भारत में औपनिवेशिक शासन अर्थात ब्रिटिश शासन की स्थापना के साथ ही विद्रोह- आंदोलनों का इतिहास भी प्रारंभ होता है। जनजातीय आंदोलन भी इसके अपवाद नहीं है। आंदोलन का क्षेत्र या स्वरूप कोई भी हो कुछ बातें मूल रूप से सामान्य पाई जा सकती हैं। इनमें प्रमुख था ब्रिटिश शासन द्वारा जनजातीय जीवन शैली, उनकी सामाजिक संरचना व उनकी संस्कृति में हस्तक्षेप करना। किंतु जमीन से जुड़े मामलों में हस्तक्षेप करना संभवत: इसमें सबसे प्रमुख कारण था। भारत में ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था के अन्तर्गत संयुक्त स्वामित्व वाली या सामूहिक सम्पत्ति की (जिसे झारखण्ड में खुण्ट-कट्टी व्यवस्था के नाम से जाना जाता है) अवधारणा वाली आदिवासी परम्पराओं को क्षीण किया गया। आदिवासी बहुल क्षेत्रों में ईसाई धर्मप्रचारकों की गतिविधियों की भी प्रतिक्रिया देखी गई। किंतु जिस बात का सबसे ज्यादा रोष जनजातियों में देखा गया वह था ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के साथ-साथ जनजातीय क्षेत्रों में जमींदार , महाजन और ठेकेदारों के एक नए शोषक समूह का उद्भव । आरक्षित वन सृजित करने और लकड़ी तथा पशु चराने की सुविधाओं पर भी प्रतिबन्ध लगाए जाने के कारण आदिवासी जीवन -शैली प्रभावित हुई क्योंकि आदिवासियों का जीवन सबसे अधिक वनों पर ही निर्भर करता है । 1867 ई. में झूम कृषि पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। नए वन कानून बनाए गये । इन सब कारणों ने देश के विभिन्न भागों में जनजातीय विद्रोहों को जन्म दिया। इस लेख में आप संथाल विद्रोह की जनकारी पा सकते हैं ।
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संथाल कौन हैं?
संथाल, गोंड और भील के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा अनुसूचित जनजाति समुदाय है । यह झारखण्ड की सबसे बड़ी जनजति है । 2022 में देश की 15वीं राष्ट्रपति बनी द्रौपदी मुर्मू इसी जनजाति से हैं । वह भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति हैं । अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान (SCSTRTI) के अनुसार, संथाल शब्द दो शब्दों से बना है: ‘संथा’ और ‘अला’ । ‘संथा’ का अर्थ है शांत और शांतिपूर्ण; जबकि ‘अला’ का अर्थ है मनुष्य । संथाल मुख्य रूप से कृषक होते हैं । संथाल आबादी ज्यादातर ओडिशा, झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में वितरित है । “संथाली” संथालों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है और इसकी अपनी लिपि है जिसे ओलचिकी कहा जाता है । संथाली भाषा संविधान की आठवीं अनुसूची में भी शामिल है । संथालों की पारंपरिक चित्रकला को जादो पाटिया कहते हैं । संथालों की प्रमुख ख्याति 1855-56 के संथाल विद्रोह के कारण भी है । कार्ल मार्क्स ने इस विद्रोह को भारत की प्रथम जनक्रांति की संज्ञा दी थी । इसकी चर्चा उन्होंने अपनी बहुचर्चित पुस्तक “द कैपिटल” में भी की है । |
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विद्रोह की पृष्ठभूमि
इतिहासकारों का मानना है की कृषक आन्दोलन सहित अन्य सभी प्रकार के आंदोलनों की तुलना में जनजातीय आन्दोलन अधिक संगठित और अधिक हिंसक होते थे। 1770 ई. से लेकर वर्ष 1947 तक ऐसे लगभग 70 जनजातीय विद्रोह हुए। इन जनजातीय आन्दोलनों को तीन चरणों में विभाजित किया गया है :
