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इजरायल और फिलिस्तीन के संघर्ष का समुचित आकलन

‘संघ लोक सेवा आयोग’ (UPSC) द्वारा आयोजित की जाने वाली ‘भारतीय प्रशासनिक सेवा’ (IAS) की परीक्षा के पाठ्यक्रम की दृष्टि से ‘अंतरराष्ट्रीय संबंध’ का बहुत अधिक महत्व है। इस विषय से संबंधित प्रश्न इस परीक्षा प्रणाली के तीनों चरणों में पूछे जाते रहे हैं। प्रारंभिक परीक्षा, मुख्य परीक्षा और साक्षात्कार तीनों की चरणों में अंतरराष्ट्रीय संबंध अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लगभग प्रतिवर्ष यूपीएससी द्वारा आयोजित की जाने वाली आईएएस परीक्षा के विभिन्न चरणों में इस विषय से संबंधित प्रश्न पूछे जाते हैं। ऐसी स्थिति में, इस परीक्षा की तैयारी कर रहे प्रत्येक अभ्यर्थी के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह अंतरराष्ट्रीय संबंध से संबंधित पाठ्यक्रम को भी अपनी तैयारी के दौरान पर्याप्त महत्व दे। इस परीक्षा के दौरान अंतरराष्ट्रीय संबंध विषय से संबंधित पूछे जाने वाले प्रश्न सामान्यतः समसामयिक परिपेक्ष्य में घटित होने वाली अंतरराष्ट्रीय घटनाओं पर अवलंबित होते हैं। अतः अभ्यर्थियों को इस खंड की तैयारी करने के लिए समसामयिक घटनाओं पर अधिक ध्यान देना चाहिए।

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इजरायल और फिलिस्तीन संघर्ष – यूपीएससी परीक्षा के लिए महत्व

आज के अपने इस आलेख में हम अंतरराष्ट्रीय संबंध से संबंधित एक महत्वपूर्ण टॉपिक की चर्चा करेंगे। यह टॉपिक न सिर्फ वैश्विक परिपेक्ष में एक प्रमुख स्थान रखता है, बल्कि भारत के दृष्टिकोण से भी इसका विशेष महत्व है और यह टॉपिक है- ‘इजरायल और फिलिस्तीन के मध्य लंबे समय से चलता आ रहा संघर्ष’। इस आलेख के अंतर्गत इजरायल और फिलिस्तीन के विवाद से संबंधित विभिन्न पहलुओं की चर्चा करेंगे। 

हम इस आलेख में देखेंगे कि इन दोनों देशों के बीच संघर्ष के प्रमुख कारण क्या है? उस की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि क्या है? इनके संघर्ष की स्थिति वर्तमान समय तक कैसे पहुँची और वर्तमान में इन दोनों देशों के मध्य संघर्ष के लिए कौन से कारक जिम्मेदार हैं? इसके साथ ही हम अपने इस आलेख के अंतर्गत इजरायल और फिलिस्तीन के संबंध में विभिन्न देशों के नजरियों की भी चर्चा करेंगे। इस आलेख में हम इन दोनों देशों के प्रति भारत के दृष्टिकोण का भी अवलोकन करेंगे। इस प्रकार, हम कोशिश करेंगे कि इजरायल और फिलिस्तीन से संबंधित समस्त मसलों को परीक्षा के दृष्टिकोण से समझ सकें, ताकि इस परीक्षा की तैयारी कर रहे समस्त अभ्यर्थियों को इस विषय से संबंधित किसी भी तरह की परेशानी ना रहे।

इजरायल और फिलिस्तीन संघर्ष – परिचय 

  • इजरायल और फिलिस्तीन दोनों देशों के बीच संघर्ष की कथा आरंभ करने से पहले हमें इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए। इसके बाद ही हम इन दोनों देशों के बीच चलने वाले इस लंबे संघर्ष को अधिक बेहतर तरीके से समझ पाने में सक्षम हो सकेंगे।
  • वास्तव में, इजरायल अपेक्षाकृत एक छोटा भू भाग है। इजरायल के उत्तर में लेबनान नामक देश स्थित है, जबकि इसके दक्षिण में मिस्र देश अवस्थित है। इजराइल के पूर्वी भाग में जॉर्डन और सीरिया नामक देशों की उपस्थिति है, जबकि इजरायल के पश्चिमी भाग में अत्यंत प्रसिद्ध ‘भूमध्य सागर’ स्थित है। अर्थात् इजरायल अपने चारों ओर से जिन देशों से घिरा हुआ है, इन्हें ‘अरब देशों’ के नाम से जाना जाता है। अरब क्षेत्र में इजराइल के चारों ओर उपस्थित इन देशों के अलावा अन्य देश भी शामिल हैं। ये समस्त अरब देश इजरायल के विरुद्ध मिलकर हमला करते हैं, लेकिन इजरायल तकनीकी रूप से, सैन्य रूप से और आर्थिक रूप से इतना सक्षम है कि वह अकेले ही अपने चारों ओर उपस्थित इन देशों से सफलता पूर्वक निपटने में सक्षम है।
  • यहाँ उपस्थित सभी अरब देश मिलकर फिलिस्तीन का ही साथ देते हैं और वे चाहते हैं कि यहाँ से यहूदियों को पूरी तरह से साफ कर दिया जाए और इस संपूर्ण क्षेत्र को फिलिस्तीन को सौंप दिया जाए। ये सभी अरब देश इजरायल के अस्तित्व को समाप्त करके सिर्फ फिलिस्तीन के अस्तित्व को ही बनाए रखने के लिए उत्सुक हैं। तो आइए, अब हम इजरायल और फिलिस्तीन के मध्य लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष को क्रमिक रूप से समझने का प्रयास करते हैं।

