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एग्री- वोल्टाइक प्रणाली (Agri-Voltaic System)

एग्री- वोल्टाइक प्रणाली जिसे कृषि- वोल्टीय प्रणाली या “सौर-खेती” के नाम से भी जाना जाता है, एक ऐसी तकनीक है जिसमें किसान अपने खेतों में फसल (विशेष तौर पर नकदी फसल) के उत्पादन के साथ-साथ बिजली का भी उत्पादन करते हैं| फोटो-वोल्टाइक तकनीक (PV) के तहत एक कृषि योग्य भूमि (एकल-भू-उपयोग तंत्र)  में बिजली उत्पादन के लिए फसल उत्पादन के साथ-साथ सौर-उर्जा पैनल स्थापित किये जाते हैं| इस तकनीक को पहली बार 1981 में एडॉल्फ गोएट्ज़बर्गर और आर्मिन ज़ास्ट्रो ने पेश किया था| 2004 में जापान में इस तकनीक का प्रोटोटाइप बनाया गया और कई परीक्षणों व सुधार के बाद, 2022 की शुरुआत में, पूर्वी अफ्रीका में पहला एग्रीवोल्टिक्स लॉन्च किया गया| आज भारत, U.S.A, फ्रांस, U.K और जर्मनी जैसे कई अन्य देश भी इस तकनीक का सफलतापूर्वक उपयोग कर रहे हैं | हालाँकि भारत में यह तकनीक अभी बाल्यावस्था में है| भारत में एग्री-वोल्टाइक प्रणाली की  इंस्टॉलेशन की क्षमता अभी 10 KWp से 3 MWp के बीच है| इस लेख में एग्री-वोल्टाइक तकनीक के विभिन्न पहलुओं की जानकरी पाठकों को देने का प्रयास किया गया है| अंग्रेजी माध्यम में इस लेख को पढने के लिए देखें  Agri Voltaic System

उम्मीदवार लिंक किए गए लेख में आईएएस हिंदी के बारे में जानकारी पा सकते हैं। 

प्रधानमंत्री किसान ऊर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाभियान (KUSUM)

नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय भारत सरकार (M.N.R.E) ने देश के किसानों की आय में बढ़ोतरी के उद्देश्य से साल 2019 में “प्रधानमंत्री किसान ऊर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाभियान”- कुसुम योजना को मंजूरी दी थी| इस योजना के अंतर्गत किसानों को अपना सोलर पम्प स्थापित करने और कृषि पम्पों के सौर-करण के लिए सब्सिडी प्रदान की जाती है| किसान दो मेगावाट तक ग्रिड से जुड़े सौर विद्युत संयंत्र भी स्थापित कर सकते हैं| यह योजना राज्य सरकारों के निर्धारित विभागों द्वारा लागू की जा रही है| कुसुम योजना के तहत किसानों को अपने खेतों या घर की छत पर सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने और डीजल या बिजली से चलने वाले पम्पिंग सेट्स को सौर बिजली से चलने वाले सोलर प्लांट से विस्थापित करने  के लिए  रियायती दरों पर आर्थिक सहायता दी जाती है| कुसुम योजना के तहत किसानों को सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने के लिए 30% से  60% तक अनुदान या आर्थिक मदद देकर प्रोत्साहित किया जाता है| इस योजना का लक्ष्य वर्ष 2022 तक कुल 25,750 मेगा वाट की सौर क्षमता स्थापित करना है| इस योजना के तीन घटक (components) हैं :

1.भूमि के ऊपर बनाए गए 10,000 मेगा वाट के विकेंद्रीकृत ग्रिडों को नवीकरणीय ऊर्जा संयंत्रों से जोड़ना;

2.राष्ट्र में 17 लाख 50 हज़ार सौर ऊर्जा चालित कृषि पंपों की स्थापना करना 

3.ग्रिड से जुड़े 10 लाख सौर ऊर्जा चालित कृषि पंपों का सौरीकरण करना 

हाल ही में इस योजना में कुछ बदलाव भी किये गए हैं| पहले घटक 1 के अंतर्गत विकेंद्रीकृत ग्राउंड माउंटेड ग्रिड कनेक्टेड नवीकरणीय विद्युत संयंत्र की स्थापना की बाध्यता थी जिसे अब परिवर्तित कर इसमें चारागाह और दलदली भूमि के स्वामित्व वाले किसानों को भी शामिल कर लिया गया है| इसके तहत बंजर, परती और कृषि भूमि के अलावा अब किसानों के चारागाह और दलदली भूमि पर भी सौर ऊर्जा संयंत्र स्थापित किए जा सकेंगे| दूसरा, सौर संयंत्र के आकार को घटा दिया गया है, जिससे छोटे किसान भी इसमें हिस्सा ले सकें| अब 500 किलो वाट से कम की सौर ऊर्जा परियोजनाओं की अनुमति भी दी जा सकती है|

