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कुटुंब न्यायालय (संशोधन) विधेयक 2022

कुटुंब न्यायालय (संशोधन) विधेयक, 2022 (Family Courts (Amendment) Bill, 2022) 18 जुलाई, 2022 को लोकसभा में पेश किया गया था और 26 जुलाई 2022 को लोकसभा द्वारा इसे बहुमत से पारित कर दिया गया था। इस विधेयक के द्वारा कुटुंब न्यायालय अधिनियम, 1984 (Family Courts Act, 1984) में संशोधन किया गया है। साथ ही इस विधेयक में हिमाचल प्रदेश और नागालैंड में पहले से चल रहे कुटुंब न्यायालय को कानूनी मान्यता देने का भी प्रावधान है। बता दें कि हिमाचल प्रदेश में 15 फरवरी 2019 से और नगालैंड में 12 सितंबर 2008 से कुटुंब न्यायालय चल रहे हैं।

इसके अलावा, इस विधेयक में एक नई धारा 3-ए को शामिल किया गया है, जिससे हिमाचल प्रदेश और नगालैंड की राज्य सरकारों द्वारा इस संबंध में की गई सभी कार्रवाइयों को विधिमान्य किया जा सकेगा।

इस लेख में, हम कुटुंब न्यायालय (संशोधन) विधेयक 2022 से संबंधित महत्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा करेंगे, जो परीक्षा के दृष्टिकोण से आवश्क है। यूपीएससी प्रीलिम्स में ऐसे विषय अक्सर पूछे जाते हैं, इसलिए उम्मीदवारों को परीक्षा के लिए विषय की प्रासंगिकता को समझने के लिए UPSC Prelims Syllabus in Hindi का ठीक से अध्ययन करना चाहिए।

पारिवारिक न्यायालयों की स्थापना 

कुटुंब न्यायालय अधिनियम, 1984 के तहत पारिवारिक न्यायालयों की स्थापना की गई थी। इसका उद्देश्य पारिवारिक कलह तथा विवाह व अन्य पारिवारिक मामलों या विवादों का त्वरित निपटारा सुनिश्चित करना है। 

कुटुबं न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति 

सुप्रीम कोर्ट की सहमति से राज्य सरकार एक या उससे अधिक व्यक्तियों को परिवार न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कर सकती है।

कुटुंब न्यायालय (संशोधन) विधेयक, 2022 की विशेषताएं

कुटुंब न्यायालय (संशोधन) विधेयक, 2022 द्वारा, हिमाचल प्रदेश में 15 फरवरी 2019 से स्थापित फैमिली कोर्ट और नागालैंड में 12 सितंबर 2008 से स्थापित कुटुंब न्यायालयों की स्थापना भी अधिनियम के दायरे में आ गई है।

परिवार न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में किसी व्यक्ति की नियुक्ति का प्रत्येक आदेश और पोस्टिंग, पदोन्नति या स्थानांतरण का प्रत्येक आदेश, जैसा भी मामला हो, इस अधिनियम के तहत हिमाचल प्रदेश और नागालैंड राज्यों में परिवार न्यायालयों के शुरू होने से पहले बनाया गया हो। (संशोधन) अधिनियम, 2022 को इस अधिनियम के प्रावधानों के तहत वैध रूप से बनाया गया माना जाएगा। 

कुटुंब न्यायालय क्या है ?

कुटुंब न्यायालय को सरल शब्दों में फैमिली कोर्ट या पारिवारिक न्यायालय भी कहा जाता है। यहां मुख्य रूप से पारिवारिक विवादों को सुलझाने का काम किया जाता है। भारत सरकार ने कुटुंब न्यायालयों की स्थापना इस उद्देश्य से की थी कि पारिवारिक विवादों को सामान्य आपराधिक मामलों से अलग निपटाया जाए ताकि इन मामलों को मानवीय दृष्टिकोण से देखा जा सके। इस कोर्ट को स्थापित करने का एक अन्य बड़ा कारण ये भी है कि यहां महिलाओं को सामान्य अपराधियों के साथ पेश हुए बिना आसानी से अदालत में जाने में सक्षम बनाया जा सके। 