इजरायल और फिलिस्तीन के बीच संघर्ष की पृष्ठभूमि

  • इजरायल और फिलिस्तीन के मध्य संघर्ष का आरंभ कोई हाल फिलहाल के समय में उभरी घटना नहीं है, बल्कि इसकी शुरुआत 19वीं सदी के अंत में हो चुकी थी। वास्तव में, 1897 ईस्वी में फिलिस्तीन के क्षेत्र में यहूदियों का उत्पीड़न हो रहा था। यहूदियों ने अपने इस उत्पीड़न से बचने के लिए एक आंदोलन की शुरुआत की थी। इतिहास में यह आंदोलन ‘जायोनी आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है।
  • जायोनी आंदोलन में यहूदियों को फिलिस्तीनी लोगों के विरुद्ध सफलता मिली और उन्होंने उस क्षेत्र में एक इजरायली राज्य की स्थापना की। इस संदर्भ में, उसी दौरान एक ‘विश्व जायोनी संगठन’ का गठन भी किया गया था। इस संगठन का उद्देश्य यहूदियों को सुरक्षा प्रदान करना तथा उनके हितों का संरक्षण करना था।
  • आगे जब पहले विश्व युद्ध का दौर चल रहा था, तो उस समय 1916 ईस्वी में ब्रिटेन और फ्रांस के मध्य एक ‘साइक्स पिकोट’ नामक गुप्त समझौता हस्ताक्षर होता है। इस समझौते के तहत यह तय किया जाता है कि पहला विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद फिलिस्तीन पर ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित हो जाएगा।
  • इसके बाद कालांतर में, ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश सचिव जेम्स बाल्फोर की अध्यक्षता में एक निर्णय लिया जाता है। इस निर्णय के तहत यहूदी मातृभूमि की स्थापना करने पर सहमति व्यक्त की जाती है और यहूदियों के लिए एक देश के गठन की मांग को स्वीकार किया जाता है। इस घोषणा को इतिहास में ‘बाल्फोर घोषणा’ के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है। इस घोषणा के बाद इजरायल के लिए एक पृथक देश के गठन का आधिकारिक आधार तैयार हो जाता है।
  • फिर आगे 1930 ईस्वी में जर्मनी में नाजी शासन की स्थापना होती है। नाजी शासन द्वारा यहूदियों को प्रताड़ित किया जाता है। ऐसी स्थिति में, यहूदी लोग इस प्रताड़ना से बचने के लिए अपनी जान बचा कर भागते हैं और फिलिस्तीन में आना शुरू हो जाते हैं। इससे धीरे धीरे फिलिस्तीन के क्षेत्र में यहूदी बस्तियों का विस्तार होना शुरू हो जाता है। लेकिन इस क्षेत्र में होने वाली यहूदियों की बसावट का अरब के वासियों द्वारा तीखा विरोध किया जाता है और यहीं से यहूदी और अरबों के बीच संघर्ष की शुरुआत हो जाती है।

यहूदियों और अरबों के बीच संघर्ष की शुरुआत

  • जर्मनी के नाजी शासन की प्रताड़ना से बचने के लिए फिलिस्तीन के क्षेत्र में आकर यहूदियों का बसने और उसके आसपास के अरब क्षेत्र के लोगों द्वारा इस परिघटना का विरोध करने से ‘यहूदी और अरबों के बीच संघर्ष’ की शुरुआत हुई थी। यह संघर्ष धीरे-धीरे और अधिक गंभीर होता गया तथा अपने अपने क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए दोनों पक्षों के बीच विभिन्न युद्ध लड़े गए। वैश्विक स्तर पर कुछ देश इजरायल का समर्थन करते हैं, जबकि मुख्यतः सभी अरब देश फिलिस्तीन का समर्थन करते हैं। इसी दौर में इजरायल तकनीकी दृष्टि से अत्यंत आगे निकल जाता है तथा चारों ओर से शत्रुओं से घिरा होने के बावजूद अपनी रक्षा करने में सक्षम हो जाता है।
  • इजरायल और फिलिस्तीन के बीच बढ़ते तनाव के मद्देनजर 1947 ईस्वी में ब्रिटेन द्वारा यह मुद्दा संयुक्त राष्ट्र संघ के समक्ष भेजा जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इस मुद्दे पर यह निर्णय लिया जाता है कि फिलिस्तीन के क्षेत्र को दो भागों में विभाजित कर दिया जाए तथा इसमें से एक हिस्सा अरबों को और दूसरा हिस्सा यहूदियों को दे दिया जाए। संयुक्त राष्ट्र संघ का यह निर्णय यहूदियों द्वारा सहर्ष स्वीकार कर लिया जाता है और यहूदी 1948 ईस्वी में इजरायल को स्वतंत्र देश घोषित कर देते हैं।
  • इसी समय 1948 ईस्वी में ब्रिटेन द्वारा फिलिस्तीन के क्षेत्र से अपनी सेनाएँ भी हटा ली जाती हैं, लेकिन अरबों द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ के इस निर्णय को मानने से इनकार कर दिया जाता है और वह यहूदियों के विरुद्ध संघर्ष करने का मार्ग चुनते हैं। उल्लेखनीय है कि इस समय संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाए गए फिलिस्तीन क्षेत्र से संबंधित मुद्दे पर भारत इजरायल के विरुद्ध तथा अरबों के पक्ष में मतदान करता है। फिलिस्तीन और इजरायल के संघर्ष से संबंधित संपूर्ण घटनाक्रम को हम इस आलेख के आगामी खंड में क्रमिक रूप से समझने का प्रयास करेंगे।

