प्रतिवर्ष 8 मई को पूरी दुनिया में विश्व थैलेसीमिया दिवस (World Thalassemia Day) के रूप में मनाया जाता है। इसका उद्देश्य थैलेसीमिया के बारे में जागरूकता पैदा करना है जिससे इस बीमारी को अन्य लोगों तक पहुंचने से रोका जा सके । विश्व थैलेसीमिया दिवस 1994 से प्रतिवर्ष “थैलेसीमिया इंटरनेशनल फेडरेशन” (Thalassemia International Federation) द्वारा मनाया जा रहा है जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O) की एक सहकारी संस्था है । इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए देखें हमारा अंग्रेजी लेख World Thalassemia Day
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थैलेसीमिया क्या है ?
थैलेसीमिया एक ऐसी आनुवंशिक (genetic) बीमारी है जो मनुष्य के रक्त से संबंधित है । इस व्याधि से पीड़ित व्यक्ति के शरीर की लाल रक्त कोशिकाओं (R.B.C) में पर्याप्त हीमोग्लोबिन का निर्माण नहीं हो पाता है। हीमोग्लोबिन लाल रक्त कोशिकाओं में पाया जाने वाला एक प्रोटीन है, जो कि शरीर के अंगों और ऊतकों में ऑक्सीजन का वाहक है। इस प्रकार पीड़ित व्यक्ति “एनीमिया” से ग्रसित हो जाता है और उसे जीवित रहने के लिये निरंतर अंतराल पर (लगभग दो से तीन सप्ताह में एक बार) रक्त चढ़ाने की आवश्यकता होती है। आमतौर पर शरीर में लाल रक्त कोशिकाओं की उम्र करीब 120 दिन की होती है, लेकिन थैलेसीमिया से पीड़ित व्यक्ति के शरीर में इनकी उम्र केवल 20 दिन ही रह जाती है अतः मरीज को बाह्य रक्त की आवश्यकता पड़ती है । यह बीमारी कोशिकाओं के D.N.A में म्यूटेशन के कारण होती है | रक्त की कमी (एनीमिया), कमजोर हड्डियाँ, असामान्य रूप से धीमा शारीरिक विकास, भूख में कमी , त्वचा का पीलापन इत्यादि इस बीमारी के सामान्य लक्षण हैं ।
थैलेसीमिया के प्रकार : थैलेसीमिया के 2 प्रकार हैं :- अल्फा थैलेसीमिया और बीटा थैलेसीमिया । हम जानते हैं कि हीमोग्लोबिन मोलेक्युल- चेन्स से बने होते हैं, जिन्हें “अल्फा” और “बीटा” चेन्स के नाम से जाना जाता है। यह कोशिकाओं के D.N.A में म्यूटेशन के कारण प्रभावित होती हैं। थैलेसीमिया में या तो अल्फा चेन्स या फिर बीटा चेन्स को कम किया जाता है जिसके आधार पर अल्फा थैलेसीमिया या बीटा थैलेसीमिया की पहचान की जाती है ।
अल्फा थैलेसीमिया (Alpha Thalassemia) : इसमें हीमोग्लोबिन -H और हाइड्रोप्स फेटालिस (हाइड्रॉप्स फेटालिस एक ऐसी गंभीर स्थिति है जो भ्रूण के शरीर में दो या इससे अधिक हिस्सों में असामान्य मात्रा में तरल -जमाव के कारण उत्पन्न होती है) शामिल हैं। अल्फा थैलेसीमिया के लिए 4 जीन्स ज़िम्मेदार होते हैं, जिनमें से दो शिशु अपने माता-पिता से प्राप्त करता है । अल्फा थैलेसीमिया के निम्नलिखित वर्ग हैं :
1.सिंगल म्युटेटेड जीन्स (Single -Mutated Genes) : इसमें मरीज में थैलेसीमिया का कोई भी लक्षण नजर नहीं आता लेकिन वह इस बीमारी के वाहक होते हैं और इसे अपनी अगली पीढ़ी को स्थानांतरित कर सकते हैं।
