भारतीय इतिहास में पानीपत के मैदान में कुल 3 प्रकंपी लड़ाइयाँ लड़ी गई थीं। ये तीनों ही युद्ध भारतीय इतिहास में इसलिए अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं क्योंकि उन्होंने भारतीय इतिहास की दिशा तय की थी। भारतीय इतिहास में पानीपत के मैदान में लड़ी गई तीनों लड़ाइयों में से शुरुआती 2 लड़ाइयाँ तो विशुद्ध रूप से मध्य काल के दौरान ही लड़ी गई थीं, जबकि पानीपत की तीसरी लड़ाई मध्य काल व आधुनिक काल के संक्रमण के दौरान लड़ी गई थी। अगर इन युद्धों का परिणाम कुछ और होता, तो आज भारतीय इतिहास की स्थिति भी वर्तमान जैसी नहीं होती।
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पानीपत का पहला युद्ध (1526 ईस्वी)
परिचय
पानीपत का पहला युद्ध 1526 ईस्वी में दिल्ली सल्तनत के अंतिम शासक इब्राहिम लोदी व मुगल वंश के संस्थापक बाबर के बीच हुआ था। इस युद्ध में बाबर की विजय हुई थी और इब्राहिम लोदी पराजित हुआ था। इसके साथ भारत में दिल्ली सल्तनत की समाप्ति और मुगल वंश की स्थापना हुई थी।
पानीपत के प्रथम युद्ध के कारण :
- इब्राहिम लोदी अपने सरदारों पर विश्वास नहीं रखता था। इसी कारण धीरे-धीरे उसके सरदारों का भी इब्राहिम लोदी के प्रति विश्वास डिगने लगा और क्रमिक रूप से उसके सरदार उसके शासन से नाखुश होते चले गए।
- उत्तराधिकार के निर्धारण के दौरान इब्राहिम लोदी को अपने राज्य का एक हिस्सा अपने भाई जलालखाँ को देना पड़ा और जलालखाँ को जौनपुर का शासक नियुक्त करना पड़ा, लेकिन कुछ समय पश्चात् उसने अपने इस निर्णय को पलट दिया।
- मेवाड़ के समकालीन शासक राणा संग्राम सिंह (राणा सांगा) के साथ वह युद्ध में लंबे समय तक उलझा रहा और अंततः पराजित भी हुआ। इससे उसकी सैन्य शक्ति कमजोर हुई।
- पंजाब के सूबेदार दौलत खाँ लोदी और इब्राहिम लोदी का चाचा आलम खाँ लोदी ने बाबर को भारत पर आक्रमण का निमंत्रण दिया।
पानीपत के पहले युद्ध के समय भारत की राजनीतिक स्थिति
- दिल्ली के सिंहासन पर इब्राहिम लोदी आसीन था। गुजरात, मालवा और बंगाल के क्षेत्र में अन्य अफगान शासक शासन कर रहे थे। पंजाब में दौलत खाँ लोदी का शासन था।
- मेवाड़ में राणा संग्राम सिंह का शासन था। दक्षिण भारत में कृष्णदेव राय के नेतृत्व में विजयनगर साम्राज्य स्थापित था। दक्षिण में विजयनगर ही पाँच छोटे-छोटे मुस्लिम राज्य – बीदर, बरार, बीजापुर, गोलकुंडा और अहमदनगर – भी थे।
- अतः इस दौरान भारत की राजनीतिक स्थिति दुर्बल थी और भारत में कोई एक ही राजनीतिक सत्ता कार्य नहीं कर रही थी तथा सभी शासक आपसी टकराव में उलझे रहते थे।
पानीपत के पहले युद्ध से संबंधित प्रमुख बिंदु
- यह बाबर का भारत पर पाँचवाँ आक्रमण था। पंजाब के सूबेदार दौलत खाँ लोदी ने आत्मसमर्पण कर दिया और आलम खाँ लोदी ने भी बाबर की अधीनता स्वीकार कर ली और अब बाबर दिल्ली की तरफ बढ़ा।
- बाबर का मुकाबला करने के लिए इब्राहिम लोदी भी अपनी सेना के साथ पंजाब की ओर बढ़ा। इसी कड़ी में दोनों पक्षों की सेनाएँ पानीपत के मैदान में आमने-सामने हो गईं।
- इब्राहिम लोदी की सेना बाबर की सेना से बड़ी थी। इब्राहिम लोदी की सेना में हाथी भी उपस्थित थे, लेकिन युद्ध के दौरान इब्राहिम लोदी हाथियों का उपयोग नहीं कर सका, जो उसकी हार के प्रमुख कारणों में से एक कारण भी बना। इस युद्ध में बाबर ने इब्राहिम लोदी को बुरी तरह पराजित किया।