हमारे देश में घर परिवारों में होने वाले विवादों में से अधिकतर मामले पति और पत्नी के बीच होने वाले विवादों के होते हैं। कुटुंब न्यायालय अधिनियम से पहले इन पारिवारिक झगड़ों और पति-पत्नी के विवादों का भी निपटारा भी सिविल कोर्ट में होता था। बाद में साल 1984 में भारत सरकार द्वारा कुटुंब न्यायालय अधिनियम संसद में पेश किया गया। 

कुटुंब न्यायालय अधिनियम, 1984 के तहत देश में जिला स्तर पर कुटुंब न्यायालय के गठन का कार्य किया जाता है। हालांकि अभी भी भारत के सभी शहरों में कुटुंब न्यायालय की स्थापना नहीं हो सकी है, लेकिन देश के हर बड़ी आबादी वाले शहरों में कुटुंब न्यायालय स्थापित कर दिया गया है। यह कुटुंब न्यायालय शहर के लोगों के पारिवारिक विवाद और पति-पत्नी के झगड़ों के निपटारे का कार्य करता है। 

जरुरी तथ्य –

  • किसी भी शहर के कुटुंब न्यायालय के पीठासीन अधिकारी के पास उक्त जिले के, जिला न्यायाधीश की सभी शक्तियां होती हैं।
  • फैमिली कोर्ट के पीठासीन अधिकारी को पारिवारिक विवादों में समझौता कराने का अनुभव होना चाहिए।
  • कुटुंब न्यायालय के पीठासीन अधिकारी को समाज के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए। 

पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1984

पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1984 विवाह और पारिवारिक मामलों से संबंधित विवादों और उनसे जुड़े मामलों में सुलह को बढ़ावा देने और उनके त्वरित निपटान को सुनिश्चित करने की दृष्टि से पारिवारिक न्यायालयों की स्थापना के लिए अधिनियमित किया गया था।

राष्ट्रपति ने 14 सितंबर, 1984 को परिवार न्यायालय अधिनियम को अपनी स्वीकृति प्रदान की थी।

फैमिली कोर्ट एक्ट 1984, 10 लाख से अधिक आबादी वाले प्रत्येक शहर या कस्बे में राज्य सरकारों द्वारा फैमिली कोर्ट की स्थापना को निर्धारित करता है।

1984 में पारित, कुटुंब न्यायालय अधिनियम, देश में महिलाओं से संबंधित कानूनी सुधारों की प्रवृत्ति का हिस्सा था।

यह अधिनियम, प्रत्येक उच्च न्यायालय को, निपटान और अन्य मामलों पर पहुंचने में, पारिवारिक न्यायालयों द्वारा पालन की जाने वाली प्रक्रिया के लिए नियम बनाने की शक्ति देता है।

केंद्र सरकार को परिवार न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए अतिरिक्त योग्यता निर्धारित करने वाले नियम बनाने की शक्ति दी गई है।

यह अधिनियम कहता है कि कुटुंब न्यायालयों में नियुक्त प्रत्येक व्यक्ति को विवाह संस्था की रक्षा और संरक्षण की आवश्यकता के लिए, और सुलह और परामर्श द्वारा विवादों के निपटारे को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए।

इस अधिनियम द्वारा फैमिली कोर्ट में जज के रूप में महिलाओं की नियुक्ति को भी प्राथमिकता दी जाएगी।

इस अधिनियम में राज्य सरकार को अन्य बातों के साथ-साथ पारिवारिक न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन, परामर्शदाताओं की सेवा की शर्तों और अन्य प्रक्रियात्मक मामलों के लिए नियम बनाने का भी अधिकार दिया गया है।

अधिनियम से एक मंच के रुप में परिवार से संबंधित विवादों के संतोषजनक समाधान की उम्मीद की गई थी, और इस मंच से समाज के अधिकतम कल्याण और महिलाओं की गरिमा सुनिश्चित करने वाले दृष्टिकोण के साथ तेजी से काम करने की अपेक्षा की गई थी।

