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पजहस्सी राजा

पजहस्सी राजा कोट्टायम साम्राज्य के एक राजकुमार थे जिन्होंने 18वीं शताब्दी के अंत में मैसूर साम्राज्य और बाद में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ एक सक्रिय प्रतिरोध का नेतृत्व किया था। कोट्टायम पर ब्रिटिश कब्जे के कारण पजहस्सी राजा और अंग्रेजों के बीच भीषण युद्ध हुआ था। इतिहास में इस युद्ध को कोटिओट युद्ध के नाम से जाना जाता है।

पजहस्सी राजा को अपने अद्भुत युद्ध कौशल और अपने कारनामों के कारण लोकप्रिय रूप से केरल सिंघम (केरल का शेर) के रूप में जाना जाता है। 

केरल वर्मा पजहस्सी राजा

पजहस्सी राजा का जन्म 3 जनवरी 1753 में हुआ था। वो केरल के एक महान स्वतंत्रता सेनानी थे तथा कोट्टयम शाही वंश के राजकुमार थे। कोट्टयम क्षेत्र अब भारत के केरल राज्य के कन्नूर जिले में पड़ता है। पजहस्सी राजान को केरल सिंहम् भी कहा जाता है। वे 1774 से 1805 तक कोट्टायम के राजा रहे थे। उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ जो युद्ध लड़ा था उसे कोटिओट युद्ध कहा जाता है।

आईएएस परीक्षा 2023 की तैयारी करने वाले उम्मीदवार पजहस्सी राजा के बारे में अधिक जानने के लिए इस लेख को ध्यान से पढ़ें। इस लेख में हम आपको पजहस्सी राजा और कोटिओट युद्ध के बारे में विस्तार से बताएंगे। पजहस्सी राजा के बारे में अंग्रेजी में पढ़ने के लिए Pazhassi Raja पर क्लिक करें।

पजहस्सी राजा की पृष्ठभूमि

पजहस्सी राजा, कोट्टायम शाही कबीले की पश्चिमी शाखा के सदस्य थे। 1773 में हैदर अली द्वारा मालाबार के दूसरे आक्रमण के दौरान उन्होंने प्रमुखता से विरोध किया था। उस दौरान कोट्टायम और मालाबार क्षेत्र ‘ब्लैक गोल्ड’ – काली मिर्च की बहुत कीमती था। इसलिए मैसूर साम्राज्य ने अपनी आर्थिक और क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं का विस्तार करने के लिए मालाबार क्षेत्र में कई आक्रमण किए। 

इन आक्रमणों के दौरान, कोट्टायम के अधिकांश तत्कालीन शासक शाही परिवार के साथ त्रावणकोर में शरण लेने के लिए दक्षिण भाग गए थे। इससे केरल वर्मा कोट्टायम साम्राज्य के वास्तविक शासक बन गए थे। उन्होंने हमलावर मैसूरी सेना से लड़ते हुए एक सक्रिय प्रतिरोध का नेतृत्व किया जिससे उन्हें अपनी प्रजा की बहुत प्रशंसा मिली थी।

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मैसूर के खिलाफ युद्ध (1773 – 1793)

पजहस्सी राजा ने हथियारों और जनशक्ति की कमी को पूरा करने के लिए मैसूर के कब्जे के खिलाफ छापामार युद्ध अभियान का नेतृत्व किया। इसके लिए उन्होंने वायनाड के पहाड़ी और जंगली इलाके में हिट एंड रन अटैक के साथ एक आदर्श युद्ध लड़ा। उनकी पहली जीत साल 1781 में हुई जब उन्होंने थलसेरी किले को मुक्त कराया। इससे संप्रभुता का भाव पैदा किया जिसमें कोट्टायम स्वयं मुक्त हो गया था लेकिन यह स्वतंत्रता अधिक दिनों तक नहीं टिक सकी।

द्वितीय एंग्लो-मैसूर युद्ध के बाद 1784 में मैंगलोर की संधि ने मालाबार क्षेत्र को प्रभाव के मैसूरियन क्षेत्र के हिस्से के रूप में मान्यता दी थी। इससे पजहसी राजा नाराज हो गए और उन्होंने मैसूर के खिलाफ अपना प्रतिरोध जारी रखा। टीपू सुल्तान और हैदर अली के उत्तराधिकारी के शासनकाल में भी राजा का प्रतिरोध जारी रहा। दक्कन क्षेत्र के युद्ध ने कुछ समय के लिए टीपू सुल्तान का ध्यान मालाबार से हटा दिया था। इसने पजहस्सी राजा को मैसूर की सेना पर बेधड़क हमला करने में सक्षम बनाया दिया था।

1791 में उन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (31 दिसंबर 1600 को स्थापित) के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसमें कोट्टायम की स्वतंत्रता के बदले में मैसूर के खिलाफ समर्थन का वादा किया गया था। 

