(1) शिवालिक की सूखी नीरस पहाड़ियों पर मुसकुराते हुए ये वृक्ष द्वंद्वातीत हैं, अलमस्त हैं।
(2) अजीब सी अदा है मुसकुराता जान पड़ता है।
(3) उजाड़ के साथी, तुम्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ।
(4) धन्य हो कुटज, तुम 'गाढ़े के साथी हो।'
(5) कुटज अपने मन पर सवारी करता है, मन को अपने पर सवार नहीं होने देता।
(6) कुटज इन सब मिथ्याचारों से मुक्त है। वह वशी है। वह वैरागी है।
(7) सामने कुटज का पौधा खड़ा है वह नाम और रूप दोनों में अपनी अपराजेय जीवनी शक्ति की घोषण करता है।
(8) मनोहर कुसुम-स्तबकों से झबराया, उल्लास-लोल चारुस्मित कुटज।
(9) कुटज तो जंगल का सैलानी है।