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पंचशील सिद्धांत और भारतीय विदेश नीति

वर्ष 1947 में भारत की आजादी के साथ एशिया और अफ्रीका के विभिन्न देश गुलामी की जंजीरों से मुक्त हो रहे थे। विऔपनिवेशीकरण की प्रक्रिया समूचे एशिया व अफ्रीका में धीरे धीरे फैलती जा रही थी। यह दौर शीत युद्ध का दौर था और समूची दुनिया संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के नेतृत्व में दो गुटों में बंटी हुई थी।

इसी परिवेश में नए स्वतंत्र होने वाले देशों के समक्ष अपनी आजादी को स्थायित्व प्रदान करने, विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने, अपनी संप्रभुता की रक्षा करने, अपनी राजनीतिक सीमाओं की रक्षा करने और अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शिकार होने से बचने जैसी चुनौतियां विद्यमान थी। भारत भी इन चुनौतियों से अछूता नहीं था।

अतः भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इन चुनौतियों में से अधिकांश को साधने के लिए पंचशील के सिद्धांत को अपनाया। यह सिद्धांत मूल रूप से पड़ोसी चीन द्वारा उत्पन्न की जाने वाली भावी चुनौतियों से निपटने के लिए अपनाया गया था।

 

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पंचशील समझौता / पंचशील सिद्धांत

वर्ष 1954 में भारत और चीन के बीच पंचशील समझौता हस्ताक्षरित किया गया था। इसका मूल उद्देश्य दोनों देशों के बीच शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की व्यवस्था कायम करना था।

वस्तुतः पंचशील सिद्धांतों के माध्यम से ऐसे नैतिक मूल्यों का समुच्चय तैयार करना था, जिन्हें प्रत्येक देश अपनी विदेश नीति का हिस्सा बना सके और एक शांतिपूर्ण वैश्विक व्यवस्था का निर्माण कर सके।

पंचशील सिद्धांतों के अंतर्गत शामिल किए गए प्रमुख पांच सिद्धांत निम्नानुसार हैं-

  • प्रत्येक देश एक दूसरे की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का परस्पर सम्मान करेंगे।
  • गैर-आक्रमण का सिद्धांत अपनाया गया। इसके तहत तय किया गया कि कोई भी देश किसी दूसरे देश पर आक्रमण नहीं करेगा।
  • समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले देश एक दूसरे के आंतरिक मामलों में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगे।
  • इसके तहत तय किया गया कि सभी देश एक दूसरे के साथ समानता का व्यवहार करेंगे तथा परस्पर लाभ के सिद्धांत पर काम करेंगे।
  • सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत इसमें ‘शांतिपूर्ण सह अस्तित्व’ (Peaceful Coexistence) का माना गया है। इसके तहत कहा गया है कि सभी देश शांति बनाए रखेंगे और एक दूसरे के अस्तित्व पर किसी भी प्रकार का संकट उत्पन्न नहीं करेंगे।

पंचशील समझौता और भारत-चीन युद्ध

  • वर्ष 1954 में चीन के प्रधानमंत्री झोउ एन लाई ने अपनी भारत यात्रा के दौरान कहा था कि पंचशील सिद्धांत उपनिवेशवाद के अंत और एशिया व अफ्रीका के नए राष्ट्रों के उद्भव में अत्यंत सहायक सिद्ध होंगे।
  • इस दौर से ही भारत ने ‘हिंदी चीनी भाई-भाई’ का नारा दिया और चीन पर अत्यधिक भरोसा किया। भारत ने वर्ष 1955 में चीन को इंडोनेशिया में आयोजित होने वाले एशियाई अफ्रीकी देशों के बांडुंग सम्मेलन में भी आमंत्रित किया था।
  • इसी बीच अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश को लेकर भारत और चीन के मध्य विवाद चल रहा था। चीन इन दोनों ही भारतीय क्षेत्रों को अपना हिस्सा बताता था। इन विवादों के कारण भारत और चीन के संबंध धीरे-धीरे बिगड़ते जा रहे थे।
  • चीन संपूर्ण तिब्बत को अपना हिस्सा मानता था और इसी बीच भारत ने तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा को भारत में शरण दे दी थी, इससे चीन अत्यधिक रुष्ट हो गया था।
  • भारत और चीन के बीच वर्ष 1954 में हस्ताक्षरित हुए इस पंचशील समझौते की समयावधि 8 वर्षों की थी, लेकिन 8 वर्षों के बाद इसे पुनः आगे बढ़ाने पर विचार नहीं किया गया। पंचशील समझौते की समयावधि समाप्त होते ही ऊपर वर्णित मुद्दों को आधार बनाकर वर्ष 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में भारत न सिर्फ पराजित हुआ, बल्कि उसके विभिन्न हिस्सों पर चीन ने कब्ज़ा भी कर लिया। भारत के वे हिस्से आज भी चीन के कब्जे में ही हैं।