अरब और इजरायल के बीच पहला युद्ध (1948 ईस्वी से 1949 ईस्वी)

  • लंबे समय से चले आ रहे यहूदियों और अरबों के बीच तनाव की चरम सीमा 1948 ईस्वी तक आते-आते इस स्तर तक पहुँच गई थी कि वह युद्ध में परिणत हो गई। 1948 ईस्वी में चार अरब देशों, यथा- मिस्र, इराक, सीरिया और जॉर्डन ने मिलकर इजरायल पर हमला कर दिया। अतः इस युद्ध में अरब क्षेत्र के विभिन्न देश शामिल थे।
  • इस युद्ध में अत्यधिक हिंसा हुई और विभिन्न लोगों को विस्थापित होना पड़ा था। अत्यंत कड़े संघर्ष के बाद अंतिम रूप से इस युद्ध में इजरायल को विजय प्राप्त हुई थी और इजरायल ने अकेले ही इन चारों देशों की संयुक्त सेना को पराजित किया था।
  • अरब के लोगों और इजरायल के बीच लड़े गए इस पहले युद्ध के परिणाम स्वरूप यरुशलम का पश्चिमी हिस्सा इजरायल की राजधानी बना था तथा यरुशलम का पूर्वी हिस्सा जॉर्डन को प्राप्त हुआ था। इस युद्ध के बाद ही इजरायल ने विस्तार वादी नीति अपनाई थी और उसने यरुशलम के पूर्वी हिस्से की तरफ विस्तार करने की नीति पर बल दिया था। आगे चलकर, इजरायल की संसद ने 1980 ईस्वी में एक कानून पारित किया था, जिसके तहत उसने संपूर्ण यरुशलम को इजरायल की राजधानी घोषित कर दिया था।
  • इसके अलावा, इजरायल और फिलिस्तीन के बीच लड़े गए इसी पहले युद्ध के परिणाम स्वरूप बड़ी संख्या में फिलिस्तीन के लोग या तो मारे गए थे, या उन्हें वहाँ से अपनी जान बचाकर भागना पड़ा था। इसी कारण उस क्षेत्र में फिलिस्तीनी शरणार्थी का संकट अत्यंत गहराने लगा था।

‘फिलिस्तीन मुक्ति संगठन’ (PLO) का उदय

  • फिलिस्तीन और इजरायल के बीच होने वाले भीषण संघर्ष के आलोक में फिलिस्तीन के लोगों ने एक संगठन का निर्माण किया था। इस संगठन को ‘फिलिस्तीन मुक्ति संगठन’ (Palestine Liberation Organization : PLO) नाम दिया गया था। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य फिलिस्तीन के लोगों का पुनर्वास करना, उनकी सुरक्षा करना तथा फिलिस्तीन के लोगों के भलाई सुनिश्चित करने के लिए इजरायल के विरुद्ध कार्य करना था।
  • भारत ने 1974 ईस्वी में इस ‘फिलीस्तीन मुक्ति संगठन’ को मान्यता प्रदान कर दी थी। उस समय फिलिस्तीन मुक्ति संगठन को औपचारिक रूप से मान्यता देने वाला ‘भारत’ विश्व का पहला गैर अरब देश था। इसके अलावा, भारत ने 1988 ईस्वी में फिलिस्तीन को भी औपचारिक रूप से एक देश के रूप में मान्यता प्रदान कर दी थी।

छह दिवसीय युद्ध (1967 ईस्वी)

  • इजरायल और फिलिस्तीन के बीच 1967 ईस्वी में फिर से एक युद्ध हुआ था। चूँकि यह युद्ध 6 दिनों तक चला था, इसलिए इस युद्ध को इतिहास में ‘छह दिवसीय युद्ध’ के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है। इस युद्ध में भी अरब देशों के संयुक्त संगठन के विरुद्ध इजरायल को विजय प्राप्त हुई थी।
  • इस छह दिवसीय युद्ध में सीरिया, जॉर्डन और मिस्र तीनों अरब देशों के संयुक्त संगठन ने इजरायल पर हमला कर दिया था। इस युद्ध में इजराइल ने इन तीनों देशों की संयुक्त सेना को बुरी तरह से परास्त किया था तथा इन देशों के विभिन्न क्षेत्रों पर अपना कब्जा स्थापित कर लिया था।
  • इजरायल ने इस छह दिवसीय युद्ध के परिणाम स्वरूप सीरिया के ‘गोलन हाइट्स’ नामक क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था और इसे इजरायल का हिस्सा बना लिया था।
  • इसके अलावा, इस युद्ध के बाद इजरायल ने जॉर्डन के भी ‘वेस्ट बैंक’ और ‘पूर्वी यरुशलम’ नामक हिस्सों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। जबकि इसी युद्ध के बाद इजरायल ने मिस्र नामक अरब देश से ‘गाजा पट्टी’ और ‘सिनाई प्रायद्वीप’ के क्षेत्र छीन लिए थे।
  • हालाँकि आगे चलकर, 1979 ईस्वी में इजरायल और मिस्र के बीच एक संधि हुई थी। इस संधि के तहत इजरायल ने 1982 ईस्वी में मिस्र को सिनाई प्रायद्वीप वापस कर दिया था। इसके बदले में मिस्र ने इजरायल को एक देश के रूप में आधिकारिक तौर पर मान्यता प्रदान कर दी थी। उस समय में इजरायल को आधिकारिक तौर पर मान्यता प्रदान करने वाला ‘मिस्र’ पहला अरब देश बना था।