पानीपत के पहले युद्ध में बाबर की विजय के कारण
- बाबर की युद्ध नीति विशिष्ट थी। इसे ‘तुलुगमा युद्ध पद्धति’ कहा जाता है। इस युद्ध पद्धति के अंतर्गत सेना के दाएँ और बाएँ छोर पर कुछ सैन्य टुकड़ियाँ खड़ी रहती थीं, जो तेजी से आगे बढ़ने और पीछे हटने में सक्षम होती थीं। दोनों छोरों पर खड़ी ये सैन्य टुकड़ियाँ शत्रु सेना को अचानक पीछे से घेर लेती थीं और उस पर हमला करती थीं।
- बाबर ने तोपों को सजाने की ‘उस्मानी विधि’ का भी प्रयोग किया था। उस्मानी विधि को ‘रूमी विधि’ भी कहा जाता है। बाबर की सेना में उस्ताद अली और मुस्तफा नामक दो उस्मानी तोपची भी मौजूद थे।
- बाबर का कुशल सैन्य नेतृत्व, उसका तोपखाना आदि बाबर की विजय के अन्य प्रमुख कारण रहे।
पानीपत के प्रथम युद्ध के परिणाम
- पानीपत के पहले युद्ध में विजयी होने के बाद बाबर ने कहा कि “काबुल की गरीबी अब और नहीं।” इससे दिल्ली सल्तनत का खात्मा और मुगल वंश की स्थापना हुई और यह वंश अगले लगभग 250 वर्षों तक भारत में प्रमुख राजनीतिक शक्ति बना रहा।
पानीपत का दूसरा युद्ध (1556 ईस्वी)
पृष्ठभूमि
- 1530 ईस्वी में बाबर की मृत्यु हुई और उसका पुत्र हुमायूँ मुगल शासक बना। 1540 ईस्वी में ‘बिलग्राम के युद्ध’ (कन्नौज के युद्ध) में शेरशाह सूरी ने हुमायूँ को पराजित कर भारत छोड़ने पर विवश कर दिया।
- इसी बीच वर्तमान हरियाणा के रेवाड़ी का एक नमक विक्रेता ‘हेमू’ अपनी योग्यता के दम पर अफगान शासन का हिस्सा बन चुका था। हेमू की सैन्य व कूटनीतिक प्रतिभा से प्रभावित होकर मोहम्मद आदिल शाह ने उसे अपना वजीर नियुक्त किया। इसी हेमू ने पानीपत के दूसरे युद्ध में अफ़गानों का नेतृत्व किया था।
- जब 1555 ईस्वी में अफगानों का साम्राज्य अत्यंत कमजोर हो गया, तो हुमायूँ ने इस पुनः पर कब्जा कर लिया। इसी बीच हुमायूँ की मृत्यु हो गई और अपनी मृत्यु से पूर्व उसने अपने पुत्र अकबर को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया तथा बैरम खान को अकबर का संरक्षक नियुक्त किया।
पानीपत के दूसरे युद्ध से संबंधित प्रमुख बिंदु
- 1556 ईस्वी में ही पानीपत का दूसरा युद्ध हुआ। अकबर की ओर से नेतृत्व बैरम खान ने किया।
- अकबर जब अपने राज्य अभिषेक के दौरान पंजाब में था, तो हेमू ने ग्वालियर, आगरा को जीतते हुए दिल्ली पर अधिकार कर लिया और ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की।
- इस्कंदर खाँ उजबेक, तार्दीबेग और अलीकुली खाँ पंजाब पहुँच गए और अकबर से जा मिले। इन सभी ने बैरम खान के नेतृत्व में दिल्ली की ओर कूच किया और दोनों पक्षों की सेनाएँ पानीपत के मैदान में एक-दूसरे के सामने आ गईं।
- 5 नवम्बर, 1556 ईस्वी को दोनों सेनाओं में युद्ध हुआ। दुर्भाग्यवश हाथी पर बैठे हुए हेमू की आँख में एक तीर लग गया, जिससे वह मूर्छित होकर गिर पड़ा।
- इसके पश्चात् मुगलों द्वारा हेमू को गिरफ्तार कर मार दिया गया। इसी के साथ मुगलों का अब भारत में निर्विरोध शासन स्थापित हो गया और अगले लगभग 250 वर्षों तक मुगल भारत में राज करते रहे।