पंचशील सिद्धांतों का महत्व

  • जब शीत युद्ध के कारण से समूची दुनिया तनाव की स्थिति में थी और विश्व में भय के माध्यम से संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा था, तो ऐसे परिवेश में, भारत द्वारा की गई यह एक अनोखी पहल थी। इसके माध्यम से भारत ने ‘सार्वभौमिकता का सिद्धांत’ प्रस्तुत किया था, जो ‘शक्ति संतुलन की भय पर आधारित अवधारणा’ के विपरीत था।
  • इन्हीं सिद्धांतों के आलोक में बांडुंग सम्मेलन के पश्चात गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव पड़ी। जिसके परिणाम स्वरूप नव स्वतंत्र देश शीत युद्धकालीन तनावपूर्ण माहौल से अलग होकर अपने विकास पर ध्यान केंद्रित कर सके थे।
  • ये सिद्धांत वर्तमान में म्याँमार, इंडोनेशिया, युगोस्लाविया, विभिन्न अफ्रीकी देशों और विश्व के अनेक देशों द्वारा अपनाए गए हैं क्योंकि ये सिद्धांत एक न्यायसंगत और शांतिपूर्ण विश्व व्यवस्था स्थापित करने के लिए संकल्पित हैं।
  • ये सिद्धांत अपनी प्रकृति में शाश्वत किस्म के हैं और विश्व का नैतिक मार्गदर्शन करते हैं। ये सिद्धांत विश्व के कमजोर और ताकतवर, दोनों तरह के देशों को एक समान मंच प्रदान करने तथा सभी के साथ समानता के व्यवहार करने की वकालत करते हैं।
  • पंचशील सिद्धांत संयुक्त राष्ट्र घोषणा पत्र के प्रावधानों से मेल खाते हैं और विभिन्न देशों के मैत्रीपूर्ण संबंधों और सहयोगात्मक रवैये को बढ़ावा देने का प्रयास करते हैं। वर्ष 1974 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था स्थापित करने से संबंधित घोषणा पत्र में पंचशील सिद्धांतों को शामिल किया था।
  • इन संबंधों के महत्व को रेखांकित करते हुए एक बार जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि “यदि इन सिद्धांतों को सभी देश अपने आपसी संबंधों में शामिल कर लेते हैं, तो शायद ही कोई ऐसा विवाद बचेगा, जो विश्व के देशों के बीच शेष रह जाए।”

पंचशील सिद्धांतों की सीमाएं

  • चूँकि भारत इन सिद्धांतों का प्रतिपादक रहा है, इसीलिए भारत इनका मजबूती से पालन करता रहा है, जबकि चीन इन सिद्धांतों को भारत की कमजोरी मानता रहा है। इसीलिए चीन ने इस परिस्थिति का लाभ उठाकर भारत पर आक्रमण कर दिया था और अभी भी सीमा पर तनाव उत्पन्न करता रहता है।
  • इन सिद्धांतों के अंतर्गत आदर्शवाद की पराकाष्ठा को अपनाया गया है, जबकि व्यावहारिकता पर कम ध्यान दिया गया है। यह स्थिति अंतरराष्ट्रीय राजनीति में, विशेष रूप से भारत चीन संबंधों में अधिक कारगर साबित नहीं हो सकी है।
  • वर्तमान में भी विश्व के अनेक देश अल्पविकसित या विकसित अवस्था में मौजूद हैं। ऐसे में, पंचशील सिद्धांत उन देशों की व्यावहारिक आवश्यकताएं पूरी नहीं कर सकते हैं और उन्हें पंचशील सिद्धांतों के अतिरिक्त अन्य वैकल्पिक रास्ते तलाश करने होते हैं।

निष्कर्ष

इस प्रकार, हमने समझा कि पंचशील सिद्धांत मुख्य रूप से विदेश नीति में शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की भावना स्थापित करने का प्रयास करते हैं। ये सिद्धांत एक ऐसे विश्व का निर्माण करने की बात करते हैं, जिसमें विभिन्न देश आपसी सहयोग के माध्यम से स्वयं का और दूसरे देश का विकास सुनिश्चित कर सकें तथा अपनी संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा कर सकें। बेशक इन सिद्धांतों की कुछ खामियां रही है और भारत को 1962 में चीन का आक्रमण भी झेलना पड़ा है, लेकिन इन सबके बावजूद ये ऐसे नैतिक सिद्धांत हैं, जिन्हें आज विश्व के अधिकांश देश अपना चुके हैं और इनका महत्व वर्तमान समय में भी अत्यधिक है।

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