साल 1773 में 1768 में हुई सहमति का हवाला देकर हैदर अली ने मालाबार पर  कब्जा कर लिया। इसके बाद हैदर की क्रूर सेना के डर से मालाबार राजा के अधिकांश परिजनों ने बाल-बच्चों और मित्रों के साथ त्रावणकोर में शरण ली थी। हालांकि मैसूर के अधिकारियों की लूट- पाट, अत्याचार और धर्मांधता का मालाबार में हर जगह विरोध होने लगा था, लेकिन वहां के राजा और उनके परिजनों के पलायन से यह प्रतिरोध अराजकता में बदल गया था। 

इसको देखते हुए पजहस्सी राजा ने घोषणा की कि संकट के समय भागना कायरता है। इस दौरान राजा खुद कोट्टयम में ही रहे और उन्होंने सैनिक जुटाकर छापामार युद्ध करना शुरू किया। इसका कारण ये भी था कि हथियारों की कमी के कारण वो मैसूर की सेना का सामना नहीं कर सकते थे। इस दौरान पजहस्सी राजा ने पुरालिमाला पर्वतीय श्रृंखला के अभेद्य जंगलों-पहाड़ों और वायनाड में अनेक जगह अपने सुरक्षित ठिकाने बनाए और कोट्टयम तथा वायनाड में मैसूरी सेना को भारी नुकसान पहुंचाया। 

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ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ युद्ध

अंग्रेजों ने पजहस्सी राजा के एक चाचा वीरा वर्मा को उनकी अधीनता में कोट्टायम का शासक बनाया दिया था। इसके बाद उन्होंने काली मिर्च की खेती के संबंध में नए कानून बनाए। इसके परिणामस्वरुप किसानों पर कईं नए करों का भारी बोझ डाल दिया गया। अंग्रेजों द्वारा अपने लोगों का शोषण किए जाने से चिंतित, पजहस्सी राजा ने उनके खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया। इस विद्रोह की शुरुआत 1793 में हुई थी।

इससे परेशान होकर अंग्रेजों ने राजा को दंड देने के लिए बंबई से एक सेना भेजी और उन्हें उनके महल से बर्खास्त कर दिया गया था। लेकिन समय रहते राजा वायनाड के जंगलों में भागने में सफल रहे। राजा ने इन जंगल में अंग्रेजों के खिलाफ उनके किलों में हमला करने के लिए एक सेना का गठन किया। इसके लिए राजा ने जाति और पंथ की परवाह किए बिना स्थानीय लोगों को अपनी सेना में भर्ती किया।  

इसके बाद 18 मार्च 1797 को था राजा ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ निर्णायक जीत हासिल की। उसी दौरान जब अंग्रेज सेना की मेजर कैमरन के नेतृत्व में पेरिया घाट से मार्च कर रही थी, तब पजहस्सी राजा की सेना ने उस पर घात लगाकर हमला किया और उसे पूरी तरह से खत्म कर दिया। इस जीत ने अंग्रेजों को बेहद धक्का लगा था क्योंकि उनकी सेना पहले ही टीपू और उत्तर में मराठा शासकों से हार रही थी। इसके बाद अंग्रेजों ने पजहस्सी राजा के साथ एक शांति संधि की, जिसके बाद उन्हें उनकी उनकी भूमि लौटा दी गई और संघर्ष समाप्त कर दिया।

1797 की संधि प्रमुख बातें 

पजहस्सी राजा के चार साल के संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने उनसे एक संधि की थी। इस राजनीतिक संधि के द्वारा राजा की जीत हुई और क्षैत्र में शांति स्थापित हुई थी। इस संधि की प्रमुख बातें नीचे दी जा रही है –

  • इस संधि के तहत पजहस्सी राजा को माफी दी गई थी।
  • और उन्हें उनका खजाना भी वापस कर देने का वादा किया गया था।
  • इस संधि के बात उन्हें 8000 रुपए का वार्षिक भत्ता देना तय किया गया था।
  • संधि में पजहस्सी राजा को उनका जब्त किया गया महल भी वापस देने का वादा किया गया था।
  • इसमें पजहस्सी राजा के बड़े भाई रवि वर्मा को कोट्टयम का राजा बनाना तय किया गया था।

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साल 1793 में, पजहस्सी राजा ने कोट्टयम में अंग्रेजों द्वारा की जाने वाली कर वसूली नहीं होने देने का एलान किया था। साथ ही राजा ने यह भी धमकी दी कि अगर अंग्रेज अधिकारियों ने काली मिर्च की लताओं की गणना बंद नहीं की तो वे लताओं को नष्ट कर देंगे। इसके बाद अंग्रेजों ने राजा की मांग को मान लिया और योग्य समाधान का रास्ता अख्तियार किया। इसके तहत कुल राजस्व का 20 फीसदी राजा के पास और अन्य 20 फीसदी मंदिर में खर्च करना तय किया गया। साथ ही मंदिरों की संपत्ति पर कोई अन्य कर नहीं लगाया जाना भी तय हुआ।

हालांकि यह शांति अधिक दिनों तक टिकी नहीं रह सकी। चौथे आंग्लों-मैसूर युद्ध में टीपू सुल्तान की हार के बाद साल 1799 में एक बार फिर अंग्रेजों का ध्यान वायनाड की ओर गया। साल 1800 में पजहस्सी राजा और ब्रिटिश सेना के बीच एक बार फिर संघर्ष की स्थिति बनी। 