प्रथम चरण (1795-1860 ई.) : जनजातीय आन्दोलनों का प्रथम चरण अंग्रेजी साम्राज की स्थापना के साथ-साथ ही शुरू हो गया । इन आदिवासी आन्दोलनों का स्वरूप प्रायः अंग्रेजी साम्राज्य पूर्व इन क्षेत्रों में प्रचलित व्यवस्था को पुनर्स्थापित करना था। प्रथम चरण के मुख्य जनजातीय विद्रोहों के उदाहरण हैं :- पहाड़िया विद्रोह, खोण्ड विद्रोह, चुआड़, हो विद्रोह, सन्थाल विद्रोह आदि ।
द्वितीय चरण (1860-1920 ई.) : इस चरण में जनजातीय आन्दोलनों के दो लक्ष्य थे—एक, आदिवासियों का शोषण करने वाले बाहरी तत्त्वों के विरुद्ध संघर्ष और दूसरा, आदिवासियों द्वारा अपने समाज में सुधार लाने के लिए प्रयास। बिरसा मुंडा और टाना भगत आन्दोलन इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं । अन्य उदाहरण के तौर पर खारवाड़ विद्रोह, नैकदा आन्दोलन, कोण्डा डोरा विद्रोह, भील विद्रोह, भुयान और जुआंग विद्रोह आदि का नाम लिया जा सकता है ।
तृतीय चरण (1920 ई. के बाद) : तीसरे चरण की विशेषता यह थी कि इसमें देश-व्यापी बड़े आन्दोलनों (जैसे असहयोग आन्दोलन , स्वदेशी आन्दोलन आदि जैसे स्वाधीनता आन्दोलन) के साथ जुड़ने की प्रवृत्ति देशी गई। इन्हें प्रायः ऐसे आदिवासियों ने नेतृत्व प्रदान किया, जो शिक्षित थे। इस दौर में गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ताओं जैसे जतरा भगत से लेकर अल्लूरी सीताराम राजू जैसे गैर जनजातीय लोग इनके नेता बने। उदाहरणार्थ – चेंचू आदिवासी आन्दोलन, रम्पा विद्रोह आदि।
संथाल विद्रोह का कारण
संथाल विद्रोह जिसे क्षेत्रीय तौर पर “संथाल- हूल” के नाम से बेहतर जाना जाता है झारखंड के इतिहास में होने वाले सभी जनजातीय आंदोलनों में संभवत: सबसे व्यापक एवं प्रभावशाली विद्रोह था । यह वर्तमान झारखंड के पूर्वी क्षेत्र जिसे संथाल परगना “दामन-ए-कोह” (भागलपुर व राजमहल पहाड़ियों के आस पास का क्षेत्र) के नाम से जानते हैं, में 1855-56 में घटित हुआ था। यह क्षेत्र झारखण्ड के सबसे बड़े जनजातीय समूह “संथालों” का निवास स्थल था। संथालों के आक्रोश का मुख्य कारण यह था कि ब्रिटिश काल में साहूकार तथा औपनिवेशिक प्रशासक दोनों ही संथालों का शोषण करते थे। दीकुओं (बाहरी लोगों) तथा व्यापारियों द्वारा संथालों द्वारा लिए गए ऋणों पर 50% से लेकर 500% तक ब्याज वसूले जाने के उदाहारण मिलते हैं । और भी कई तरीकों से आदिवासियों का शोषण किया और उनसे धोखेबाजी की गई । आदिवासी चूँकि पढ़े -लिखे नही थे ,अतः उनसे जालसाजी कर तय दर से अधिक ब्याज वसूलना व यहाँ तक की उनकी जमीनों को भी हड़प लेना आम बात थी । जब वे ऐसी शिकायतें लेकर प्रशासन या पुलिस के पास जाते तो भी उन्हें निराशा ही हाथ लगती थी । इसी बीच ब्रिटिश सरकार ने भागलपुर -वर्दमान रेल परियोजना के तहत रेल लाइनें बिछाने के लिए बड़ी संख्या में संथालों को बेगार मजदूरों के तौर पर बलात भर्ती किया। इस घटना ने संथाल विद्रोह के तात्कालिक कारण का काम किया ।
विद्रोह की प्रमुख घटनाएं
