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जंगल बचाओ आन्दोलन

“जंगल बचाओ आन्दोलन” (J.B.A) 1970 के दशक के उत्तरार्ध में तत्कालीन बिहार से शुरू हुआ एक वन संरक्षण आन्दोलन था जो धीरे धीरे आस पास के अन्य क्षेत्रों जैसे उड़ीसा तक फैल गया | आन्दोलन का कारण यह था कि तत्कालीन सरकार ने सिंहभूम जिले (जो कि अब झारखण्ड का एक दक्षिणी जिला है) के जंगलों को प्राकृतिक साल (सखुआ) के पेड़ों की जगह मूल्यवान सागवान (टिक) के पेड़ों के जंगल में बदलने की योजना पेश की थी | इसी के विरोध में बिहार के जनजातीय लोगों ने एकजुटता दिखाई और अपने जंगलो को बचाने के लिए आन्दोलन प्रारंभ किया | सखुआ जनजातीय लोगों के जीवन का मूल्य हिस्सा है | इस वृक्ष का उनके जीवन में विशेष धार्मिक महत्त्व है | आदिवासी समाज सरहुल पर्व के अवसर पर सखुआ की ही पूजा करते हैं | 1980 तक जगह-जगह विद्रोह की घटनाएं आम हो गईं | कई जगहों पर सरकार द्वारा रोपित सागवान की पूरी की पूरी नर्सरी नष्ट कर दी गई | एक लंबे संघर्ष के बाद इस आन्दोलन के परिणाम के रूप में 2006 में ‘वन अधिकार अधिनियम’ (Forest Rights Act) पारित किया गया | हालांकि,इसके लिए जनजातीय समुदाय को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी | 1978 से 1983 तक चले इस सघन आंदोलन के दौरान 18 आंदोलनकारी मारे गए, सैकड़ों घायल हुए और 15 हज़ार मुकदमे दर्ज किए गए |

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जंगल बचाओ आन्दोलन और वन अधिकार अधिनियम (Forest Rights Act) – 2006

जनजातीय समुदाय के लिए जंगलों का महत्व अतुलनीय रहा है | झारखंड में होने वाले किसी भी आंदोलन या विद्रोह का इतिहास देखें तो उसमें जंगलों की संलिप्तता निश्चित रूप से रही है | हम जानते हैं कि बिरसा मुंडा के विद्रोह के पीछे भी 1894 के वन सुरक्षा कानून की अहम भूमिका थी जिसमें आदिवासीयों को जंगलों पर उनके अधिकार से वंचित कर दिया गया था | जंगल बचाओ आंदोलन (JBA) भी इससे अछूता नहीं था | झारखंड देश में पाए जाने वाले सखुआ के प्रमुख प्राकृतिक वनों में से एक है | जैसा कि ऊपर वर्णित है सखुआ का जनजातीय समुदाय के लिए विशेष धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्व है | इसके अलावा यह वृक्ष जनजातियों से अन्य मामलों में भी जुड़ा हुआ है | आदिवासी समुदाय इस वृक्ष के पत्तों का प्रयोग पत्तल बनाने के लिए पारंपरिक रूप से करते आए हैं | साथ ही मवेशियों को खिलाने के लिए इसके पत्तों का प्रयोग, दातुन के लिए इसकी लकड़ियों का प्रयोग तथा अन्य लघु वन उत्पाद प्राप्त करने के लिए भी इस वृक्ष का महत्व है | अतः इस वृक्ष की कटाई का विरोध स्वभाविक था | इसी विरोध ने आंदोलन का एक रूप ले लिया | इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप वन अधिकार कानून 18 दिसम्बर 2006 को पारित किया गया और 2007 से प्रभाव में आया | यह कानून जनजातीय समुदाय के जंगलों पर अधिकार के लिए एक लम्बे संघर्ष का परिणाम है | इस कानून के प्रमुख प्रावधान निम्नवत हैं :