उल्लेखनीय है कि राजस्थान देश का पहला राज्य  है, जहां कुसम योजना के तहत बिजली उत्पादन प्रक्रिया शुरू हुई है| जयपुर जिले के कोटपूतली के भालौजी गांव में इस योजना के तहत विद्युत उत्पादन की शुरूआत की गई|

इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए देखें हमारा अंग्रेजी लेख  Kishan Urja Suraksha Utthan Mahabhiyan (KUSUM)

एग्री-वोल्टाइक प्रणाली के लाभ 

एग्री-वोल्टाइक प्रणाली आज निम्नलिखित  कारणों से किसानों के बीच लोकप्रिय हो रही है : 

  • एग्री-वोल्टाइक प्रणाली की बढती लोकप्रियता का सबसे अहम कारण है आज की बढती उर्जा-मांग और विश्व के समक्ष उत्पन्न होती खाद्य सुरक्षा की चिंता; और एग्री- वोल्टाइक प्रणाली इन दोनों समस्याओं से एक साथ जूझने में हमारी सहायता कर सकती है|
  • एग्री-वोल्टाइक प्रणाली में सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए स्थापित किए गए सौर पैनल फसलों को छाया भी प्रदान करते हैं जिससे फसलों से वाष्पन (evaporation) की दर धीमी होती है और पौधों द्वारा जल का अनुकूलतम उपयोग संभव हो पाता है|
  • सौर पैनल न केवल पौधों और मिट्टी से पानी के वाष्पन की दर को कम करते हैं, बल्कि इनकी छाया से, उच्च तापमान के कारण होने वाले तनाव और पराबैंगनी किरणों (UV rays) के नुकसान से भी पौधे बचे रहते हैं|
  • एक अनुमान के अनुसार कृषि क्षेत्र में उर्जा की खपत लगभग 7-8 % है, अतः बिजली की दर में अच्छी बचत के कारण किसानों की आय में वृद्धि होती है|
  • देश व दुनिया में खाद्य एवं ऊर्जा की बढती जरूरतों को ध्यान में रखते हुए यह तकनीक भविष्य के लिए अत्यंत लाभकारी है|
  • राजस्थान,तमिल नाडु, गुजरात, हरियाणा, पंजाब व कर्नाटक जैसे राज्यों में यह तकनीक विशेष रूप से प्रभावी सिद्ध हो सकती है जहाँ किसान को वर्ष में तकरीबन 300 दिन धूप उपलब्ध हो सकती  है|
  • उपरोक्त राज्यों की क्षमताओं को देखते हुए भारत सरकार ने “राष्ट्रीय सौर मिशन” के तहत 1,00,000 मेगा वाट (100 गीगा वाट) सौर फोटो-वोल्टाइक आधारित बिजली उत्पादन क्षमता प्राप्त करने व 2022 के अंत तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य तय किया है|
  • इस प्रणाली में PV- मॉड्यूल की ऊपरी सतह से बारिश का पानी एकत्रित करना भी संभव है, जिससे किसानों को दोहरा लाभ हो सकता है क्योंकि फसलों की सींचाई के लिए उन्हें पुनः विद्युत् उपयोग की आवश्यकता नहीं रह जाती | इसके लिए ‘फोटोवोल्टिक मॉड्यूल’ को माइल्ड स्टील या आयरन एंगल के बने  ढाँचे पर जमीन से एक निश्चित ऊँचाई पर इस तरह से स्थापित किया जाता है कि जिससे सोलर पैनल का झुकाव जमीन की सतह से लगभग 26 डिग्री के कोण पर रहे|
राष्ट्रीय सौर मिशन 

हम जानते हैं कि दुनिया में जीवाश्म ईंधन (फॉसिल फ्यूल) के स्रोत सीमित हैं और यदि उनका उपयोग विवेकपूर्ण ढंग से न किया जाए तो शीघ्र ही हमारे लिए ऊर्जा का महान संकट उत्पन्न हो जाएगा | दूसरा तरीका यह हो सकता है कि ऊर्जा के अधिक से अधिक नवीकरणीय स्रोतों के उपयोग के क्षेत्र में काम किए जाएं| इसी के तहत भारत सरकार ने 2009 में राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन शुरू किया है जिसे जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय सौर मिशन (JNNSM) भी कहा जाता है| यह 2008 में शुरू किये गए “नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज” (NAPCC) के आठ मिशनों में से एक है (शेष 7 मिशन हैं : उन्नत ऊर्जा दक्षता के लिए राष्ट्रीय मिशन (National Mission for Enhanced Energy Efficiency), सतत पर्यावास पर राष्ट्रीय मिशन (National Mission on Sustainable Habitat), राष्ट्रीय जल मिशन (National Water Mission), हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को अनुरक्षित रखने हेतु राष्ट्रीय मिशन (National Mission for Sustaining Himalayan Ecosystem), हरित भारत के लिए राष्ट्रीय मिशन (Green India Mission), सतत कृषि के लिए राष्ट्रीय मिशन (National Mission for Sustainable Agriculture) तथा जलवायु परिवर्तन के लिए सामरिक ज्ञान पर राष्ट्रीय मिशन (National Mission on Strategic Knowledge for Climate Change)| इस मिशन के तहत भारत सरकार ने 2022 के अंत तक 175 गीगा वाट नवीकरणीय ऊर्जा संस्‍थापित क्षमता का लक्ष्‍य रखा है| इसमें से 60 गीगा वाट पवन ऊर्जा से, 100 गीगा वाट सौर ऊर्जा से, 10 गीगा वाट बायो मास ऊर्जा से तथा 5 गीगा वाट लघु पनबिजली से प्राप्त किया जाना शामिल है|