इन्हीं अत्याचारों की पृष्ठभूमि में संथालों ने दरोगा महेश लाल दत्त एवं प्रताप नारायण की हत्या कर दी और इसी के साथ संथाल हूल की चिंगारी उठी। 30 जून, 1855 को भगनीडीह में 400 आदिवासी गाँवों के लगभग 6000 आदिवासी इकट्ठा हुए और सभा की। सिद्धू , कान्हू, चाँद तथा भैरव नाम के 4 भाइयों व फूलो तथा झानो नाम की उनकी 2 बहनों के नेतृत्व में यह घोषणा हुई कि बाहरी लोगों को भगाने और विदेशियों का राज्य समाप्त कर सतयुग का राज स्थापित करने के लिए विद्रोह किया जाए। सिद्धू और कान्हू ने घोषणा की कि देवता ने उन्हें निर्देश दिया है कि “आजादी के लिए हथियार उठा लो” । विद्रोहियों ने सिद्धू को राजा , कान्हू को मंत्री, चांद को प्रशासक तथा भैरव को सेनापति घोषित किया। इन लोगों ने ब्रिटिश दफ्तरों एवं संस्थानों,थाना ,डाकघरों व अन्य सभी ऐसे संस्थाओं पर हमला करना शुरू कर दिया जिन्हें वे “गैर -जनजातीय” प्रतीक के द्योतक मानते थे । भागलपुर और राजमहल के बीच सभी सरकारी सेवाएँ ठप्प कर दी गई ।
विद्रोह का दमन एवं इसकी महत्ता
सरकार को संथालों के विद्रोह को कुचलने के लिए उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों में मार्शल लॉ लगाना पड़ा। मेजर बरो के नेतृत्व में सेना की 10 टुकडियां भेजी गई ,लेकिन उन्हें संथालों ने परस्त कर दिया। फिर विद्रोही नेताओं को पकड़ने के लिए ₹10 हजार का इनाम घोषित किया गया। सबसे पहले सिद्धू पकड़ा गया और उसे 5 दिसम्बर को फांसी दे दी गई। चाँद व भैरव पुलिस की गोली से मारे गये। अंततः कान्हू भी पकड़ा गया और उसे 23 फरवरी ,1856 को फांसी दे दी गई । इस प्रकार इस विद्रोह का दमन कर दिया गया। जनरल लोयड,ले.थोम्सन ,रीड तथा कैप्टन एलेग्जेंडर को इस विद्रोह के दमन का श्रेय दिया जाता है।
हालाँकि संथाल विद्रोह का दमन कर दिया गया ,लेकिन यह विद्रोह झारखण्ड के इतिहास में अपना महत्त्व रखता है। इस विद्रोह ने आदिवासियों को जागरूक करने का कार्य किया जिससे आगे होने वाले आंदोलनों के मार्ग प्रशस्त हो सके। सरकार ने संथाल लोगों के लिए पृथक् सन्थाल परगना बनाकर शान्ति स्थापित की। दुमका ,देवघर ,गोड्डा व राजमहल उप-जिले बनाए गये। इस क्षेत्र को निषिद्ध क्षेत्र (regulating area) घोषित कर यहाँ बाहरी लोगों के प्रवेश व उनकी गतिविधि को नियंत्रित किया गया जो की आदिवासियों की एक पुरानी मांग थी। जॉर्ज युल के नेतृत्व में नया पुलिस कानून पारित किया गया। और आगे चलकर संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (S.P.T ACT) पारित किया गया ताकि जनजातीय भूमि के हस्तांतरण पर रोक लगाई जा सके । कार्ल मार्क्स ने संथाल हूल को भारत की प्रथम जनक्रांति की संज्ञा दी। इसकी चर्चा उन्होंने अपनी बहुचर्चित पुस्तक द कैपिटल में भी की।
झारखंड के कुछ अन्य जनजातीय आंदोलनों का संक्षिप्त परिचय
ढाल विद्रोह-1767 : जगन्नाथ ढाल के नेत्रित्व में किया गया यह विद्रोह झारखण्ड का प्रथम विद्रोह था । इस विद्रोह ने सिंहभूम- मानभूम के क्षेत्र को प्रभावित किया क्योंकि झारखंड में अंग्रेजों का प्रवेश इसी क्षेत्र से हुआ था । इस विद्रोह के दमन के लिए लेफ्टिनेंट रुक को भेजा गया था।
चुआड़ विद्रोह -1798 : जंगल महल क्षेत्र के भुमिजों जिन्हें चुआड़ कहा जाता था ,ने यह विद्रोह दुर्जन सिंह के नेत्रित्व में किया ।
पहाड़िया विद्रोह -1772 : यह विद्रोह रमना आह्ड़ी ने प्रारम्भ किया । महेशपुर की रानी सर्वेश्वरी देवी का इस विद्रोह में महत्वपूर्ण योगदान था ।
रामगढ़ विद्रोह – हजारीबाग -रामगढ़ के क्षेत्र में हुए इस विद्रोह को राजा मुकुंद सिंह व रघुनाथ सिंह का नेतृत्व प्राप्त हुआ ।
