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भारत में मुफ्तखोरी की राजनीति

भारत में मुफ्तखोरी की राजनीति को लेकर लंबे समय से बहस चल रही है। 26 अगस्त 2022 को, भारत के सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court Of India) ने चुनाव से पहले राजनीतिक दलों द्वारा वितरित मुफ्त उपहारों (Freebies) पर प्रतिबंध लगाने के लिए दायर याचिकाओं को तीन सदस्यीय पीठ के पास भेजा था। यह पीठ, किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले इस तरह की प्रथा के निहितार्थों पर विचार करेगी।

हाल ही के दिनों में मुफ्तखोरी (Freebies) शब्द, भारत की राजनीतिक में विवाद का विषय बन गया है। चुनाव के दौरान राजनीतिक दल, मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए मुफ्त बिजली/पानी, बेरोजगारी भत्ता, महिलाओं और श्रमिकों को भत्ता, मुफ्त लैपटॉप, स्मार्टफोन आदि मुफ्त देने का वादा कर एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करते हैं।

मुफ्तखोरी की राजनीति का नैतिक पहलू यह है कि जब राजनीतिक दलों को चुनने की बात आती है, तो यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि किसी पार्टी ने मुफ्त उपहारों के रूप में कितना प्रोत्साहन दिया है, दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि राजनीतिक दल लोगों को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए एक प्रकार से रिश्वत दे रहे हैं।

इसका आर्थिक पहलू यह है कि राजनीकि दल, सरकार के खर्चे पर मतदाताओं को मुफ्त उपहार दे रहे, लेकिन क्या यह उस राज्य की आर्थिक स्थिति के लिहाज से उचित है? हाल ही में श्रीलंका में घटी घटना इसका उदाहरण है। जानकारों का मानना है कि श्रीलंका के आर्थिक पतन का कारण वहां के राजनीतिक दलो द्वारा दिए गए मुफ्त उपहार रहे हैं। 

इस लेख में मुफ्तखोरी की राजनीतिक के दोनों पहलुओं (आर्थिक और नैतिक) पर विस्तार से चर्चा की जाएगी। यह वर्तमान में एक मुद्दा है है। इसलिए यूपीएससी परीक्षा 2023 में इस विषय से संबंधित प्रश्न पूछे जाने की प्रबल संभावना है।

सब्सिडी और मुफ्तखोरी में अंतर

भारत जैसे देश में चुनाव के दौरान सभी नेता और राजनीतिक दल लोकलुभावन वादे करते हैं। इनमें से कुछ जनता को सब्सिडी देने की बात करते हैं और कुछ मुफ्त में सुविधाएं देने की बात करत हैं। इसलिए जनता को मुफ्तखोरी और सब्सिडी के बीच का अंतर समझना चाहिए।

सब्सिडी, एक उचित और किसी विशेष लक्षित लाभ के लिए होती है जो जनता की मांग से उत्पन्न होती हैं जबकि मुफ्तखोरी इससे बिल्कुल अलग है।

देश में गरीबी रेखा के नीचे जीवन गुजारने वाले लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए हर राजनीतिक दल को सब्सिडी देने का अधिकार है लेकिन इससे राज्य और केंद्र के सरकारी खजाने में लंबे समय के लिए बोझ नहीं पड़ना चाहिए। इससे देश की वित्तिय स्थिति खराब हो सकती है।

मुफ्तखोरी के प्रभावों को समझने और इसे करदाताओं द्वारा दिए जाने वाले टैक्स से जोड़ कर देखा जाना चाहिए।

फ्रीबीज या मुफ्तखोरी क्या हैं?

हमारे देश में वर्षों से मुफ्त सुविधाएं देने की घोषणाएं चुनावी लड़ाई का एक अभिन्न हिस्सा रही हैं। चुनावी मौसम में सभी राजनीतिक दल अपने वादों से मतदाताओं को लुभाने की हर संभव कोशिश करते हैं, जिसमें मुफ्त सुविधाएं जैसे बिजली, पानी आदि देने की घोषणाएं भी शामिल हैं।  

अगर सीधे शब्दों में कहें तो ‘फ्रीबीज’ लोक कल्याणकारी उपाय हैं – इसमें  सामान, सुविधाए या सेवाएं सम्मिलित है- जो सरकार द्वारा मुफ्त में दी जाती हैं। भारत में मुफ्त उपहारों को कानूनी ढांचे में सटीक रूप से परिभाषित नहीं किया गया है।