- पानीपत के दूसरे युद्ध के दौरान अफगान सेनापति हेमू (हेमराज) के साथ घटी दुर्घटना के विषय में एक विद्वान ‘डॉक्टर आर.पी. त्रिपाठी’ लिखते हैं कि “इस युद्ध में हेमू की पराजय एक दुर्घटना थी और अकबर को मिली विजय दैवीय संयोग थी।”
पानीपत की तीसरी लड़ाई (1761 ईस्वी)
पृष्ठभूमि
- औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् उत्तर भारत में राजनीतिक शून्यता की स्थिति पैदा हो गई। मुगल बादशाह अपनी स्थिति को मजबूत करने का प्रयास करते रहे, लेकिन वे मुगल अमीरों की कठपुतली बनकर रह गए थे। ऐसे में, मराठे दिल्ली पर कब्जा करने का ख्वाब लेने लगे थे, लेकिन अंततः उन्हें अहमद शाह अब्दाली की ओर से चुनौती मिली।
- पानीपत का तीसरा युद्ध अहमद शाह अब्दाली और मराठों के बीच लड़ा गया था और इस युद्ध में मराठों को पराजय का सामना करना पड़ा था।
पानीपत के तीसरे युद्ध के कारण
- मराठा द्वारा मुगल दरबार में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप किया जाना। इससे एक वर्ग संतुष्ट और दूसरा असंतुष्ट हुआ और असंतुष्ट वर्ग ने अहमद शाह अब्दाली को निमंत्रण दिया।
- मराठों ने कश्मीर, मुल्तान और पंजाब जैसे क्षेत्रों पर भी आक्रमण किया। यहाँ अहमद शाह अब्दाली के सूबेदार शासन कर रहे थे। अतः इससे अहमद शाह अब्दाली को प्रत्यक्ष चुनौती मिली। अतः अब्दाली ने पंजाब पर आक्रमण कर पुनः अधिकार कर लिया। आगे बढ़कर अब्दाली ने दिल्ली पर भी अधिकार कर लिया और मराठों को चुनौती दी।
पानीपत के तीसरे युद्ध से संबंधित प्रमुख बिंदु
- पेशवा बालाजी बाजीराव ने अपने पुत्र विश्वास राव भाऊ के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना संगठित की और अब्दाली से युद्ध करने भेजा। लेकिन वास्तविक सेनापति सदाशिव राव भाऊ को बनाया।
- सदाशिव राव भाऊ ने उत्तर भारत के विभिन्न शासकों से मदद माँगी, लेकिन उत्तर भारत का कोई भी शासक मराठों की मदद करने को तैयार नहीं हुआ। जबकि अहमद शाह अब्दाली को रुहेला सरदार नजीबुद्दौला और अवध के नवाब शुजाउद्दौला का सहयोग प्राप्त हुआ।
- मराठा सेना की तरफ से इब्राहिम खान गार्दी मराठा तोपखाने का नेतृत्व कर रहा था। 14 जनवरी, 1761 ईस्वी को पानीपत का तीसरा युद्ध हुआ। इसमें अब्दाली की सेना मराठा सेना से बड़ी थी। युद्ध में मराठे पराजय हुए और उन्हें अपने अनेक योग्य सरदार व सैनिक खोने पड़े।
पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों की पराजय के मुख्य कारण
- सदाशिव राव भाऊ की कूटनीतिक अयोग्यता।
- मराठा सेना के साथ महिलाएँ और बच्चे युद्धभूमि में पहुँचे।
- मराठों ने राजपूतों के आंतरिक मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप करके उन्हें अपना शत्रु बना लिया था।
- मराठा सेना गुरिल्ला युद्ध पद्धति में निपुण थी, लेकिन इस युद्ध में गुरिल्ला पद्धति प्रयुक्त की जा सकी।
- मराठा सेना की तोपखाने पर अत्यधिक निर्भरता।
- अब्दाली के पास कुशल घुड़सवार सेना थी।
पानीपत के तीसरे युद्ध के परिणाम
- मराठों की उत्तर भारत में प्रगति अवरुद्ध हुई और उनका अखिल भारतीय मराठा साम्राज्य का सपना खंडित हुआ।
- अनेक योग्य और बहादुर मराठा सरदार और सैनिक मारे गए।
- मराठों की कमजोरी उजागर हुई और औपनिवेशिक शासन का मार्ग प्रशस्त हुआ।
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