हमास नामक आतंकवादी संगठन का उदय

  • इजरायल और फिलिस्तीन के मध्य चलने वाले इस लंबे संघर्ष के बीच फिलिस्तीन के लोगों ने आतंकवाद के माध्यम से अपने उद्देश्य को पूरा करने का विचार बनाया और उन्होंने 1987 ईस्वी में ‘हमास’ नामक एक आतंकवादी संगठन का गठन किया। इस आतंकवादी संगठन का उद्देश्य जिहाद का सहारा लेकर स्वतंत्र फिलिस्तीन की स्थापना करने के लिए एक भू भाग पर कब्जा करना है और आतंकवाद के माध्यम से इजरायल को कमजोर करना है।
  • यह हमास नामक संगठन एक कट्टर सुन्नी मुस्लिम संगठन है। इस संगठन को सीरिया और ईरान द्वारा समर्थन प्रदान किया जा रहा है। वर्तमान में इस संगठन ने गाजा पट्टी नामक स्थल पर अपना कब्जा स्थापित कर रखा है। गाजा पट्टी फिलिस्तीन के लोगों का बहुल क्षेत्र है और यह भूमध्य सागर के तट पर स्थित है।
  • हमास नामक यह संगठन संयुक्त राष्ट्र संगठन तथा ‘ओस्लो शांति समझौते’ द्वारा सुझाए गए ‘दो राज्यों के समाधान’ (Two State Solution) को मानने के लिए तैयार नहीं है। यह संगठन इस क्षेत्र में इजरायल के सभी दावों को पूर्ण रूप से खारिज करता है।

फतह नामक संगठन का उदय

  • हमास की ही तरह फिलिस्तीन में एक फतह नामक संगठन भी सक्रिय है। यह संगठन भी फिलिस्तीन के लिए एक स्वायत्त क्षेत्र का गठन करने के लिए उत्सुक है। यह संगठन वेस्ट बैंक नामक क्षेत्र में अपना प्रभाव स्थापित किए हुए है। इस संगठन की विचारधारा हमास की विचारधारा के विपरीत है। हमास के विपरीत, यह संगठन संयुक्त राष्ट्र संगठन तथा ‘ओस्लो शांति समझौते’ द्वारा सुझाए गए ‘दो राज्यों के समाधान’ (Two State Solution) को मानने के लिए भी तत्पर है।

इस संघर्ष के दौरान हुए इंतिफादा (विद्रोह)

इजरायल और फिलिस्तीन संघर्ष के दौरान अब तक कुल 2 इंतिफादा हुए हैं। इंतिफादा का अर्थ ‘विद्रोह’ से होता है। असल में, फिलिस्तीन द्वारा किए जाने वाले विद्रोह को ‘इंतिफादा’ का नाम दिया गया है। इस दौरान पहला इंतिफादा 1987 ईस्वी से लेकर 1993 ईस्वी तक हुआ था, जबकि दूसरा इंतिफादा 2000 ईस्वी से लेकर 2005 ईस्वी तक हुआ था।

पहला इंतिफादा (1987 ईस्वी से 1993 ईस्वी) 

  • यह पहला इंतिफादा फिलिस्तीन के विद्रोहियों ने इजरायल के विरुद्ध 1987 ईस्वी में शुरू किया था। इसके तहत गाजा पट्टी क्षेत्र में उपस्थित यहूदी बस्तियों पर हमला किया गया था और उन्हें हिंसा के माध्यम से वहाँ से बाहर भगाया जा रहा था। इसके परिणाम स्वरूप विभिन्न यहूदियों को अपने घरों से विस्थापित होना पड़ा था।
  • फिलिस्तीन के लोगों द्वारा गाजा पट्टी के क्षेत्र में इजराइल के लोगों के विरुद्ध किए गए इस हिंसक हमले की समाप्ति 1993 ईस्वी में हुई थी। इस अवसर पर अमेरिका और रूस की मध्यस्थता से इजरायल और फिलिस्तीन के बीच एक समझौता हुआ था। 1993 ईस्वी में हुए इस समझौते को इतिहास में ‘ओस्लो शांति समझौते’ के नाम से जाना जाता है।

ओस्लो शांति समझौता (1993 ईस्वी) 

  • 1993 ईस्वी में हुए इस ‘ओस्लो शांति समझौते’ के तहत विभिन्न प्रावधान निर्धारित किये गए थे। इनके अंतर्गत यह तय किया गया था कि इस क्षेत्र को दो हिस्सों में विभाजित किया जाएगा। उनमें से एक हिस्सा फिलिस्तीन को और दूसरा हिस्सा इजरायल को प्रदान किया जाएगा। इतिहास में ओस्लो शांति समझौते का यह प्रावधान ‘दो राज्यों के समाधान’ (Two State Solution) के नाम से प्रसिद्ध है।
  • इस समझौते के माध्यम से यह भी तय किया गया था कि वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी क्षेत्रों में फिलिस्तीन और इजरायल के मध्य संघर्ष विराम लागू होगा तथा फिलिस्तीन को वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी क्षेत्रों के कुछ स्थानों पर सीमित रूप में स्वायत्त शासन करने का अधिकार प्रदान करना होगा। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इजरायल वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी, दोनों क्षेत्रों में से कुछ स्थानों पर अपने दावे छोड़ देगा, लेकिन इजरायल ने इन दोनों क्षेत्रों में से किसी भी स्थान से अपने दावे नहीं छोड़े थे।
  • इसी ओस्लो शांति समझौते के दौरान फिलिस्तीन ने इजरायल को एक देश के रूप में आधिकारिक मान्यता भी प्रदान कर दी थी।