तमाड़ विद्रोह – आदिवासियों को उनके भूमि संबंधी अधिकार दिलाने के लिए ठाकुर भोला नाथ सिंह के नेतृत्व में 1782 में यह विद्रोह हुआ ।
बाबा तिलका मांझी आन्दोलन -1782 : यह आन्दोलन बाबा तिलका मांझी ने संथाल परगना क्षेत्र में किया था ।
चेरो आन्दोलन -1800 : यह विद्रोह भूखन सिंह के नेत्रित्व में पलामू क्षेत्र में हुआ था। कर्नल जोंस ने इसका दमन किया ।
हो विद्रोह -1820 : यह विद्रोह सिंहभूम के राजा जगन्नाथ सिंह के विरुद्ध था जो ब्रिटिश शासन का हितैषी था ।
भूमिज विद्रोह -1832 : नेता गंगा नारायण सिंह थे । यह सिंघ्भुम-मानभूम के क्षेत्र में हुआ ।
कोल विद्रोह -1831-32 : बुधु भगत,सिंदराय व सुरगा के नेत्रित्व में यह विद्रोह मुख्यतः हो जनजाति ने किया । विलकिंसन इस विद्रोह का दमनकर्ता था । इस विद्रोह के परिणामस्वरूप 1833 में एक नए प्रांत SWFA का गठन किया गया ।
सफाहोड़ विद्रोह – यह वस्तुत: एक सामाजिक- धार्मिक एवं चारित्रिक उत्थान से संबंधित आंदोलन था जिसे लाल हेंब्रम ने जन्म दिया जो लाल बाबा के नाम से भी प्रसिद्ध हैं । उन्होंने आजाद हिंद फौज की तर्ज पर संथाल परगना में “देशोद्धारक” दल का भी गठन किया था ।
खरवार आन्दोलन – 1874 के खरवार आन्दोलन के नेता भागीरथ मांझी थे |
बिरसा मुण्डा का विद्रोह- “उलगुलान” : बिरसा मुंडा झारखंड के जनजातियों के मसीहा माने जाते हैं । वे एक आन्दोलन में 1893-94 ई. में भाग ले चुके थे जो गाँव की ऊसर जमीन को वन विभाग द्वारा अधिगृहीत किए जाने से रोकने के लिए चलाया जा रहा था। 1895 ई. में बिरसा ने परमेश्वर के दर्शन होने तथा दिव्य शक्ति प्राप्त होने होने का दावा किया । लोग बिरसा का उपदेश सुनने के लिए एकत्रित होने लगे। बिरसा को 1895 ई. में दो साल के लिए जेल में डाल दिया गया। किंतु ब्रिटेन की महारानी के हीरक जयंती के अवसर पर उन्हें जेल से रिहा किया गया । जेल से निकलने के पश्चात् बिरसा के नेतृत्व में ब्रिटिश राज के पुतले जलाए जाते और मुण्डा लोग बड़े उत्साहपूर्वक इस गीत से आकर्षित होते – “कटोंग बाबा कटोंग, साहेब कटोंग कटोंग, रारी कटोंग कटोंग (“काटो बाबा, काटो!यूरोपियों को काटो ! दूसरी जातियों को काटो”) | 9 जनवरी, 1900 को डोंबारी पर्वत पर बिरसा की सेना एवं अंग्रेजों के बीच मुठभेड़ हुई । बिरसा मुंडा को पकड़ा गया और 1902 में शायद जहर देने से जेल में उसकी मृत्यु हो गई। यह बिरसा मुंडा के उलगुलान का ही प्रभाव था कि 1908 ई. में छोटा नागपुर टेन्सी एक्ट; C.N.T (छोटा नागपुर रैयत या काश्तकारी कानून) पारित हुआ। इसने खूण्टकट्टी के अधिकारों को मान्यता दी और जबरन बेगारी पर प्रतिबन्ध लगाया।
टाना भगत आन्दोलन – प्रथम विश्वयुद्ध (1914-19) के समय मुण्डा और उराँव आदिवासियों के मध्य अनेक भगत आन्दोलन हुए। ऐसे ही एक उराँव विद्रोह का नेतृत्व जतरा भगत ने किया। बाद में यह विद्रोह एक शक्तिशाली मसीही आन्दोलन के साथ सम्बद्ध होना शुरू हो गया, जो टाना भगत आन्दोलन के नाम से चल रहा था। 1920 ई. के बाद इसने अपनी स्थानीय शिकायतों को राष्ट्रीय आन्दोलनों से सम्बद्ध कर लिया और समाज सुधार के साथ साथ देश के राष्ट्रीय आन्दोलन में भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया । गाँधी जी ने भी एक बार कहा था कि टाना भगत उनके सभी शिष्यों में से सबसे प्यारे हैं ।
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