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चार्ली चैप्लिन की फिल्मों में निहित त्रासदी/करुणा/हास्य का सामंजस्य भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र की परिधि में क्यों नहीं आता?

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भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र में त्रासदी और करुणा को जीवन का अभिन्न अंग माना जाता है। यह सही भी है। त्रासदी और करुणा हर किसी के जीवन में विद्यमान होती है। हास्य मात्र मनोरंजन का साधन होता है, जो कभी कभार जीवन में आकर उसे हल्का बना देता है। यही कारण है कि इसे हमारी रचनाओं में दूसरों को हँसाने मात्र का साधन ही माना गया है। जब हम प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करते हैं, तो हमें त्रासदी और करुणा का सामंजस्य तो देखने को मिलता है लेकिन हास्य का समावेश मात्र विदूषक तक रह जाता है। वह अपनी चेष्टाओं से कुछ क्षण के लिए लोगों में हास्य का भाव पैदा करता है लेकिन कथा पुनः त्रासदी और करुणा के भाव में डूब जाती है। हम हास्य को जीवन का अंग नहीं मानते क्योंकि हम दूसरों या स्वयं पर हँसना श्रेयकर नहीं समझते हैं। यही कारण है कि त्रासदी/करुणा/हास्य का सामंजस्य हमारे यहाँ देखने को नहीं मिलता है।

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