दूसरा इंतिफादा (2000 ईस्वी से 2005 ईस्वी) 

  • ऊपर की गई चर्चा में हमने समझा कि फिलिस्तीन की ओर से लड़ने वाला आतंकवादी संगठन ‘हमास’ किसी भी प्रकार के संघर्ष विराम को स्वीकार नहीं करना चाहता है। ओस्लो शांति समझौते के बाद भी हमास का यही रुख था और उसने ‘दो राज्यों के समाधान के सिद्धांत’ को मानने से मना कर दिया था।
  • हमास के अड़ियल रवैया के कारण जब ओस्लो शांति समझौते के द्वारा सुझाए गए समाधान सफल नहीं हो सके, तो 2000 ईस्वी में फिलिस्तीन के लोगों द्वारा दूसरा इंतिफादा किया गया था। अपने इस हिंसक हमले के तहत फिलिस्तीन के लोगों ने इजरायल की बस्तियों को हिंसा के माध्यम से खदेड़ना शुरू कर दिया था।
  • ऐसी हिंसक स्थिति से निपटने के लिए इजरायल ने फिलिस्तीन के लोगों की बस्तियों और इजरायल के लोगों की बस्तियों के बीच एक ‘वेस्ट बैंक बैरियर’ का निर्माण करने की योजना बनाई थी। इसका उद्देश्य फिलिस्तीनी लोगों की और इजरायल के लोगों की बस्तियों को एक दूसरे से अलग करना था, ताकि भविष्य में फिलिस्तीन की ओर से होने वाले किसी भी हिंसक हमले से इजरायल के लोगों की रक्षा की जा सके।

दोनों पक्षों के बीच हालिया विवाद

  • इजरायल और फिलिस्तीन नामक दोनों देशों के मध्य वर्ष 2021 में फिर से हिंसक विवाद तब आरंभ हो गया था, जब इजरायल के सैनिकों ने पूर्वी यरुशलम के ‘हराम अल शरीफ’ नामक जगह पर स्थित ‘अल अक्सा मस्जिद’ पर हमला कर दिया था। अल अक्सा मस्जिद मुसलमानों के लिए मक्का और मदीना के बाद विश्व में तीसरा सबसे पवित्र स्थान माना जाता है।
  • इजरायल द्वारा की गई इस घटना के विरोध में हमास नामक आतंकवादी संगठन ने गाजा पट्टी से इजरायल पर अनेक रॉकेट दागे थे। इसके जवाब में इजरायल ने भी गाजा पट्टी पर अनेक रॉकेटों के माध्यम से हमला किया। इस दौरान हमास की ओर से किए जाने वाले रॉकेट के हमलों से अपनी सुरक्षा करने के लिए इजरायल ने ‘आयरन डोम’ नामक ‘प्रक्षेपास्त्र रक्षा प्रणाली’ का उपयोग किया था। इसके परिणाम स्वरूप इजरायल को हमास की ओर से किए गए हवाई हमलों से कोई नुकसान नहीं हुआ था।
  • दोनों देशों के बीच उपजे इस हालिया घटनाक्रम के कारण फिर से एक हिंसक विवाद देखने को मिला था और इस दौरान विभिन्न देशों ने इस संघर्ष को शांति से सुलझा ने की बात कही थी। इस स्थिति में भारत ने भी कहा था कि दोनों पक्षों को हिंसा को जल्दी से जल्दी समाप्त करना चाहिए और शांति पूर्वक किसी समझौते पर पहुँचना चाहिए।
  • इस बीच यह भी उल्लेखनीय है कि 2016 ईस्वी में यूनेस्को ने अल अक्सा मस्जिद पर से यहूदियों का दावा पूरी तरह से खारिज कर दिया था और यह कहा था कि अल अक्सा मस्जिद पर यहूदियों के किसी भी धार्मिक तत्व के प्रमाण नहीं मिले हैं, इसीलिए इस मस्जिद पर यहूदियों का कोई अधिकार नहीं है।

फिलिस्तीन का पक्ष 

  • दोनों पक्षों के मध्य चल रहे इस संघर्ष के बीच फिलिस्तीन यह चाहता है कि 1948 ईस्वी से पूर्व फिलिस्तीन के लोगों की जो स्थिति थी, उसे फिर से बहाल करना चाहिए तथा उन्हीं भौगोलिक स्थितियों पर फिलिस्तीन के शरणार्थियों को फिर से स्थापित किया जाना चाहिए।
  • इजरायल और फिलिस्तीन, दोनों पक्षों के मध्य वर्षों से चले आ रहे इस संघर्ष की स्थिति में फिलिस्तीन यह चाहता है कि 1967 ईस्वी से पहले की ही भौगोलिक स्थितियों को फिर से बहाल किया जाना चाहिए।
  • लंबे समय से संघर्ष कर रहे फिलिस्तीन की चाहत यह है कि गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक का पूरा का पूरा क्षेत्र फिलिस्तीन को दे दिया जाना चाहिए और वहाँ पर फिलिस्तीन के स्वायत्त शासन को स्वीकार किया जाना चाहिए।
  • यरुशलम के विषय में फिलिस्तीन का मत है कि यरुशलम को पश्चिमी और पूर्वी दो हिस्सों में विभाजित किया जाना चाहिए। इनमें से पश्चिमी हिस्से पर बेशक इजरायल का अधिकार सुनिश्चित कर दिया जाए, लेकिन यरुशलम के संपूर्ण पूर्वी हिस्से को फिलिस्तीन को दे दिया जाना चाहिए तथा इसे फिलिस्तीन देश की राजधानी स्वीकार किया जाना चाहिए।

