर पशमीना शॉल में छेद किया जाता है तो वो अपने आप वापस जुड़ जाता है या वो छेद अपने आप गायब हो जाता है। 

इस मामले में ‘हुनर द क्राफ्ट’ ( Hunar the Craft) के सीईओ और संस्थापक जसीर अराफात ने कहा कि ये दावे पूरी तरह गलत और भ्रामक है। उन्होंने बताया कि अगर पश्मीना शॉल में कोई छोटा छेद हो जाता है तो उसके फैब्रिक की बनावट के कारण दिखाई नहीं देगा, लेकिन अगर किसी चीज का उपयोग कर के उसमें एक बड़ा छेद कर दिया जाता है तो उसका दोबारा जुड़ना बिल्कुल नामुमकिन है, क्योंकि ऐसा करने से शॉल के धागे टूट जाते हैं और वो फिर आपस में दोबारा कभी नहीं जुड़ते हैं। 

हालांकि कश्मीरी पश्मीना शॉल की पहचान का सबसे उत्तम तरीका है उस पर लगा  ज्योग्राफिकल इंडिकेशन टैग (Geographical Indication) हैं। जीआई टैग केवल उन उन्हीं कश्मीरी पश्मीना प्रोडक्ट को मिलता है, जो पूरी तरह हाथ से बुने हुए होते हैं। इसलिए कश्मीर की हर एक पश्मीना शॉल पर जीआई टैग लगा होता है। हालांकि जो शॉल मशीन से बुने होते हैं, उन पर जीआई टैग नहीं लगता है।

विदेशों में पश्मीना शॉल का चलन

नेपोलियन बोनापार्ट (Napoleon Bonaparte) की पत्नी महारानी जोसेफिन (Empress Joséphine) द्वारा पश्मीना शॉल के उपयोग के कारण यह शॉल वहां एक फैशन सिंबल बन गई। इसके बाद सफेद फ्रेंच गाउन के साथ इस शॉल का उपयोग काफी बढ़ गया था, क्योंकि यह गाऊन के साथ वहां के मौसम के लिए अनुकुलता प्रदान करती थी। यह 19वीं सदी के फ्रांसीसी समाज में इसके रुप, कलात्मकता और खूबसूरती के कारण पश्मीना शॉल, समृद्ध लोगों के उपयोग का एक जरुरी वस्त्र बन गई थी। वहां पश्मीना ऊन से बनी शाल को शाहतोश शाल के विकल्प के रूप में प्रचारित किया गया। इसका कारण यह था कि शाहतोश शॉल तिब्बती एंटीलोप से बनाई जाती है। लेकिन शाहतोश शॉल की मांग ने तिब्बती मृग की करीब 90%  आबादी को खत्म कर दिया था। इसलिए उनकी बची हुई आबादी को संरक्षित करने के लिए पश्मीना शाल जैसे अन्य विकल्पों का उपयोग किया जाने लगा।

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पश्मीना शॉल का उत्पादन कैसे किया जाता है?

पश्मीना ऊन का उत्पादन चांगपा नामक लोगों द्वारा किया जाता है, जो लद्दाख क्षेत्र में रहने वाले खानाबदोश लोग हैं। चांगपा कठोर जलवायु में भेड़ पालते हैं जहां तापमान -40 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है। शीतकाल में पहाडी बकरियां अपना ऊन उतार देती हैं। इसलिए ये शॉल बनाने के लिए आवश्यक ऊन उपलब्ध हो पाता है। एक शॉल बनाने के  लिए लगभग 80-170 ग्राम ऊन की आवश्यकता होती है जो बकरी के बालों को काटने के बजाय कंघी करके एकत्र किया जाता है।  

इसके बाद कच्ची पश्मीना को कश्मीर में निर्यात किया जाता है जहां पारंपरिक रूप से शिल्पकारों और महिलाओं की एक विशेष टीम द्वारा हाथ से कंघी करने, कताई, बुनाई और परिष्करण द्वारा इसे तैयार किया जाता है। पश्मीना शॉल का प्रमुख उत्पादन केंद्र श्रीनगर के पुराने जिले में है। पश्मीना शाल का एक पीस बनाने में करीब 180 घंटे का समय लगता है।

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1990 के दशक में पश्मीना शॉल की अत्यधिक मांग थी जो आपूर्ति से कईं गुना अधिक थी। इसका फायदा उठाते हुए कुछ कपड़ा कंपनियों ने धोखे से पश्मीना शॉल के रूप में अपने उत्पादों का प्रचार करना शुरू कर दिया।

इसके परिणामस्वरूप पश्मीना शॉल के पारंपरिक निर्माताओं को राजस्व का काफी नुकसान उठाना पड़ा। इसलिए, बीआईएस ने इस तरह की अनुचित प्रथाओं को हतोत्साहित करने और पश्मीना शॉल का उत्पादन करने वाले स्थानीय कारीगरों और खानाबदोशों की आजीविका की रक्षा करने के लिए एक भारतीय मानक प्रमाणन प्रदान करने की दिशा में कदम बढ़ाया।

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