बाज़ार किसी का लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र नहीं देखता; वह देखता है सिर्फ़ उसकी क्रय शक्ति को। इस रूप में वह एक प्रकार से सामाजिक समता की भी रचना कर रहा है। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?
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Solution
लेखक का लिखा हुआ कथन यह आभास अवश्य करवाता है कि इस प्रकार से सामाजिक समता की रचना होती है। हम इससे बिलकुल सहमत नहीं है। बाज़ार सामाजिक समता को नहीं बल्कि बटुवे के भार को देखता है। जिसके बटुवे में नोट हैं और वे नोट खर्च कर सकता है केवल वही इसका लाभ उठा सकते हैं। तब बाज़ार आदमी-औरत, छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच, हिन्दु-मुस्लिम तथा गाँव-शहर का भेद नहीं देखता है। वह बस नोट देखता है। तो यह सामाजिक समता का सूचक नहीं बल्कि समाज को बाँटने में अधिक विनाशक शक्ति के रूप में कार्य करता है। धन का भेदभाव ऐसा है जब आता है, तो यह लिंग, जाति, धर्म तथा क्षेत्र को भी बाँटने से हिचकिचाता नहीं है।
यह कथन आज चरितार्थ हो रहा है 'बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपया'। बाज़ार के लिए भी रुपया बड़ा है, व्यक्ति नहीं।