2.डबल म्युटेटेड जीन्स (Double Mutated Genes) : इसमें थैलेसीमिया के गंभीर लक्षण स्पष्ट तौर पर दृष्टिगोचर होते हैं।
3.तीन म्युटेटेड जीन्स (Three Mutated Genes) : इसमें दौर में बीमारी के लक्षण मध्यम से गंभीर तक हो सकते हैं।
4.चार म्युटेटेड जीन्स (Inherited- Four Mutated Genes) : यह बहुत ही दुर्लभ स्थिति है।
बीटा थैलेसीमिया (Beta Thalassemia) : बीटा थैलेसीमिया अधिकतर 6 से 12 साल के बच्चों को प्रभावित करता है। इसके लिए 2 जीन्स ज़िम्मेदार होते हैं, जिनमें से हर एक को मरीज अपने माता और पिता से प्राप्त करता है। बीटा थैलेसीमिया के निम्नलिखित वर्ग हैं :
1.सिंगल म्युटेटेड जीन्स (Single -Mutated Genes) : इसमें मरीज में हलके लक्षण देखने को मिलते हैं। इस स्थिति को थैलेसीमिया माइनर (Thalassemia Minor) या बीटा थैलेसीमिया कहा जाता है। (थैलेसीमिया माइनर-जब पति या पत्नी में से किसी एक के क्रोमोजोम खराब होते हैं तो बच्चे को माइनर थैलेसीमिया होता है)
2.डबल म्युटेटेड जीन्स (Double Mutated Genes) : इसमें मध्यम से गंभीर लक्षण देखने को मिलते हैं। इस स्थिति को थैलेसीमिया मेजर (Thalassemia Major) कहा जाता है। (थैलेसीमिया मेजर-यदि जन्म लेने वाले बच्चे के माता-पिता दोनों के जींस में थैलेसीमिया माइनर होता है, तो बच्चे को थैलेसीमिया मेजर हो सकता है । माता व पिता दोनों में से एक ही में थैलेसीमिया माइनर होने पर बच्चे को थैलेसीमिया मेजर की संभावना कम ही होती है)
कुछ परीक्षोपयोगी महत्वपूर्ण तथ्य
- भारत को दुनिया में “थैलेसीमिया की राजधानी” कहा जाता है क्योंकि यहाँ विश्व में थैलेसीमिया के सर्वाधिक मरीज हैं । विश्व भर के कुल थैलेसीमिया मरीजों का लगभग 4 % अकेले भारत में है। इनमें से 1,00,000 से अधिक मरीज गंभीर रूप से ग्रस्त हैं, जिन्हें हर महीने रक्त की आवश्यकता होती है । भारत के सभी राज्यों में से, पश्चिम बंगाल थैलेसीमिया से सबसे अधिक प्रभावित राज्य है।
- समुचित इलाज के आभाव में भारत में थैलेसीमिया के कई मरीज़ 20 वर्ष की आयु प्राप्त करने से पहले ही अपनी जान गवां देते हैं।
- भारत में थैलेसीमिया का पहला मामला 1938 में सामने आया था।
- भारत में प्रतिवर्ष थैलेसीमिया से ग्रस्त 10,000 बच्चे जन्म लेते हैं, जिनमें इस बीमारी की पहचान उनके जन्म से 3 महीने बाद संभव हो पाती है ।
- थैलेसीमिया कोई संक्रामक बीमारी नहीं है,अतः इसके मरीज से किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए ।
बचाव एवं उपचार
