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तेल कूटनीति क्या है?

तेल कूटनीति या पेट्रोलियम पदार्थों पर राजनीति 20वीं सदी की शुरुआत से मध्य पूर्व की भू-राजनीति का एक महत्वपूर्ण पहलू रही है। लेकिन ईंधन के वैकल्पिक स्रोतों के आगमन और जलवायु परिवर्तन से संबंधित चिंताओं के साथ, तेल कूटनीति के संबंध में शक्तियों का संतुलन 21वीं सदी में बदलने की संभावना है।

तेल कूटनीति का सीधा सा मतलब, तेल उत्पादक देशों द्वारा वैश्विक मंच पर अपनी बात मनवाने के लिए दबाव बनाने की प्रक्रिया से है। तेल उत्पादक देश, ईंधन की सप्लाई को लेकर दुनिया भर में अपनी नीतियों को लागू करने और अपने हित साधने की कोशिश करते हैं।

‘तेल कूटनीति’ अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि से एक बहद महत्वपूर्ण विषय है। इस लेख में हम आपको आईएएस परीक्षा 2023 के को ध्यान में रखते हुए ऑयल डिप्लोमेसी के सभी पहलुओं के बारे में जानकारी देंगे।

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वियना में OPEC की बैठक में भारत की भूमिका 

25 मई, 2017 को वियना में हुई पेट्रोलियम निर्यातक देशों (Organization of Petroleum Exporting Countries) की बैठक में कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण बिंदु उभरकर सामने आए हैं। जिनकी भारत की तेल रणनीति में तो बहुत महत्त्वपूर्ण उपयोगिता है ही साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था में भी उल्लेखनीय स्थान है। इस बैठक में इस संगठन के सदस्य देशों के साथ-साथ कुछ गैर-सदस्य देश भी उपस्थित थे। इस बैठक में भारत का प्रतिनिधित्त्व पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री श्री धर्मेन्द्र प्रधान द्वारा किया गया। 

प्रमुख बिंदु 

  • इस बैठक में जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात सामने आई वह यह कि वर्तमान परिदृश्य में जितनी आवश्यकता भारत को ओपेक की है, उससे कहीं अधिक आवश्यकता ओपेक को भारत की है।
  • ध्यातव्य है कि भारत कच्चे तेल के लगभग 80%, प्राकृतिक गैस के 70% और एल.पी.जी. के तकरीबन 95% का आयात ओपेक देशों से करता है।
  • संभवतः यही कारण है कि इस बैठक में भारत द्वारा इस बात पर विशेष बल दिया गया कि जिस प्रकार उपभोक्ता देशों के लिये उक्त चीज़ों की आपूर्ति की सुरक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा है उसी प्रकार उत्पादक देशों के लिये मांग की सुरक्षा भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।
  • आज वैश्विक तेल उद्योग एक बेहद नाज़ुक स्थिति में है और यह स्थिति इस ओर संकेत करती है कि भारत की मांग को तवज्जो न देना इसके आपूर्तिकर्त्ताओं के लिये नुकसानदेह साबित हो सकता है।

तेल कूटनीति का अवलोकन

तेल, वैश्विक राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि दुनिया भर के देश व्यापार, कूटनीति, सशस्त्र विजय या किसी अन्य तरीके से तेल की आपूर्ति को सुरक्षित करना चाहते हैं जो इसे नियोजित करने के लिए उपयुक्त है। आमतौर पर, जिस देश के पास सबसे बड़ी संख्या में तेल भंडार होते हैं, वह वास्तव अन्य देशों में अपनी शर्तें मनवाने के प्रयास करता है। इस तरह के पेट्रोल और अन्य ईंधन से समृद्ध देश अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों की शुरुआत में बड़ी भूमिका निभाते हैं। इस पेट्रो-आक्रामकता भी कहा जा सकता है। इसका एक उदाहरण ईरान पर इराकी आक्रमण और 1990-1991 का खाड़ी युद्ध है।

तेल आपूर्ति का राष्ट्रीयकरण

तेल आपूर्ति का राष्ट्रीयकरण, राजस्व प्राप्त करने के लिए तेल उत्पादन के तरीकों पर पूर्ण नियंत्रण या उदास उत्पादन से संबंधित रिपोर्ट का आकलन करने की प्रक्रिया को संदर्भित करता है। यह कच्चे तेल के निर्यात पर प्रतिबंध से अलग है। राष्ट्रीयकरण किसी भी निजी व्यवसाय संचालन को हटा देता है और तेल उत्पादक देशों को उत्पादन के तरीकों पर पूर्ण नियंत्रण हासिल करने की अनुमति देता है, जो पहले निजी ऊर्जा कंपनियों का एकाधिकार था। जब ये देश इन जब्त संसाधनों के एकमात्र मालिक बन जाते हैं, उन्हें यह तय करना होगा कि जमीन में तेल के अपने ज्ञात भंडार के शुद्ध वर्तमान मूल्य को अधिकतम कैसे किया जाए।