योजना आरंभ के समय सौर ऊर्जा का लक्ष्य 20 गीगा वाट  रखा गया था किंतु बाद में 2015 में भारत सरकार के द्वारा इसे बढ़ाकर 100 गीगावॉट कर दिया गया है| 

एग्री-वोल्टाइक तकनीक कैसे काम करती है ? 

फोटो-वोल्टाइक प्रणाली को इस तकनीक से डिजाइन किया जाता है कि दो सारणियों के बीच उपयुक्त स्थान शेष हो जहाँ फसलें बोई जा सके। ऐसी प्रणाली में इस प्रकार की फसल का चुनाव किया जाता है जो कम ऊँचाई वाली हो तथा जिसके लिए कम जल की आवश्यकता हो और जो कुछ हद तक छाया को सहन कर सकें|  मोंठ, मूँग, ग्वार, लोबिया, शंखपुष्पी, घृतकुमारी, सोनामुखी, बैंगन, टमाटर, आलू, पालक और ककड़ी एवं मिर्च इसके अच्छे उदाहारण हो सकते हैं| इस प्रणाली में तीन प्रकार की डिजाइनों में फोटो वोल्टाइक मॉड्यूल की स्थापना की जाती है : (1) एकल-पंक्ति फोटो-वोल्टिक सारणी जिसमें दो पक्तियों के बीच की दूरी 3 मीटर होती है;  (2) दोहरी-पक्ति फोटो-वोल्टिक सारणी जिसमें दो पक्तियों के बीच की दूरी 6 मीटर होती है; तथा (3) तीसरी पंक्ति फोटो-वोल्टिक सारणी जिसमें दो पक्तियों के बीच की दूरी 9 मीटर तक होती है| फोटो-वोल्टिक पैनल से पढ़ने वाली छाया वर्षा के समय तथा लगाए गए पौधों की ऊचाई के अनुसार बदली जा सकती है| किंतु स्थापना (इंस्टालेशन) में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि ‘फोटोवोल्टिक मॉड्यूल’ की कतारों और इसके चारों ओर इतना फासला अवश्य  रहे जिससे एक कतार के पैनल की छाया दूसरों पर नहीं पड़े, अन्यथा सौर उर्जा का उत्पादन संभव नहीं हो पाएगा| इस प्रणाली में फसल एवं बिजली उत्पादन के साथ-साथ वर्षा जल संचयन (Rain water harvesting) संरचना का भी निर्माण किया जा सकता है| इसके लिए सौर-पैनल के ठीक नीचे ढाल (स्लोप) दे कर एक पीवीसी पाइप स्थापित कर दिया जाता है ताकि सौर पैनल के ऊपर गिरने वाले  वर्षा जल को गटर/चैनल के द्वारा एक टैंक में इकठ्ठा किया जा सके|

एग्री-वोल्टाइक प्रणाली की समस्या / सीमाएं 

एग्री-वोल्टाइक प्रणाली की कुछ सीमाएं भी हैं| यह एक भूमि-आधारित उपक्रम है जिसमें अत्यधिक भूमि की आवश्यकता होती है| अनुमानतः प्रति मेगावाट उत्पादन के लिए लगभग दो हेक्टेयर जमीन की जरूरत होती है| दूसरा, इसके समुचित उपयोग के लिए एक खुला क्षेत्र चाहिए ताकि धूप प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो सके| झारखण्ड, पूर्वोत्तर भारत, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में इसका लाभ उठाना कठिन हो सकता है| बरसाती मौसम में भी जब आकाश में बादल छाय होते हैं तब यह प्रणाली कारगर नहीं रह जाती और किसानों को उर्जा के वैकल्पिक स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है| इस प्रणाली की एक अन्य समस्या यह है कि सौर पैनल से होने वाली छाया के कारण कई बार पौधों में पीड़क लग जाते हैं जिसपर ध्यान देने की आवश्यकता है |

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