इस अधिनियम ने दीवानी और फौजदारी क्षेत्राधिकार को एक ही छत के नीचे ला दिया है। इसे महिलाओं से संबंधित सभी मुकदमों को केंद्रीकृत करने के सकारात्मक उपाय के रूप में देखा गया था।

कुटुंब न्यायालय अधिनियम,1984 पारिवारिक विवादों को दो प्रकार से सुलझाने का काम करता है –

  • पारिवारिक विवाद निपटाने परिवार के लोगों के बीच सुलह या समझौता करने के लिए पारिवारिक थेरेपी (फैमिली थेरेपी) देने का प्रबंध किया जाता है ताकि ‘परिवार’ को एक एकजुट इकाई के रूप में बनाए रखा जा सके।
  • साक्ष्य और प्रक्रिया के सरलीकृत नियमों को न अपनाकर उन मामलों का त्वरित न्यायनिर्णयन जहां पार्टियों के बीच मतभेद सुलझने योग्य नहीं हैं। ऐसे मामलों में पेशेवर विशेषज्ञों, सामाजिक कल्याण संगठनों या परिवार कल्याण के क्षेत्र में विशेषज्ञता वाले लोगों की भी सहायता ली जाती है।
फैमिली थेरेपी क्या होती है ? 

फैमिली थेरेपी, एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक परामर्श (मनोचिकित्सा) है जो परिवार के सदस्यों के बीच आई दूरियों और गलतफहमियों को दूर करने के लिए दी जाती है। इसमें विशेष रूप से परिवार के सदस्यों के मानसिक स्वास्थ्य और कामकाज को प्रभावित करने वाले मुद्दों को हल करने में हल करने की कोशिश की जाती है। फैमिली थेरेपी, परिवार के सदस्यों के आपसी संबंधों और उनके बीच संवाद को मजबूत करने और परिवार के भीतरी संघर्षों को कम करने में मदद करती है। फैमिली थेरेपी, आमतौर पर किसी मनोवैज्ञानिक, नैदानिक सामाजिक कार्यकर्ता या लाइसेंस प्राप्त चिकित्सक द्वारा ही दी जा सकती है।

 पारिवारिक न्यायालयों में न्याय इन तीन व्यापक उद्देश्यों के इर्द-गिर्द घूमता है –

  • पारिवारिक जीवन को संरक्षित करने और बाधित न करने के लिए।
  • यह किसी व्यक्ति, माता-पिता और उनके बच्चों के लिए सहायक और उन्हें किसी तरह का नुकसान न पहुंचने दें।
  • यह परिवार और विवाह के लिए दंडात्मक होने के बजाय उनका संरक्षक होना चाहिए।
कुटुंब न्यायालय अधिनियम,1984 लाने का कारण  

इस अधिनियम का मूल लक्ष्य परिवारिक विवादों को समझौते के माध्यम से निपटाना है। इसमें सभी पक्षकारों को आपस में समझाने का प्रयास किया जाता है। ताकि पक्षकारों को शीघ्र न्याय मिल जाए और उन्हें ज्यादा दिनों तक कोर्ट के चक्कर न काटने पड़े। 

कुटुंब न्यायालय अधिनियम,1984 के माध्यम से पारिवारिक विवाद निपटाने के लिए अलग कोर्ट की स्थापना की गई। इससे पहले पारिवारिक विवादों का निपटारा भी  सिविल कोर्ट में ही होता था। लेकिन सिविल कोर्ट में बहुत अधिक मामले होने के कारण किसी भी केस में जल्दी न्याय मिलने की उम्मीद नहीं होती थी। 

इसके परिणामस्परुप परिवारिक विवाद भी मामले सिविल कोर्ट में सालों तक लटके रहते थे, और पक्षकारों को न्याय नहीं मिल पाता था। इस समस्या के समाधान के लिए सरकार द्वारा कुटुंब न्यायालय अधिनियम,1984 लाया गया था।

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भारत में कुटुंब न्यायालयों का अधिकार क्षेत्र