इजरायल का पक्ष 

  • इजरायल और फिलिस्तीन, दोनों देशों के बीच लंबे समय से चल रहे इस भीषण संघर्ष के बीच इजरायल की यह चाहत है कि पूरे के पूरे यरुशलम पर केवल इजरायल का ही आधिपत्य स्वीकार किया जाना चाहिए और इजरायल पर उसे संपूर्ण संप्रभुता प्रदान की जाए की जानी चाहिए।
  • इसके अलावा, इजरायल की यह चाहत भी है कि वैश्विक स्तर पर इजरायल को एक यहूदी देश के रूप में मान्यता प्रदान की जानी चाहिए और संपूर्ण यरूशलम को इजरायल राज्य की राजधानी के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।
  • इजरायल देश यरुशलम से अपने किसी भी दावे को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। वर्तमान में इजरायल की राजधानी ‘तेल अवीव’ है, लेकिन इजरायल के राष्ट्रवादी लोग यरुशलम को जल्दी से जल्दी इजरायल की मुख्य राजधानी बनाने के लिए प्रयास कर रहे हैं।
  • यरुशलम, विशेष रुप से पूर्वी यरुशलम यहूदी, ईसाई और मुस्लिम तीनों ही धर्म के लोगों के लिए एक पवित्र स्थान है। फिलिस्तीन और इजरायल के बीच संघर्ष के प्रमुख कारणों में एक यह धार्मिक कारण भी उत्तरदायी है।

इस संघर्ष के परिणाम 

  • इजरायल और फिलिस्तीन के मध्य लंबे समय से चले आ रहे इस हिंसक संघर्ष के अनेक गंभीर परिणाम सिद्ध हुए हैं। इस संघर्ष के परिणाम स्वरूप पश्चिम एशिया की राजनीति में अस्थिरता उत्पन्न हुई है, जिससे वहाँ के आम जन जीवन को अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।
  • दोनों देशों के बीच चल रहे इस संघर्ष के कारण पश्चिम एशियाई क्षेत्र में हिंसक गतिविधियाँ अत्यधिक बढ़ी हैं तथा अनेक आतंकवादी संगठनों का निर्माण हुआ है। इससे न सिर्फ आतंकवाद को बढ़ावा मिला है, बल्कि वैश्विक स्तर पर भय का माहौल भी उत्पन्न हुआ है।
  • इस दीर्घकालिक हिंसक संघर्ष के परिणाम स्वरूप पश्चिम एशियाई क्षेत्र में शरणार्थियों का संकट भी उत्पन्न हुआ है। इस शरणार्थी संकट से ये दोनों देश ही नहीं, बल्कि आस पास के अन्य देश भी दुष्प्रभावित हुए हैं। यह संघर्ष न केवल मानव अधिकारों के उल्लंघन को इंगित करता है, बल्कि यह बेरोजगारी, सामाजिक अस्थिरता इत्यादि को भी बढ़ावा देता है।
  • यदि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो दोनों पक्षों के मध्य चल रहे इस हिंसक संघर्ष के कारण वैश्विक स्तर पर गुटबाजी देखने को मिली है। वैश्विक स्तर पर कुछ देश इजरायल का पक्ष ले रहे हैं, तो कुछ देश फिलिस्तीन का सहयोग कर रहे हैं। लेकिन कोई भी देश अभी तक इस समस्या के प्रभावी समाधान में महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सका है।

दोनों देशों के संघर्ष के विषय में विभिन्न देशों के दृष्टिकोण 

  • इजरायल और फिलिस्तीन के मध्य चल रहे इस दीर्घकालिक संघर्ष के विषय में यदि विभिन्न देशों के दृष्टिकोण की पड़ताल करें तो इनमें संयुक्त राज्य अमेरिका ने स्पष्ट रूप से इजरायल का पक्ष लिया है। संयुक्त राज्य अमेरिका का मानना है कि इजरायल को अपनी आत्मरक्षा करने का पूरा अधिकार है और अपनी आत्मरक्षा करने के दौरान यदि वह किसी दूसरे देश पर सैनिक कार्यवाही करता है तो इसे किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं ठहराया जा सकता है।
  • इजरायल और संयुक्त राज्य अमेरिका के मध्य इस घनिष्ठता के पीछे की मुख्य वजह यह है कि एक तो संयुक्त राज्य अमेरिका में यहूदियों की आबादी इजरायल में उपस्थित यहूदियों की आबादी से कहीं अधिक है। इसके अलावा, संयुक्त राज्य अमेरिका की अर्थव्यवस्था और तकनीक के क्षेत्र में यहूदियों का बहुमूल्य योगदान है। इसी कारण संयुक्त राज्य अमेरिका लंबे समय से इजरायल के साथ खड़ा रहा है।
  • इन दोनों देशों के मध्य संघर्ष के मद्देनजर तुर्की और पाकिस्तान जैसे देशों ने खुलकर फिलिस्तीन का पक्ष लिया है और उन्होंने फिलिस्तीन के दावे को मूर्त रूप देने पर बल दिया है। इसके अलावा, विभिन्न अरब देशों ने तथा मुसलमानों के अंतरराष्ट्रीय संगठन ‘इस्लामिक सहयोग संगठन’ (OIC) ने भी फिलिस्तीन के दावे को ही सही माना है और उसे लागू कराने के लिए वैश्विक स्तर पर निरन्तर प्रयास किए हैं।