  • यह वन में निवास करने वाले आदिवासी समुदायों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के वन संसाधनों के अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है,
  • यह घोषित करता है कि जंगलों पर ये समुदाय आजीविका, निवास तथा अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक ज़रूरतों सहित विभिन्न आवश्यकताओं के लिये निर्भर रहे हैं ,
  • यह कानून “वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों” (Forest Dwelling S.Ts) और “अन्य पारंपरिक वनवासीयों ” ( Other Traditional Forest Dwellers) को मान्यता देता है और उनको अधिकतम 4 हेक्टेयर भू-क्षेत्र पर आदिवासियों या वनवासियों द्वारा खेती की जाने वाली भूमि पर स्वामित्व का अधिकार देता है,
  • इसके अनुसार वन निवासियों को जंगलों से लघु- वनोत्पाद (जैसे शहद ,लाह ,केंदु पत्ते इत्यादि) एकत्रित करने तथा मवेशियों को चराई कराने का भी अधिकार है ,
  • इस कानून के तहत ग्राम सभा को विशेष शक्तियाँ प्रदान की गई हैं और किसी भी आदिवासी क्षेत्र में बिना ग्राम सभा की अनुमति लिए कोई भी ऐसा प्रोजेक्ट शुरू नहीं हो सकता , जिसमें वनोन्मूलन (वनों की कटाई) शामिल हो,
  • संविधान की 5वीं और 6ठी अनुसूची के तहत जनजातीय अधिकारों का विस्तार जनजातीय क्षेत्रों तक किया गया है ,

वन एवं पर्यावरण संरक्षण से जुड़े देश के कुछ अन्य आन्दोलन

1.चिपको आन्दोलन : 1973-74 में शुरु हुए इस आंदोलन का श्रेय गौरा देवी को दिया जाता है | वो ‘चिपको वूमन’ के नाम से भी विख्यात हैं | इस आन्दोलन की शुरुआत उत्तराखंड के चमोली जिले में हुई थी जहाँ ग्रामीणों ने इलाहाबाद स्थित “स्पोर्ट्स गुड्स” कंपनी साइमंड्स को ऐश के पेड़ काटने से रोका और पेड़ों से चिपक कर इस आन्दोलन को एक नया रूप दिया | टिहरी गढ़वाल क्षेत्र में सुंदरलाल बहुगुणा ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया | गौरा देवी व सुंदरलाल बहुगुणा के अतिरिक्त सुरक्षा देवी, सुदेशा देवी, बचनी देवी, चंडी प्रसाद भट्ट, विरुष्का देवी आदि ने भी इस आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । इस आन्दोलन के लिए सुन्दरलाल बहुगुणा को 2009 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था। जबकि चंडी प्रसाद भट्ट को 1982 में रमन मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित किया गया था। इस आंदोलन की सबसे उल्लेखनीय विशेषता इसमें व्यापक पैमाने पर महिलाओं की भागीदारी थी।

2.सेव साइलेंट वैली आंदोलन, या शांत घाटी आन्दोलन 1973 : यह आंदोलन केरल के वर्षा-वनों में स्थित “साइलेंट वैली” को बचाने के लिए शुरू किया गया गया था | 1970 में केरल राज्य विद्युत बोर्ड ने केरल के पलक्कड़ जिले में कुंतीपुझा नदी पर एक हाइड्रो इलेक्ट्रिक डैम बनाने का प्रस्ताव रखा | इस बांध से साइलेंट वैली राष्ट्रीय उद्यान के प्रभावित होने का खतरा था | जंगलों के जल मग्न हो जाने और जैव विविधता के ह्रास का खतरा था | जैसे ही बांध बनने की घोषणा हुई वहां के लोग इसके विरुद्ध प्रदर्शन करने लगे | कवयित्री और कार्यकर्त्ता सुगाथा कुमारी व केरल शास्त्र साहित्य परिषद नामक संस्था का इस आन्दोलन में विशेष योगदान था |