भारत की तेल कूटनीति 

वियना में 25 मई, 2017 को हुई पेट्रोलियम निर्यातक देशों ओपेक (OPEC) की बैठक भारत की तेल रणनीति और अर्थव्यवस्था के लिए काफी अहम थी। इस बैठक में कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण बिंदु उभरकर सामने आए हैं। ओपेक की इस बैठक में सदस्य देशों के अलावा कुछ गैर-सदस्य देश भी शामिल हुए थे। भारत की ओर से इस बैठक में पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान शामिल हुए थे। 

वियना ओपेक बैठक के प्रमुख तथ्य 

  • वर्तमान में भारत को जितनी आवश्यकता ओपेक की है, उससे कहीं अधिक ओपेक देशों को भारत की है। 
  • भारत ओपेक देशों से अपनी जरुरत का लगभग 80% कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस का करीब 70% और एलपीजी का करीब 95 प्रतिशत आयात करता है। 
  • इसलिए ओपेक की इस अहम बैठक में भारत ने इस बात को रेखांकित किया कि उपभोक्ता देशों के लिए ईंधन आपूर्ति की सुरक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। साथ ही भारत ने उत्पादक देशों के लिए सुरक्षा को भी महत्त्वपूर्ण माना है। 
  • वैश्विक तेल उद्योग फिलहाल बेहद मुश्किल दौर से गुजर रहा है। इसलिए ओपेक देशों द्वारा भारत की मांग को तवज्जो न देना उनके लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है।

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निष्कर्ष

पेट्रोलियम धन के प्रवाह और बहिर्वाह के कारण तेल कूटनीति के व्यापक आर्थिक प्रभाव हो सकते हैं। इस कुटनीति से तेल उत्पादक देश विश्व मंच पर अपना प्रभाव डालने के मामले में अनुचित लाभ ले सकते हैं।

वैकल्पिक ईंधन में वृद्धि से तेल कूटनीति कम कर सरकती है। इससे तेल उत्पादक देशों को को अपनी शक्ति खोने का डर है, वहीं, जीवाश्म ईंधन आयातकों और नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों से समृद्ध देशों की स्थिति मजबूत होने की उम्मीद है। 

ओपक (OPEC) क्या है 

ओपेक (Organization of the Petroleum Exporting Countries) पेट्रोलियम उत्पादक देशों का एक समूह है। इसमें, 2018 में कतर के बाहर हो जाने के बाद कुल  13 सदस्य देश शामिल हैं। इसके सदस्य: सऊदी अरब, ईरान, ईराक, कुवैत, अंगोला, संयुक्त अरब अमीरात, अल्जीरिया, नाइजीरिया, लीबिया तथा वेनेजुएला, गबोन, गिनी और कांगो है।

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तेल कूटनीति से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

विश्व के अधिकांश तेल भंडारों को कौन नियंत्रित करता है?

विश्व के अधिकांश तेल भंडारों को ओपेक देश (सऊदी अरब, यूएई आदि) और रूस नियंत्रित करते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, यह 16 देशों का समूह 1.35 ट्रिलियन बैरल तेल भंडार का मालिक है, जो दुनिया के कुल तेल भंडार का करीब 80 प्रतिशत है।

तेल के उत्पादन को नियंत्रित करने से ओपेक को राजनीतिक रूप से कैसे लाभ होगा?

ओपेक का उद्देश्य विश्व बाजार में मूल्य निर्धारित करने के लिए तेल की आपूर्ति को विनियमित करना है। ओपेक, अन्य देशों की तेल उत्पादन क्षमता का प्रतिकार करने के लिए अस्तित्व में आया था, जो आपूर्ति और मूल्य को नियंत्रित करने की उनकी क्षमता को सीमित कर सकता था।

तेल का सबसे बड़ा उपभोक्ता कौन है?

संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन दुनिया में तेल के दो सबसे बड़े उपभोक्ता देशों में शामिल हैं। अमेरिका में 19.4 मिलियन बैरल प्रति दिन और चीन में 14 मिलियन बैरल प्रति दिन तेल की खपत होती हैं।

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