थैलेसीमिया का पता रक्त परीक्षण से किया जाता है। शुरुआती दौर में यह एक उपचार -योग्य व्याधि है, जिसे “केलेशन थेरेपी” (शरीर से अतिरिक्त आयरन को बाहर निकालने प्रक्रिया) से उपचारित किया जा सकता है। किंतु क्रांतिक स्थिति में अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण (बोन मैरो ट्रांसप्लांट) को ही थैलेसीमिया का एकमात्र उपचार माना जाता है । फोलिक एसिड का सेवन , गॉलब्लेडर को रिमूव करने के लिए सर्जरी तथा स्प्लीन को हटाने के लिए सर्जरी, उपचार के अन्य तरीकों में शामिल हैं । लेकिन थैलेसीमिया के उपचार में सबसे बड़ी बाधा यह है कि केवल 20% से 30% मरीजों को ही उनके रक्त का दाता (डोनर) मिल पाता है। दूसरा, रक्त का प्रत्यारोपण (ट्रांसप्लांट) एक खर्चीला उपचार है।
शरीर में होने वाली रक्त संबंधी अन्य व्याधियां
शरीर में रक्त संबंधी व्याधियां (ब्लड डिसऑर्डर) कई तरह के होते हैं जैसे ल्यूकेमिया (Leukemia) ,लिम्फोमा (Lymphoma), हीमोफीलिया, थ्रोम्बोसाइटोपेनिया इत्यादि |
ल्यूकेमिया /श्वेतरक्तता (Blood Cancer) : ब्लड कैंसर जिसे “ल्यूकेमिया” कहा जाता है , अस्थि मज्जा और रक्त का कैंसर है। श्वेत रक्त कोशिका (W.B.C), या श्वेताणु या ल्यूकोसाइट्स के कारण यह नाम पड़ा जो कि हमारे शरीर की संक्रामक रोगों और बाह्य पदार्थों से रक्षा करने वाली प्रतिरक्षा प्रणाली की कोशिकायें हैं और इस कैंसर से प्रभावित होती है । यह व्याधि शरीर में तब उत्पन्न होती है जब सफेद रक्त कोशिकाओं के DNA को क्षति पहुंचती है। विकृत कोशिकाएं अस्थि मज्जा में असामान्य एवं अनियंत्रित गति से बढ़ने लगती हैं । अस्थि मज्जा ही बाल्यावस्था के बाद शरीर में रक्त उत्पादन का अंग है। ये विकृत कोशिकाएं अस्वस्थ होती हैं और सामान्य कोशिकाओं की तुलना में अधिक समय तक जीवित भी रहती हैं तथा अस्थि मज्जा में रहकर स्वस्थ रक्त कोशिकाओं को सामान्य रूप से बढ़ने और कार्य करने से बाधित करती हैं। यह बच्चों में होने वाले सभी कैंसर का लगभग 30% है। इसके सामान्य लक्षण हैं हड्डी और जोड़ों में दर्द,सिरदर्द, मतली, उल्टी, चक्कर आना, चलने में परेशानी या वस्तुओं को संभालने में परेशानी, थकान, कमजोरी, पीली त्वचा, रक्तस्राव या चोट लगना, बुखार, वजन कम होना आदि। ल्यूकेमिया या रक्त कैंसर उपचार प्रक्रिया में कीमोथेरेपी, सर्जरी, रेडियोथेरेपी या सभी का संयोजन शामिल है। ल्यूकेमिया के दो प्रकार होते हैं – तीव्र ल्यूकेमिया और पुरानी ल्यूकेमिया। तीव्र ल्यूकेमिया मरीज के शारीर में तीव्र गति से विकसित होती है जबकि पुरानी ल्यूकेमिया में, समय के साथ-सस्थ स्थिति गंभीर होती जाती है यदि सही समय पर उपचार न किया जाए ।
लिम्फोमा : लिम्फोमा एक ऐसा कैंसर है जो प्रतिरक्षा प्रणाली (Immune system) की कोशिकाओं में शुरू होता है जिन्हें “लिम्फोसाइट्स” कहा जाता है। ये लिम्फोसाइट कोशिकाएं लिम्फ नोड्स (Lymph nodes), प्लीहा (Spleen), थाइमस (Thymus), अस्थि मज्जा (Bone marrow) और शरीर के अन्य भागों में मौजूद होती हैं। लम्बे समय तक बुखार से ग्रसित रहना ,गले या बगल के आस-पास गांठे, वज़न का घटना और बहुत ज्यादा पसीना आना इसके मुख्य लक्षण हैं।