इस बार राजा का सामना आर्थर वेलेस्ली (ड्यूक ऑफ वेलिंगटन) से हुआ। उन्हें नेपोलियन बोनापार्ट को हराने के लिए जाना जाता है। आर्थर ने राजा को पकड़ने के लिए एक अभियान चलाया लेकिन राजा यहां भी भागने में सफल रहे। इसके बाद पजहस्सी राजा द्वारा शुरू किया गया विनाशकारी गुरिल्ला अभियान आर्थर की सेना के लिए बेहद घातक सिद्ध हुआ। इस दौरान राजा के सैनिकों ने ब्रिटिश सेना को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाया।

इसके बाद आर्थर वेलेस्ली राजा पजहस्सी के खिलाफ अपना युद्ध अभियान अधुरा छोड़कर वापस इंग्लैंड लौट गए। वहां पहुंचने के बाद वेलेस्ली ने जोर देकर कहा कि जब तक पजहस्सी राजा जीवित है, तब तक अंग्रेजी सेना के लिए युद्ध जीतना बेहद मुश्किल होगा। 

आपको बता दें कि नेपोलियन के युद्ध के कारण, ड्यूक ऑफ वेलिंगटन आर्थर वेलेस्ली को साल 1804 में ही पजहस्सी राजा के खिलाफ अपना अभियान अधूरा छोड़कर वापस इंग्लैंड लौटना पड़ा था। लेकिन स्पेन में नेपोलियन की सेना के बड़े प्रभाव से लड़ने के दौरान उन्होंने राजा पजहस्सी की जो गुरिल्ला रणनीति देखी थी, उसका उपयोग कर युद्ध जीत लिया था।

राजा के खिलाफ दमन और रिश्वतखोरी की नीति 

राजा से हार के बाद अंग्रेजों ने दमन और रिश्वतखोरी की नीति अपनाई। इसके दो कारण थे- इस नीति से वो या तो स्थानीय जनता को राजा की सहायता करने से रोक सके या स्थानीय लोगों को राजा के साथ विश्वासघात करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। हालांकि अंग्रेजों की इस दमन की नीती के नतीजे अच्छे नहीं रहे। इससे स्थानीय लोग उल्टा राजा को अपना समर्थन देने लगे। लेकिन राजा के खिलाफ अंग्रेजों की रिश्वत की नीति काफी प्रभावी साबित हुई। इस नीति से प्रभावित होकर स्थानीय गद्दारों ने राजा के स्थान और युद्ध नीति आदि की जानकारी अंग्रेजों को देना शुरू कर दिया। 

इस दौरान एक मौका ऐसा भी आया जब अंग्रेजी सेना राजा तक पहुंच गई थी, हालांकि राजा इस घटना में बाल-बाल बच गए। लेकिन उनके सेनापति इतने भाग्यशाली नहीं थे। इस घटना में विश्वासघात के कारण अंग्रेजों ने राजा के कुछ सेनापतियों को मार दिया, जिससे राजा की सेना को गंभीर क्षति पहुंची थी।

आखिरकार 30 नवंबर 1805 को राजा की किस्तम ने उनका साथ छोड़ दिया और विश्वासघातियों द्वारा अंग्रेजों को उनके ठिकाने के बारे में जानकारी दे दी गई। राजा और उनके अनुचर केरल-कर्नाटक सीमा के पास माविला (मविला टॉड) नामक एक धारा के तट पर डेरा डाले हुए थे, उस दौरान उन पर धोखे से हमला कर दिया गया। यहां एक बेहद छोटी लेकिन भीषण लड़ाई हुई। इसमें राजा पजहस्सी की मृत्यु हो गई। हालांकि बाद में अंग्रेजों ने अपने वीर विरोधी राजा पजहस्सी का पूरे सैन्य सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया।

पजहस्सी राजा की विरासत

अंग्रेजों के खिलाफ अपने उत्साही प्रतिरोध के लिए, केरल वर्मा राजा पजहस्सी स्वतंत्रता के एक दृढ़ प्रतीक बनकर उभरे। आज भी उत्तरी मालाबार में उनके कारनामों के गीत गाए जाते हैं। साथ ही केरल राज्य में कई शैक्षणिक संस्थानों के नाम अभी भी राजा पजहस्सी के नाम पर रखे गए हैं।

आधुनिक इतिहासकार राजा पजहस्सी को उस समय के अन्य शासकों से भिन्न मानते हैं क्योंकि पजहस्सी राजा के पास व्यक्तिगत सत्ता का कोई स्वार्थ नहीं था। उन्हें एक परोपकारी व्यक्तित्व के रूप में वर्णित किया गया है, जिन्होंने अपने व्यक्तिगत हितों के ऊपर अपनी प्रजा और देश के हितों को रखा। वह अपने लोगों को शोषण और उत्पीड़न से बचाने के लिए कर्तव्यबद्ध थे। 

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