अभी तक ‘मुफ्तखोरी’ (Freebies) को, केंद्र सरकार द्वारा राज्य स्तर पर कुछ योजनाओं के लिए अस्वीकृति व्यक्त करने के लिए एक राजनीतिक शब्द के रूप में उपयोग किया जाता है। हालांकि इस बात कि अत्यधिक संभावना है कि समय के साथ इसका (मुफ्तखोरी) अर्थ बदल जाएगा।

यहां यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि लोकलुभावन दबावों के तहत किए गए वादे या व्यय देश के लिए संकंट पैदा कर सकते हैं। हालांकि भारतीय आबादी के बीच आय असमानता को देखते हुए, अर्थव्यवस्था को सही दिशा में आगे बढ़ाने के लिए, इनमें से कुछ मुफ्त की योजानाओं को उचित ठहराया जा सकता है।

मुफ्तखोरी के पक्ष दिए गए तर्क

विकास को प्रोत्साहित करने के लिए – हाल ही में ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं जहां मुफ्त उपहारों ने कुछ सार्वजनिक व्ययों के माध्यम से आर्थिक विकास को प्रोत्साहित किया है, जिससे दीर्घावधि में कार्यबल की उत्पादक क्षमता में वृद्धि हुई है। 

आपूर्तिकर्ता उद्योग को बढ़ावा देना – मुफ्त में दी जाने वाली वस्तुओं के प्रकार के आधार पर, राज्य की आर्थिक स्थिति में सुधार होता है। उदाहरण के लिए तमिलनाडु और बिहार की राज्य सरकारें सिलाई मशीन, साइकिल देने के लिए जानी जाती हैं। राज्य के बजट द्वारा खरीदे गए ये सामान आपूर्ति पहलुओं पर विचार करते हुए, उनके संबंधित उद्योग की बिक्री में योगदान करते हैं। 

अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए – भारत जैसे देश में जहां राज्यों में विकास का एक निश्चित स्तर है (या नहीं है), चुनाव आने पर लोग राजनीतिक दलों से ऐसी सुविधाएं और सेवाओं की उम्मीदें करते हैं जो उनकी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए मुफ्त में दी जाएं।

कम विकसित राज्यों के विकास में लाभ मिलता है – ऐसा माना जाता है कि मुफ्त की सेवा और सुविधाएं, कम विकसित राज्यों की आबादी को गरीबी से ऊपर उठाने में मदद करती है। आमतौर पर इस तरह की घोषणाएं राज्य की स्थिति और वहां के लोगों की आवश्यकता/मांग पर निर्भर करती हैं। जिन राज्यों की जनसंख्या अधिक होती है, वहां इस तरह की सुविधाएं आवश्यकता या मांग आधारित होती है तथा राज्य के विकास के लिए ऐसी सब्सिडी ज़रूरी हो जाती है।

एक राज्य की योजनाए दूसरे राज्य पर असल डालती है – जब किसी एक राज्य के लोगों को मुफ्त सुविधाएं मिलती हैं तो अन्य राज्य के लोग भी चुनाव में राजनीतिक दलों द्वारा अपने राज्य के ऐसी सुविधओं/ घोषणाओं की उम्मीद करते हैं। इससे राजनीतिक दलों और नेताओं पर दबाव बढ़ जाता है।

मुफ्तखोरी के विरोध में दिए तर्क 

व्यापक आर्थिक अस्थिरता का खतरा –  मैक्रोइकॉनॉमिक्स का मूल ढांचा स्थिरता है और मुफ्त उपहार से अर्थव्यवस्था की स्थिरता के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं। 

मुफ्त की योजनाओं से राज्य का आर्थिक ढांचा कमजोर हो सकता है क्योंकि दी जाने वाली सब्सिडी का राज्य की वित्तीय स्थिति पर प्रभाव पड़ेगा। इसका कारण यह है कि मुफ्त की सुविधाएं देने वाले अधिकांश राज्यों के पास इसके विए मजबूत वित्तीय ढांचा नहीं है। इसके संबंध में दिए गए तर्क – 