पारिवारिक न्यायालय अधिनियम की धारा 7(1) में कहा गया है कि पारिवारिक न्यायालय निम्नलिखित मामलों पर निर्णय ले सकता है –

विवाह को शून्य घोषित करने के लिए विवाह की शून्यता के लिए आदेश देना, विवाह के पक्षकारों के बीच मुकदमा या कार्यवाही करना, वैवाहिक अधिकारों की बहाली, न्यायिक पृथक्करण और विवाह विघटन आदि का आदेश देना।

विवाह की वैधता या किसी व्यक्ति की वैवाहिक स्थिति की घोषणा के लिए एक मुकदमा या कार्यवाही।

दोनों में से किसी एक पक्ष की संपत्ति के संबंध में विवाह के पक्षकारों के बीच एक मुकदमा या कार्यवाही।

वैवाहिक संबंध से उत्पन्न परिस्थितियों में निषेधाज्ञा के लिए एक वाद या कार्यवाही।

किसी व्यक्ति की वैधता के रूप में घोषणा के लिए एक मुकदमा या कार्यवाही।

सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण का मुकदमा या कार्यवाही।

किसी व्यक्ति की संरक्षकता या किसी अवयस्क की अभिरक्षा या उस तक पहुंच के संबंध में कोई वाद या कार्यवाही करना आदि।

क्षेत्राधिकार बहिष्कार

एक बार किसी क्षेत्र के लिए कुटुंब न्यायालय की स्थापना के बाद, निर्दिष्ट मामलों के संबंध में इसका अधिकार क्षेत्र अनन्य होता है। इसके बाद इन मामलों पर न तो जिला न्यायालय और न ही अधीनस्थ सिविल न्यायालय या मजिस्ट्रेट का क्षेत्राधिकार हो सकता है।

भारत में कुटुंब न्यायालय की स्थिति

अप्रैल 2022 तक भारत के 26 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 715 फैमिली कोर्ट, स्थापित और कार्यरत हैं, जिनमें हिमाचल प्रदेश में तीन फैमिली कोर्ट और नागालैंड के दो फैमिली कोर्ट भी शामिल हैं।

फैमिली कोर्ट में इन मामलों की सुनवाई होती है 

फैमिली कोर्ट में पारिवारिक विवादों को निपटाया जाता है, जिनमें अधिकतर पति-पत्नी के विवाद होते हैं। कुटुंब न्यायालयों में निम्न प्रकार के मामलो  को सुलझाया जाता है। 

  • विवाह का विघटन, यानी तलाक से संबंधित मुकदमे
  • वैवाहिक अधिकारों की बहाली से संबंधित मामले
  • विवाह को शून्य और शून्य घोषित करने से संबंधित वाद
  • विवाह की वैधता या वैधता के संबंध में वाद
  • विवाहित जोड़ों की संपत्ति से संबंधित मामले
  • रखरखाव और गुजारा भत्ता से संबंधित मामले
  • बच्चों की अभिरक्षा और संरक्षकता से संबंधित मामले 

मुख्य रूप से एक कुटुंब न्यायालय द्वारा इन मामलों को ही सुना जाता है और कुटुंब न्यायालय में इन मामलों की ही अधिकता होती है।

 इस तरह के सभी मामलों का निपटारा फैमिली कोर्ट में किया जाता है। परिवार न्यायालय में मामला दर्ज करने से पहले मामले के संबंध में सभी प्रासंगिक जानकारी होनी चाहिए। ये कानून सभी भारतीय नागरिकों पर लागू होते हैं। हालांकि मामलों को धर्म के पर्सनल लॉ के अनुसार हल किया जाता है। धर्म के अनुसार इतर होता है मामलों का निपटारा –

  • हिंदुओं के लिए – हिंदू विवाह अधिनियम, 1955
  • मुसलमानों के लिए – मुस्लिम पर्सनल लॉ
  • ईसाइयों के लिए – भारतीय तलाक अधिनियम
  • पारसियों के लिए – पारसी पर्सनल लॉ आदि।

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