इस संघर्ष के मद्देनजर भारत की स्थिति 

  • इस संघर्ष के दौरान भारत ने हमेशा फिलिस्तीन का सहयोग किया है। जब कभी भी संयुक्त राष्ट्र संघ में इस संघर्ष से संबंधित विवाद उठा है, तो भारत ने फिलिस्तीन के पक्ष में मतदान किया है।
  • यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि 1992 ईस्वी से पहले भारत के इजरायल के साथ कूटनीतिक संबंध नहीं थे। 1992 ईस्वी में पहली बार भारत ने इजरायल के साथ अपने कूटनीतिक संबंधों की शुरुआत की थी।
  • इजरायल और फिलिस्तीन के बीच लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष पर भारत ने हमेशा यह मत व्यक्त किया है कि दोनों देशों को हिंसा का परित्याग करना चाहिए और शांति पूर्ण वार्ता के साथ आपस में इस समस्या का समाधान करने की ओर आगे बढ़ना चाहिए। दोनों देशों को हिंसा की ओर कदम नहीं बढ़ाने चाहिए और इस परिपेक्ष्य में यदि आतंकवाद को बढ़ावा मिलता है, तो यह संपूर्ण मानवता के लिए सबसे बड़ी विडंबना है।
  • वर्तमान में भारत और इजरायल विभिन्न क्षेत्रों में आपसी सहयोग कर रहे हैं। भारत अब इजरायल से व्यापक मात्रा में सैन्य साजो सामान खरीद रहा है। भारत अपनी अंतरराष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा के लिए आभी जो उन्नत तकनीक इस्तेमाल कर रहा है, उसमें भी इजरायल ने भारत को अत्यधिक सहायता प्रदान की है।
  • इसके अलावा, भारत और इजरायल कृषि के क्षेत्र में भी एक दूसरे का व्यापक सहयोग कर रहे हैं। इजरायल भारत को विभिन्न कृषि प्रौद्योगिकियाँ प्रदान कर रहा है, ताकि भारत न सिर्फ खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से आत्मनिर्भर बन सके, बल्कि वह खाद्यान्न का निर्यात भी बढ़ा सके।

विभिन्न धार्मिक पक्षों के लिए यरुशलम का महत्व 

  • यरुशलम एक ऐसा पवित्र स्थान है, जो ईसाई, यहूदी और इस्लाम, तीनों ही धर्मों के लिए बहुत अधिक धार्मिक महत्व रखता है। ‘हिब्रू बाइबल’ यहूदी धर्म की एक पवित्र धार्मिक पुस्तक है। यहूदी धर्म की इस पवित्र धार्मिक पुस्तक हिब्रू बाइबल में इस बात का उल्लेख किया गया है कि प्राचीन काल में राजा डेविड ने अपने इजराइल साम्राज्य की राजधानी पूर्वी यरुशलम को बनाया था।
  • इसके अलावा, यहूदियों के लिए एक पवित्र धार्मिक संरचना ‘पश्चिमी दीवार’ भी यरुशलम में ही स्थित है। यरुशलम में स्थित इस पश्चिमी दीवार का यहूदियों के लिए अत्यधिक धार्मिक महत्व है। इस दृष्टि से यहूदियों की नजरों में यरुशलम का न सिर्फ ऐतिहासिक महत्व है, बल्कि उसका धार्मिक महत्व भी है।
  • अब यदि ईसाई धर्म के दृष्टिकोण से देखें तो यहाँ पर एक पवित्र चर्च स्थित है। इस लिहाज से ईसाई धर्म में भी यरुशलम का अत्यंत पवित्र स्थान है। इसके अलावा, ईसाइयों की मान्यता के अनुसार, ईसा मसीह को यरुशलम में ही सूली पर चढ़ाया गया था और इसी यरुशलम में इनके धार्मिक महत्व से संबंधित एक कब्र स्थल भी स्थित है। इन तमाम पहलुओं के आधार पर यह स्पष्ट है कि ईसाई धर्म की दृष्टि से भी यरुशलम का बहुत अधिक धार्मिक महत्व है।
  • इस्लाम धर्म के दृष्टिकोण से देखा जाए तो यरुशलम में स्थित अल अक्सा मस्जिद मुस्लिमों के मक्का और मदीना नामक दोनों पवित्र स्थलों के बाद तीसरा सबसे पवित्र स्थल है। इस कारण मुसलमानों की धार्मिक भावना यरूशलम के साथ अत्यधिक गहराई से जुड़ी हुई है।
  • यरुशलम में ही इस्लाम धर्म से संबंधित दो अन्य प्रमुख स्थल भी अवस्थित है। इन स्थलों में ‘डोम ऑफ द रॉक’ तथा ‘डोम ऑफ द चैन’ शामिल हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो यह स्पष्ट है कि यरुशलम का महत्व इस्लाम धर्म में भी धार्मिक दृष्टिकोण से बहुत अधिक है।
  • यरुशलम में ही एक ‘टेंपल माउंट’ नामक स्थान भी उपस्थित है। इस टेंपल माउंट को ‘हराम अल शरीफ’ नामक अन्य नाम से भी जाना जाता है। यह स्थल यहूदी धर्म और इस्लाम धर्म, दोनों के दृष्टिकोण से बहुत अधिक पवित्र माना जाता है। अतः कहा जा सकता है कि धार्मिक समीकरणों के लिहाज से देखा जाए, तो यरुशलम पर ईसाई, यहूदी और इस्लाम, तीनों ही धर्मों का बराबर अधिकार होना चाहिए।