एनीमिया : सरल शब्दों में, शरीर में हुई खून की कमी एनीमिया है। एनीमिया होने पर शरीर में आयरन की कमी होने लगती है और इस वजह से हीमोग्लोबिन बनना कम हो जाता है। हीमोग्लोबिन की कमी से ऑक्सीजन का प्रवाह कम होने लगता है जिससे शरीर को पर्याप्त ऊर्जा नहीं मिल पाती। एनीमिया का सबसे आम रूप आयरन की कमी से होने वाला एनीमिया है। थकान,दुर्बलता,पीली त्वचा,अनियमित दिल की धड़कन,सांस लेने में कठिनाई,चक्कर आना,
सिर दर्द इत्यादि इसके सामान्य लक्षण हैं ।
हीमोफीलिया : यह एक आनुवांशिक बीमारी है जिसमें पीड़ित व्यक्ति के शरीर में खून का थक्का बनना बंद हो जाता है। इसका कारण है खून में थक्के बनाने वाले घटक “प्लाज्मा” की कमी । आमतौर पर जब शरीर का कोई हिस्सा कट जाता है तो प्लाज्मा खून में मौजूद प्लेटलेट्स से मिलकर उसे गाढ़ा कर देता है जिससे खून बहना बंद हो जाता है । लेकिन इस व्याधि से पीड़ित व्यक्ति के शरीर में एक बार उत्तकों के क्षतिग्रस्त हो जाने पर रक्त के बहाव को रोकना कठिन हो जाता है । नाक से लगातार खून बहना, मसूड़ों से खून निकलना, त्वचा का आसानी से छिल जाना और जोड़ों में दर्द रहना इस बीमारी के सामान्य लक्षण हैं।
थ्रोम्बोसाइटोपेनिया : थ्रोम्बोसाइटोपेनिया एक अन्य रक्त विकार है, जिसमें मरीज के खून में “प्लेटलेट्स” जिन्हें थ्रोम्बोसाइट्स कहते हैं ,की कमी हो जाती है। सामान्यतः एक स्वस्थ्य व्यक्ति के रक्त में थ्रोम्बोसाइट्स की गणना 1, 50,000 से 4 50,000 प्रति माइक्रो लीटर के बीच होती है । जबकि थ्रोम्बोसाइटोपेनिया से पीड़ित व्यक्ति में यह गणना 50, 000 प्रति माइक्रो लीटर से भी कम हो जाती है । यह एनिमिया के बाद रक्त का सबसे सामान्य रोग है। त्वचा में सतही रक्तस्राव होना, कटने पर देर तक रक्त बहना, मसूढ़ों या नाक से रक्त बहना, मूत्र या मल में रक्त का आना, मासिक धर्म के दौरान असामान्य रक्तस्राव होना, थकान, तिल्ली का बढ़ना, पीलिया इत्यादि इस बीमारी के सामान्य लक्षण हैं ।
अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQ)
1.थैलेसीमिया दिवस पहली बार कब मनाया गया था?
- थैलेसीमिया दिवस पहली बार 8 मई 1994 को मनाया गया था।
2.थैलेसीमिया मनुष्य के किस अंग से संबंधित बीमारी है ?
- थैलेसीमिया मनुष्य के रक्त को प्रभावित करता है ; इस व्याधि से पीड़ित व्यक्ति के शरीर की लाल रक्त कोशिकाओं (R.B.C) में पर्याप्त हीमोग्लोबिन का निर्माण नहीं हो पाता है।
3.थैलेसीमिया कितने प्रकार का होता है ?
- थैलेसीमिया के 2 प्रकार हैं :- अल्फा थैलेसीमिया और बीटा थैलेसीमिया ।
4.थैलेसीमिया के सामान्य लक्षण क्या है ?
- रक्त की कमी (एनीमिया), कमजोर हड्डियाँ, साँस लेने में तकलीफ ,असामान्य रूप से धीमा शारीरिक विकास, भूख में कमी,सर्दी -जुकाम से ग्रस्त रहना , त्वचा का पीलापन इत्यादि इस बीमारी के सामान्य लक्षण हैं ।
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