हल्के हरे रंग सी तितली,
एक नहीं असंख्य उड़ी।
मैं उनके मध्य उड़ी,
नहीं उड़ी तो, ले उनको उड़ी
माचिस की डिब्बिया में भर,
कूद-कूद के मैं हूँ उड़ी,
हँसी और उत्साह ह्दय में लेकर
घर के छज्जे में हूँ खड़ी
बहुत सही तुमने पराधीनता,
अब उड़ चलो अपनी नगरी,
मैं यह कहकर उनके साथ उछली।
सावित्री
(नोटः मित्र हमने स्वयं एक कविता लिखकर दी है। इस प्रकार आप अपनी बचपन की स्मृतियों पर कविता लिखिए।)