आगे की राह

  • अब तक की परिचर्चा में हमने इजरायल और फिलिस्तीन से संबंधित विवाद को विभिन्न दृष्टिकोण से समझा है। ऐसे में, ऊपर किए गए विश्लेषण के आधार पर हम इस समाधान पर पहुँच सकते हैं कि यरुशलम पर किसी एक धार्मिक पक्ष का पूर्ण दावा स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि किसी भी एक पक्ष का पूर्ण दावा स्वीकार करने की स्थिति में दूसरा पक्ष अपने आपको ठगा हुआ सा महसूस करेगा और वह हिंसा करने की ओर अग्रसर होगा। जो कि न सिर्फ क्षेत्रीय और वैश्विक स्थिरता के लिए खतरा होगा, बल्कि यह निर्णय मानवता की दृष्टि से भी उचित नहीं होगा।
  • इसके अलावा, संघर्ष में शामिल दोनों पक्षों, इजरायल और फिलिस्तीन को ‘ओस्लो शांति समझौते’ में निर्धारित किए गए ‘दो राज्यों के समाधान के सिद्धांत’ को स्वीकार कर लेना चाहिए क्योंकि इसके अलावा कोई भी ऐसा समाधान, जो दोनों में से किसी भी एक पक्ष के साथ अन्याय करने वाला होगा, वह निश्चित रूप से व्यावहारिक समाधान नहीं कहा जा सकेगा और उससे अनेक प्रकार की समस्याएँ भी उत्पन्न होंगी। ऐसे में, ‘दो राज्यों के समाधान के सिद्धांत’ को स्वीकार करना इस समस्या से जुड़े सभी पक्षों के लिए बुद्धिमत्ता का परिचायक सिद्ध होगा।
  • इन दोनों पक्षों के इस संघर्ष को समाप्त करने में भारत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है क्योंकि यदि समाधान की पहल संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोपीय संघ, चीन, रूस इत्यादि देशों के माध्यम से की जाएगी, तो ये सभी ऐसे देश हैं, जिन पर दोनों पक्षों को पूर्ण विश्वास नहीं है। जबकि भारत एक ऐसा देश है जिस पर दोनों ही पक्ष विश्वास करते हैं। ऐसी स्थिति में, भारत इन दोनों देशों के समाधान के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभा सकता है। अतः भारत को इन दोनों देशों के मध्य चल रहे इस लंबे संघर्ष को समाप्त करने के लिए आगे आना चाहिए।

निष्कर्ष

  • इस प्रकार, हमने इजरायल और फिलिस्तीन के विवाद से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर एक समग्र चर्चा की है। ऊपर किए गए अपने विश्लेषण के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि इजरायल और फिलिस्तीन के बीच लंबे समय से चल रहा यह संघर्ष विश्व की विभिन्न सबसे जटिल समस्याओं में से एक है। इसलिए इससे संबंधित विभिन्न पक्षों को तथा विश्व के प्रमुख महा शक्तियों को अपनी जिम्मेदारियाँ भली भाँति समझनी चाहिए और इस समस्या के समाधान के लिए सार्थक कदम उठाने चाहिए। इसके अलावा, विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को भी गंभीरता से इस समस्या के समाधान की तरफ आगे बढ़ना चाहिए, ताकि उस क्षेत्र में उपस्थित लोगों के मानवाधिकार सुनिश्चित किए जा सकें तथा उन्हें एक बेहतर जीवन प्रदान किया जा सके। 
  • विश्व के की विभिन्न बड़ी शक्तियों को इस मुद्दे का राजनीतिकरण करने से बचना चाहिए क्योंकि ऐसे मुद्दों पर राजनीति करने से अंतिम रूप से मानवता का ही नाश होता है। इसके अलावा, वहाँ उपस्थित विभिन्न पक्षों को भी यह समझना चाहिए कि हिंसा और आतंकवाद किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकते हैं। इस संघर्ष से संबंधित सभी पक्षों को यह ध्यान रखना चाहिए कि विश्व की जटिल से जटिल समस्याओं का समाधान भी शांति वार्ता के माध्यम से निकाला जा सकता है, इसलिए दोनों पक्षों को बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए शांतिपूर्ण समाधान की तरफ आगे बढ़ना चाहिए।

हमने अपने इस आलेख में इजरायल और फिलिस्तीन के लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष से संबंधित विभिन्न पक्षों को काफी गहराई से समझने का प्रयास किया है। हमने इस आलेख में यह कोशिश की है कि ‘संघ लोक सेवा आयोग’ (UPSC) द्वारा आयोजित की जाने वाली ‘भारतीय प्रशासनिक सेवा’ (IAS) की परीक्षा की तैयारी करने वाले प्रत्येक अभ्यर्थी को इस टॉपिक से संबंधित विभिन्न पहलुओं की बेहतर जानकारी हो जाए। हम उम्मीद करते हैं कि इस आलेख को पढ़ने के बाद आपकी इस टॉपिक से संबंधित समझ बेहद शानदार हो जाएगी और आप इस टॉपिक से संबंधित परीक्षा के विभिन्न चरणों में भविष्य में पूछे जाने वाले सभी प्रश्नों को आसानी से हल करने की स्थिति में रहेंगे।

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