  • अगर कोई सत्ताधारी दल, राजनीतिक लाभ के सरकारी पैसे को मुफ्तखोरी पर खर्च करते हैं, तो इससे राज्या का वित्तिय ढांचा विगड़ सकता है।
  • हालांकि राज्यों को यह तय करने की स्वतंत्रता है कि वे अपना पैसा कैसे खर्च कर सकते हैं, वे असाधारण परिस्थितियों में ऐसा कर सकते हैं।
  • वे परिस्थितियां तब लागू होती हैं जब कोई राज्य राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (FRBM) नियमों के अनुसार अपनी सीमा से अधिक उधार लेता है।

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए खतरा – राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव के दौरान सार्वजनिक धन से मुफ्तखोरी और तर्कहीन वादे करना करना स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं। मुफ्तखोरी की घोषणाएं स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की धारणा के खिलाफ है क्योंकि जाहिर तौर पर हर राजनीतिक दल की सार्वजनिक धन तक पहुंच नहीं होगी। 

मतदाताओं को रिश्वत – मुफ्त के वादे को लेकर राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी सवाल है कि यह प्रथा कितनी नैतिक है क्योंकि यह मतदाताओं को लुभाने के लिए एक तरह से रिश्वत देने के समान है।

अनियोजित वादे – आजकल चुनाव के दौरान अनियोजित तरीके से जनता के लिए मुफ्त सुविधाओं की घोषणा करने में हर राजनीतिक दल एक-दूसरे से आगे निकलना चाहता है, लेकिन इस प्रकार की अनियोजित मुफ्त सुविधाओं को राज्य के बजट प्रस्ताव में शामिल नहीं किया जाता है।  

राज्यों पर आर्थिक बोझ बढेगा – भारत के अधिकांश राज्यों की वित्तीय स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। वहीं, राज्यों के पास राजस्व के लिए भी बहुत सीमित संसाधन हैं। इसलिए चुनावी फायदे के लिए लोगों को दी जाने वाली मुफ्त सुविधाओं से राज्य के सरकारी खजाने पर असर पड़ता है।  

अनावश्यक व्यय बढेगा – नेताओं द्वारा जल्दबाजी में मुफ्त सुविधाओं की घोषणा करने से राज्य के खजाने पर अनावश्यक व्यय को बढ़ा जाता है। हालांकि गरीबों की मदद के लिए पानी और बिजली जैसी आधारभूत जरुरतों और कुछ कल्याणकारी योजनाओं को के लिए धन के व्यय को जायज ठहराया जा सकता है।

विनिर्माण उद्योग पर नकारात्मक प्रभाव – मुफ्त उपहारों से विनिर्माण क्षेत्र की गुणवत्ता और प्रतिस्पर्धात्मकता कम हो जाती है। क्योंकि मुफ्त सेवाओं की घोषमा कुशल और प्रतिस्पर्धी बुनियादी ढांचे को कमजोर करती है, जो विनिर्माण क्षेत्र में उच्च-कारक क्षमता को सक्षम बनाता है। 

दीर्घकालिक वित्तीय घाटा – सत्ताधारी दलों द्वारा एक बार मुफ्त उपहारों की पेशकश करने के बाद वो अगले चुनाव तक अपने वादो के चक्रव्यूह में फंसे रहेंगे और उन्हें पूरा करने के लिए मजबूर हो जाएंगे। इससे राज्य के सरकारी संसाधनों पर वित्तीय दबाव बढ़ेगा।

मुफ्तखोरी पर बहस का निष्कर्ष

चुनाव के दौरान नेताओं द्वारा किए गए मुफ्त सुविधांओं के वादों को केवल राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि इसके आर्थिक पक्ष पर भी विचार किया जाना चाहिए। अगर इन वादो के लिए राज्य के पास अपर्याप्त धन और सीमित संसाधन हैं तो ऐसे वादो से बचना चाहिए।

मुफ्तखोरी पर बहस को राज्यों की आय के नजरिए से भी देखने की जरूरत है। उदाहरण के लिए केंद्र सरकार राज्यों पर उपकर लगाती है, जिससे केंद्र द्वारा राज्यों को दिया जाने वाला राजस्व का वह हिस्सा कम हो गया है। इसलिए राज्यों द्वारा चुनावी फायेद के लिए की गई मुफ्त सुविधाओं की घोषणा के लिए राजस्व जुटाना मुश्किल हो जाता है। 