3.एप्पिको आंदोलन, 1983 : यह आंदलोन कर्नाटक के उत्‍तर कन्‍नड़ और शिवमोगा जिले से 1983 में शुरू हुआ | इसका नेतृत्व पांडूरंग हेगड़े ने किया था | इसके तहत लोग ठेकेदारों द्वारा पेड़ों की कटाई का विरोध कर रहे थे | इस आंदोलन की विशेषता थी इसका विरोध करने का तरीका | इस आंदोलन में आन्दोलनकारियों ने अहिंसा का रास्ता अपनाया | लगभग 38 दिनों तक चले इस आंदोलन में जगह-जगह सभाएं की गईं , नुक्‍कड़ नाटक किए गए और लोगों को जागरूक किया गया |

4.बिश्‍नोई आंदोलन, 1730 : जोधपुर के महाराजा अभय सिंह ने एक नए महल के निर्माण के लिए कारीगरों को लकड़ी के इंतजाम का आदेश दिया | चूंकि राजस्थान में लकड़ी का अभाव था ,अतः यह निश्चय किया गया कि बिश्‍नोई समाज के गांव खेजरी से लकड़ीयां प्राप्त की जाएंगी | लेकिन जब सैनिक इस हेतु गए तब गाँव के लोगों ने इसका वरोध किया | बिश्नोई समाज के लोग पेड़ों की पूजा करते थे | इस आंदोलन में सैकड़ों लोगों ने अपने पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान की भी कुर्बानी दे दी | अमृता देवी ने ग्रामीणों को पेड़ बचाने के लिए आंदोलित किया | सैनिकों के साथ संघर्ष में बिश्नोई समुदाय के 363 ग्रामीण मारे भी गए |

5.नर्मदा बचाओ आन्दोलन : गुजरात में नर्मदा नदी पर निर्मित सरदार सरोवर बांध के विरोध में मेधा पाटेकर के नेत्रित्व में “नर्मदा बचाओ आंदोलन” वर्ष 1989 में शुरू हुआ | आंदोलनकारियों की मांग थी कि चूँकि इस परियोजना से दो लाख से ज्यादा लोग विस्थापित होंगे,आसपास के सैकड़ों गांव जलमग्न हो जाएंगे जिससे कृषि क्षेत्र में भारी कमी आएगी और क्षेत्र के पर्यावरण तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, अतः इस बांध का निर्माण न किया जाये | उन्होंने यह तर्क भी दिया कि बड़े बांधों के निर्माण से भूकंप का ख़तरा बढ़ सकता है | बांध-निर्माण विरोधी आंदोलनों के कारण 1993 में विश्व बैंक ने सरदार सरोवर परियोजना से अपना समर्थन वापस ले लिया | हालांकि बाद में नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने यह मांग भी रखी कि इस बांध का निर्माण सशर्त किया जाए जैसे बांध को एक सीमित ऊंचाई से अधिक ना बढ़ाना , विस्थापितों के पुनर्वास की व्यवस्था तथा भविष्य में किए जाने वाले ऐसे किसी भी बांध के निर्माण के समय पर्यावरण संरक्षण को ध्यान में रखना | (इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए देखें Sardar Sarovar Dam in Hindi )

6.बक्सवाहा गतिरोध : पिछले वर्ष 2021 में मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में राज्य सरकार ने एक निजी कंपनी को हीरों की खानों के खनन के लिए बक्सवाहा के जंगलों की कटाई करने की अनुमति दी थी । अनुमानत: इससे लगभग 382 हेक्टेयर में विस्तृत इस जंगल के 40 से ज्यादा विभिन्न प्रकार के दो लाख से भी अधिक वृक्षों को काटा जाना था | इस फैसले का देशव्यापी विरोध हुआ और यह मामला अंततः राष्ट्रीय हरित न्यायलय (NGT) तक पहुंचा |

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