मुफ्तखोरी से निपटने के उपाय 

प्रभावि आर्थिक नीतियां बनाई जाए

  • राजनीतिक दल मुफ्त की सुविधाओं की घोषणा करे के बजाय प्रभावी आर्थिक नीतियां बनाए तो स्थिति बेहतर हो सकती है।
  • लाभार्थियों तक सरकारी सुविधाओं की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए एक भ्रष्टाचार मुक्त तंत्र विकसित कर के इस समस्या का निदान किया जा सकता है। इससे नेताओं को मुफ्त की सुविधाओं की घोषणाओं करने की जरूरत नहीं पडेगी।
  • सरकार जो भी आर्थिक नीतियों या विकास मॉडल अपनाती है उसे जनता को बीच स्पष्ट रूप से बताना चाहिए और प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए।
  • देशी के राजनीतिक दलो मुफ्तखोरी के आर्थिक प्रभाव और व्यय को लेकर उचित समझ विकसित करनी चाहिए।
  • सत्तारूढ़ पार्टियां नए आर्थिक उपायों को लागू कर के विपक्षी दलो के सामने उदाहरण स्थापित कर सकती है।

वंचित तबके तक सुविधाएं पहुंचाने की पहल – भारत जैसे विशाल देश में जनसंख्या का एक ब़ड़ा हिसा अभी भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहा हैं। देश की विकास यात्रा में उसे शामिल करना बेहद आवश्यक है। ऐसे लोगों के लिए राज्य सरकारें विवेकपूर्ण तरीके से सुविधाओं या सेवाओं के लिए सब्सिडी की पेशकश कर सकती है, जिसे राज्यों के बजट में भी समायोजित किया जा सकता है। वंचित तबके को दी जाने वाली ये सुविधाएं राज्यों को अधिक नुकसान नहीं पहुंचाएगी। 

सब्सिडी सिर्फ बुनियादी जरूरतों पर दी जाए – सरकारों को गरीब तबके के लोगों के लिए कुछ बुनियादी सुविधाएं जैसे- बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा, स्कूलों में भोजन की व्यवस्था आदि चीजों पर सब्सिडी देने पर विचार करना चाहिए। 

सत्ता में रहते हुए करें जनकल्याण 

  • अगर राजनैतिक दल सत्ता में रहते समय जनकल्याण के काम करें तो उन्हें मुफ्त सुविधाओँ की घोषणान नहीं करनी पड़ेगी।
  • राजनीतिक दलों को 5 साल के कार्यकाल के दौरान जरुरतमंद लोगों तक सरकारी सुविधाएं पहुंचाने और उनका जीनप स्तर उपर उठाने के लिए उचित प्रावधान करने चाहिए।
  • देश के सभी राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है कि वे समाज की बेहतरी और सुशासन सुनिश्चित करें।
  •  नेताओं और राजनीतिक दलों पर जनता को मुफ्त सुविधाएं देने की एक सीमा तय होना जरूरी है।

वोटर्स के बीच जागरूकता की जरुरत – चुनाव के दौरान लोकलुभवन वादों पर वोट देने से पहले लोगों को यह समझना चाहिए कि वे अपने वोट मुफ्त में बेचकर क्या गलती करते हैं।

मुफ्तखोरी के चक्कर में लोग अच्छे नेताओं की अपेक्षा कर देतें हैं जिसका खामियाजा बाद में भुगतना पड़ सकता है। 

मुफ्त की योजनाओं के बजाए रोजगार पैदा किए जाए- सत्ताधारी पार्टियों मुफ्त की योजनाओं पर धन खर्च करने के बजाए रोजगार पैदा करने में धन खर्च करना चाहिए।

सरकारी धन का उपयोग देश के  बुनियादी ढांचे को विकसित करने और कृषि को बढावा देने में खर्च करना चाहिए, जिससे रोजगार के अवसर पैदा होंगे और मुफ्त सुविधाएं देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इससे देश की प्रगति और  सामाजिक उत्थान होगा।

जनता चुनाव के समय सही फैसला लेकर राजनीतिक दलों के इस तरह के मुफ्तखोरी प्रयासो को प्रभावी ढंग से खत्म कर सकती है।

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